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दिसंबर, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

ठीक पकड़े हैं, शौंचालय बनाना सस्ते का सौदा है

आप बिलकुल ठीक पकड़े हैं आप शौचालय बनाने की सोच रहे हैं या शौचालय में एसी लगाने की सोच रहे हैं जिसके चलते शौचालय महंगा बनेगा। शौचालय महंगा होता ही नहीं है। गांवों में तो शौचालय बाहर जाने की परंपरा है। गांवों में कहा जाता है - नदी नहाए पूरा पाए , तालाब नहाए आधा। कुआंं नहाए कुछ न पाए, घर नहाए ब्याधा।। कहने का सीधा मतलब है कि नदी नहाने से पूरा पुण्य मिलता है जबकि तालाब नहाने से आधा और कुंआ नहाने से कुछ भी पुण्य नहीं मिलता है । वहीं घर में नहाने वाले बीमार व्यक्ति होते हैं। नहाने के पूर्व शौच जाना और फिर शुद्ध होना गांंव की परंपरा है। इस परंपरा में सुबह की सैर नदी की धारा में कटि स्नान शामिल है। यानी पूरी तरह वैज्ञानिक सम्पूर्ण स्नान। अगर ऊपर के दोहे को ध्यान से देखें तो उसके साथ गांव के शांत जीवन और पर्याप्त समय की बात भी छुपी हुई है जिसके पास जितना समय होता है उस हिसाब से वह नहाने और शौच के लिए नदी या तालाब का विकल्प चुनता है। लेकिन अब पहले के से गांव नहीं रहे । किसानों की जोत छोटी हो गई है उन्हें अपनी जीविकोपार्जन के लिए खेती के अलावा भी अन्य काम करने पड़ते हैं इसलिए अब ग

बाबा नागार्जुन याद आये कई दिनों के बाद

1952 में अकाल और उसके बाद नागार्जुन नें 'कई दिनों के बाद' लिखा। हमने भी कई कई दिनों के अंतराल में इसे पढ़ा, नाट्यशालाओं में रेंकियाते कलाकारों से बार-बार सुना। गरीबी-भुखमरी और पता नहीं क्या-क्या ..मरी से परिपूर्ण इस देश में इस सहज-सरल कविता का मर्म हम समझने का यत्न करते रहे। वातानुकूलित कमरों में बैठकर सर्वहारा की बात करने वाले इसे कालजयी कविता बताते रहे और हम इसे पढ़ते रहे। इसे पढ़ते-सुनते उपरी तौर पर हृदय में सिहरन सी दौड़ती और अभिव्यक्ति की दबंगई को वा ह, वा ह कहते 'पोटा, पोट-पोट' करने लगत ा । दरअसल, सही मायनों में हमने इसे अंदर तक महसूस किया ही नहीं था, जरूरत भी नहीं थी? भौतिकवादी युग में 1952 की कविता की प्रासंगिगता 2015 में कुछ रह कहॉं जाती है। चूल्हे गायब हो गए, गोदी नें अमीरों की गैस सबसिडी छोड़वाकर झुग्गी-झोपड़ी में लगवा दिया। गैस नें सांझ ढले खपरैल की घरों के उपर उठते धुंए की मनोहारी छटा को लील लिया। महिलाओं की चूडि़यों की खनक के साथ हर्षित होने वाली चक्कियॉं घरों से 'नंदा' गए, उनकी उदासी देखने के लिए हमारी आंखें तरस गयी। सीजते संयुक्त परिवार की

सुनीता वर्मा के चित्रों की तिलस्मी और सम्मोहक दुनियां

-     विनोद साव अपनी सिमटी हुई दुनियां में यह पहली बार था जब किसी चित्रकार के घर जाना हुआ था. चित्रकारों कलाकारों से दोस्ती तो रही पर घर से बाहर ही रही. कला से सम्बंधित सारी बातें या तो प्रदर्शनी में होती रहीं या फिर कला दीर्घा में , पर किसी कला के घर में नहीं. यह चित्रकार डॉ.सुनीता वर्मा का घर था. उनकी कला का घर. कभी साहित्यकार मित्रों के साथ कार्यक्रम के बाद उन्हें रात में छोडने घर आया था. पर जब उनकी कला पर चर्चा करने के लिए दिन में घर खोजा तो पा नहीं सका फिर रात में आया तो वही घर मिल गया. जिस तरह कभी दिन में गए किसी स्थान को हम रात में नहीं खोज सकते उसके विपरीत कुछ हो गया था कि रात में गए घर को दिन में नहीं तलाश पाया. शायद यह भी कला का कोई उपक्रम हो जिसमें लाईट एंड शेड का प्रभाव पड़ता हो. दरवाजे पर खड़ी सुनीता जी को मैंने कला के इस संभावित प्रभाव के बारे में बताया तब वे केवल इतना बोल पायीं कि ‘क्या बात है !’ यह कहते हुए उन्होंने कला के घर में मुझे ले लिया था जहाँ चित्रकार सुनीता रहती हैं दिन-दिन और रात रात भर. न केवल अपने जीवन में रंग भरते हुए बल्कि रंगों में जीवन भरते हुए भ

राष्ट्रीय जनजातीय नाट्य अभिव्यक्ति उत्सव : आदि परब – 2

छत्तीसगढ़, आदि कलाओं से संपन्न राज्य है, यहां सदियों से जनजातीय समुदाय के लोग निवास करते आ रहे हैं। बस्तर, सरगुजा एवं कवर्धा क्षेत्र सहित यहॉं की संपूर्ण मिट्टी में आदिम संस्कृति एवं कलाओं के पुष्प सर्वत्र बिखरे हुए हैं। जनजातीय अध्येताओं का मानना है कि दक्षिण भारत के जनजातीय समूहों से सांस्कृतिक आदान प्रदान के फलस्वरूप एवं कला एवं परम्पराओं में विविधता के बावजूद, छत्तीसगढ़ की जनजातियों की अपनी एक अलग पहचान कालांतर से विद्यमान है। भौगोलिक रूप से देश के हृदय स्थल में स्थित होने के कारण यहॉं के इन्हीं जनजातियों के जनजातीय कला एवं संस्कृति का एक अलग महत्व है। इसीलिए जनजातीय आदि कलाओं के अध्ययन के उद्देश्यो से, देश के नक्शे में छत्तीसगढ़ को प्रमुखता दी जाती है। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के द्वारा पारंपरिक नाट्य विधा के शिक्षण-प्रशिक्षण के साथ ही विगत वर्षों से इन जनजातीय आदि कलाओं और नृत्यों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया जा रहा है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए आदि कलाओं से संपन्न छत्तीसगढ़ में संस्कृति विभाग छत्ती