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अप्रैल, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

कला दीर्घा : हर ‘निगेटिव’ को ‘पॉजिटिव’ बनाते हुए अनिल कामड़े

- विनोद साव भिलाई आर्ट्स क्लब ने इस शहर को चित्रों और रंगों से भर दिया है. पिछले महीने भिलाई में चित्रकला पर तीन दिनों का सार्थक आयोजन किया गया था और इस बार अनिल कामड़े के छायाचित्रों की प्रदर्शनी लगवा दी. नेहरू आर्ट गैलरी के सामने ही अनिल मिल गए. अपने चिर-परिचित हंसमुख चेहरे के साथ. जन संपर्क विभाग के फोटो विडियो सेक्शन में एक समय तीन कलाकार ऐसे सहभागी थे जो दुर्ग से एक साथ आते और जाते रहे – हिमांशु मिश्रा, प्रमोद यादव और अनिल कामड़े. ये तीनों दुर्ग में गया नगर के आसपास लगभग एक ही इलाके में रहे. इन तीनों कलाकारों में जबर्दस्त यारी थी और इनके कारण जन संपर्क विभाग में याराना माहौल बना रहता था. इनमें विलक्षण विडियोग्राफर हिमांशु मिश्रा हबीब तनवीर के ‘सेट’ पर कार्य करते हुए दुर्घटनाग्रस्त होकर असमय ही यारों के बीच से चले गए. हिमांशु के पास किसी फिल्म के छायाकार जैसी समृद्ध दृष्टि और तकनीक थी. उनकी बनाई विडियो फिल्मों ने छत्तीसगढ और इसके बाहर भी अपनी छाप छोड़ी थी. साहित्य में कदम रखने से पहले मैंने भी कुछ विडियो फीचर फिल्मों के निर्माण में दांव पेंच आजमाए थे. हिमांशु के साथ मिलकर ‘पाट

सरला शर्मा की कहानी : सफेद होता लहू

समय के साथ साथ रिश्‍तों की संवेदनशीलता बदल रही है, संबंधों के बीच नि:स्‍वार्थ प्रेम और भारतीय परिवार की परम्‍परा का मजबूत किला धीरे धीरे ढहने लगा है। देश में बुजुर्ग मॉं-बाप के प्रति बेटा-बहुओं का व्‍यवहार और बृद्धाश्रम में दिन काटते तिरस्‍कृत जीवों की कहानी आप रोज पढ़ते होंगें। अमरीका जैसे गुलाबी स्‍वप्‍नों के देश में संपूर्ण सुख का भोग कर रहे बेटा-बहुओं के द्वारा अपनी ही मॉं को किस तरह भावनात्‍मक प्रतारणा दिया जा रहा है, इसकी झलक आप इस कहानी में देख सकते हैं। सरला शर्मा, छत्‍तीसगढ़ की प्रखर लेखिका हैं, इनके पिता स्‍व.श्री शेषनाथ शर्मा 'शील' जी छत्‍तीसगढ़ के वरिष्‍ठ साहित्‍यकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इन्‍होंनें हिन्‍दी, बंगला एवं छत्‍तीसगढ़ी में लेखन किया है एवं उम्र के इस पड़ाव में भी निरंतर सृजनशील हैं। अंर्तजाल जगत में इनका एक ब्‍लॉग भी है एवं वे फेसबुक व ब्‍हाट्स एप के माध्‍यम से अपनी वैचारिक दखल प्रस्‍तुत कर रही हैं। सरला दीदी नें यह कहानी मुझे बहुत पहले भेजी थी, किन्‍तु समयाभाव के कारण मैं इसे डिजिटलाईज नहीं कर पाया था, अतिथि लेखक के रूप में प्रस्‍तुत हैं उनकी

वामपंथ और तीसरा विकल्प : विश्लेषण

यदि देश की भावी राजनीति को दिशा देने की जिम्मेदारी सचमुच निभानी है तो माकपा को अपनी असफलता के कारणों को दूर करना पड़ेगा। नेतृत्व परिवर्तन अपनी जगह, लेकिन जनता से अलगाव मिटाने के लिए जनता परिवार की तरह नकारात्मक नारा न देकर सकारात्मक कार्यक्रम पर चलकर आंदोलन खड़ा करना होगा संसदीय भटकाव से बचते हुए संसदीय सफलता का रास्ता जनांदोलनों से ही जाता है- कम्युनिस्टों की इस सीख से आम आदमी पार्टी ने फायदा उठाया तो माकपा क्यों नहीं उठा सकती..   - अजय तिवारी इस समय विशाखापट्टनम में चल रही माकपा की 21वीं राष्ट्रीय कांग्रेस पर लोगों की नजर खासकर इसलिए है कि वहां सिर्फ नेतृत्व-परिवर्तन होगा या नीति-परिवर्तन भी? हाल ही में पुड्डूचेरी में संपन्न भाकपा के महाधिवेशन में लगभग वही समस्याएं थीं, जो माकपा के सामने हैं। कम्युनिस्ट पार्टयिों के सम्मेलनों से जनसाधारण में कोई आशा-उत्साह नहीं है। किंतु राजनीतिक विश्लेषकों के लिए यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि अगले कुछ वर्षो में राजनीतिक शक्तियों का ध्रुवीकरण किस दिशा में होगा और उसमें कम्युनिस्ट पार्टयिों की भूमिका कैसी और कितनी होगी। एक तो भाकपा की तरह माकपा

कुछ जमीन से कुछ हवा से : रंगों और तूलिकाओं की दुनिया में तीन दिन

- विनोद साव अतिथि चित्रकार अखिलेश के साथ लेखक. भिलाई के चित्रकार हरि सेन ने फोन किया था कि ‘भिलाई में चित्रकला पर तीन दिनों का बढ़िया आयोजन है .. आप अपने विचारों के साथ आ जाइये.’ ऐसा कहते हुए उनके छत्तीसगढ़ी के चिर परिचित जुमले थे ‘भइगे कका.. जान दे कहाथे’. हरि सेन से मेरा परिचय १९९३ से है जब उन्होंने मेरे पहले व्यंग्य संग्रह ‘मेरा मध्य प्रदेशीय ह्रदय’ का मुखपृष्ठ बनाया था. लेकिन मुझे चित्रकारों के बीच में ‘लॉन्च’ किया है चित्रकार डी.एस.विद्यार्थी और सूक्ष्म कलाकार अंकुश देवांगन ने. मेरा मन शिल्पों, चित्रों और रंगों की दुनियां में शुरू से ही रमा रहा है. हाँ .. चित्रकारों की संगत देर से मिल रही है. मैं हर शाम ऑफिस से निकलता और इन तूलिकाओं और उनके रंगों की दुनिया में जा समाता. पहली शाम सिविक सेंटर के नेहरु आर्ट गैलरी में थी जहाँ कला प्रेमी नेहरु को हार पहना कर चित्रकला प्रदर्शनी का उदघाटन किया गया. इस अवसर पर अनेक चित्रकारों व भिलाई के अधिकारियों कर्मचारियों के बीच इंदौर से आये प्रसिद्ध चित्रकार व लेखक अखिलेश उपस्थित थे. गोल गुम्बद वाली इस गैलरी में चित्रों को देखना एक अल

छत्तीसगढ़ का इतिहास, पुरातत्व और संस्कृति का साहित्य

दैनिक हरिभूमि से साभार संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग, छ.ग. शासन के सहयोग से दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य समिति द्वारा विगत रविवार को होटल हिमालय पार्क, सुपेला, भिलाई में ‘छत्तीसगढ़ का इतिहास, पुरातत्व और संस्कृति का साहित्य’ विषय पर परिचर्चा रखी गई थी। इसमें अध्यक्षता कर रहे मुंगेली के कलेक्टर व इतिहासकार डॉ.संजय अलंग नें छत्तीसगढ़ के पुरावैभव एवं इतिहास पर लिखे गए साहित्य को विस्तार से बताते हुए कहा कि, अपने अतीत को जानने की उत्सुकता सभी को होती है। महाकोशल, दक्षिण कोशल व कोशल तदुपरांत छत्तीसगढ़ के निर्माण के एतिहासिक पहलुओं को उन्होंनें बहुत ही सरल व रोचक ढ़ंग से प्रस्तुत किया। छत्तीसगढ़ के गढ़ों की स्थापना व रियासतों एवं जमीदारियों के अस्तित्व में आने के संबंध में उन्होंनें तथ्यात्मक विवरण प्रस्तुत करते हुए बताया कि छत्तीसगढ़ में गढ़ का मतलब किला नहीं है।। उन्होंनें इतिहासपरक सजग मानसिकता व इतिहास में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को भी विश्लेशित किया। उन्होंनें अपनी किताब का उल्लेख करते हुए कहा कि राजाओं के बदले जनता का इतिहास लिखा जाना आवश्यक है। इतिहास सूतनूका को देवदासी लिख कर अपना इतिश्री कर लेत