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जून, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

तमंचा रायपुरी की छत्तीसगढ़ी कविता

बेटा सोंचथे कब ददा पईसा दिही अउ नवा मोबाईल लेतेंव वोखर दाई सोंचथे कब येखर कमई बाढही अउ नवा लुगरा लेतेंव मै सोंचथव कब मोला काम मिलही अउ बांस खपरा के उधारी छुट लेतेंव महाजन सोंचथे कब येखर सक हारतिस अउ येखर बांचे गाँव के खेत ल बिसा लेतेंव हमन लुकपुकहा अन हडबड़ाथन हमर सुख के कथरी ऐसनेहे कंपाथे कोनो दिन सड़क म हमर फटफटी इही हडबड़ी म टरक म झंपाथे महाजन धीर हे, अगोरथे इहि समे म हमर इलाज अउ किरिया करम बर हमर खेत ह बेचाथे अउ हमर जम्मो सउख धारो धार आसू म बोहाथे. - संजीव तिवारी "तमंचा रायपुरी"

डा: संजय दानी "कंसल" की गज़ल : माहे- रमज़ान

रोज़ा रखो या न रखो माहे- रमज़ान में, दिल की बुराई तो तजो माहे -रमज़ान में। ख़ुशियां ख़ूब मना ली जीवन में गर तो, ग़ैरों के दुख को हरो माहे-रमज़ान में। कि बड़ों को आगे झुकना वाजिब है पर, सच के ख़ातिर न झुको माहे -रमज़ान में। बेश डरो अपने माबूद से जीवन भर, झूठ फ़रेब से भी डरो माहे-रमज़ान में। हर ज़ीस्त ख़ुदा का है,हर ज़ीस्त ख़ुदा जब, ज़ीस्ते ख़ुदा से न लड़ो माहे-रमज़ान में। पाप की टोकरी तुम सदियों ढो चुके,तो बस, नेकी की फ़स्ल रखो माहे-रमज़ान में। उलजन,फ़िसलन,विचलन,संशय बंद भी हो , कि सबल किरदार करो माहे-रमज़ान में। बीबी बच्चों से बड़ा जग में शय ना इक, वापस घर लौट चलो माहे-रमज़ान में। डॉ. संजय दानी "कंसल" दुर्ग डॉ.संजय दानी "कंसल" पेशे से चिकित्‍सक हैं एवं उर्दू अद़ब से जुड़े हुए हैं। इंटरनेट की दुनियॉं में इनका एक ब्‍लॉग भी है। गज़ल एवं कहानियॉं लिखते हैं, वर्तमान में वे दुर्ग जिला हिन्‍दी साहित्‍य समिति के अध्‍यक्ष एवं विभिन्‍न साहित्यिक व अदबी संस्‍थाओं से जुड़े हुए हैं। डॉ.दानी जनअधिकारों एवं जनमुद्दों पर भी समय समय पर आवाज उठाते रहते हैं। अभी हाल ही में उन्‍हों

पुस्तक समीक्षा : समय की नब्ज टटोलतीं लघुकथाएं

कथा साहित्य में लघुकथा के एक नई विधा के रूप में स्थापित हुए बहुत समय नहीं हुआ है। लगभग आठवें दशक से यह अधिक चर्चा में आई है। यूं पंचतंत्र की कहानियों को भी लघुकथा माना जा सकता है, किंतु वे उपदेशपरक, नीतिपरक और नैतिक मूल्यों पर जोर देने वाली कहानियां हैं। इसलिए सामाजिक सरोकार होते हुए भी समकालीन सामाजिक यथार्थ एवं समकालीन जीवनमूल्यों से उनका सीधा सरोकार नहीं बन पाया। प्रेमचंद के युग से कथा-साहित्य में उद्‌देश्य-परकता को साहित्य-मूल्य के रूप में स्वीकार किया जाने लगा था। प्रेमचंद ने सोद्देश्य लेखन का नारा देकर साहित्य को समाज से जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया। तब से अब तक साहित्य की हर विधा में सामाजिक यथार्थ का कड़वा, मीठा सच दिखाई दे रहा है। लघुकथा की रचना उन्हीं आंदोलनों के बीच प्रारंभ हुई। लघुकथा में सामाजिक विसंगति, समाज के अंतर्विरोध, समाज के मानव-मूल्य, समाज का वर्ग चरित्र, मानवीय रिश्तों एवं संबंधों में विकास एवं क्षरण, मनुष्य की राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक चेतना के छोटे-छोटे अक्स दिखाई देने लगे थे। अपने छोटे कलेवर में बड़े सामाजिक प्रश्नों से जूझने का अद‌र भुत

सम्मेलन : तेलुगु महासभलु

भिलाई के उर्जावान और कर्मठ aसाथी रूद्रमूर्ति लोगों से इतनी सहजता से मिलते हैं कि मिलने वालों को आभास नहीं होने देते कि वे एक साथ कई बड़े काम कर रहे हैं. मसलन वे भिलाई में तेलुगु रंगमंच के निर्देशक हैं. तेलुगु के प्रसिद्ध अखबार ‘’इनाडु’ के छत्तीसगढ स्थित संवाददाता हैं और तेलुगु-हिंदी द्वैभाषिक पत्रिका ‘भिलाई वाणी के संपादक हैं, तेलुगु समुदाय के पिछड़े वर्ग के संरक्षक हैं, बालाजी मंदिर के सक्रिय सदस्य हैं. वे हर साल तेलुगु साहित्य एवं संस्कृति कर्म पर वार्षिक सम्मेलन अलग अलग शहरों में करवाते हैं. पिछले दिनों उन्होंने भिलाई में तीन दिवसीय ‘अखिल भारती तेलुगु महासभलु का विराट आयोजन कर दिखाया था. इस सम्मेलन में देश भर के तेलुगु विद्वान साहित्यकार और फिल्म निर्देशक व कलाकार उपस्थित हुए थे. इस तरह के तमाम बड़े और महत्वपूर्ण आयोजनों का जब रूद्रमूर्ति आमन्त्रण दे रहे होते हैं तब वे आमन्त्रित जन को बड़े हौले हौले अपनी योजना को बताते हैं विनम्रता के साथ और जब उस कार्यक्रम में आमन्त्रित गण पहुंचते हैं तब देखते हैं कि वह एक विराट और चमचमाता हुआ आयोजन है - जिसमें हर चीज अनुशासित, पाबन्द और गर