विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
1952 में अकाल और उसके बाद नागार्जुन नें 'कई दिनों के बाद' लिखा। हमने भी कई कई दिनों के अंतराल में इसे पढ़ा, नाट्यशालाओं में रेंकियाते कलाकारों से बार-बार सुना। गरीबी-भुखमरी और पता नहीं क्या-क्या ..मरी से परिपूर्ण इस देश में इस सहज-सरल कविता का मर्म हम समझने का यत्न करते रहे। वातानुकूलित कमरों में बैठकर सर्वहारा की बात करने वाले इसे कालजयी कविता बताते रहे और हम इसे पढ़ते रहे। इसे पढ़ते-सुनते उपरी तौर पर हृदय में सिहरन सी दौड़ती और अभिव्यक्ति की दबंगई को वाह, वाह कहते 'पोटा, पोट-पोट' करने लगता। दरअसल, सही मायनों में हमने इसे अंदर तक महसूस किया ही नहीं था, जरूरत भी नहीं थी?
भौतिकवादी युग में 1952 की कविता की प्रासंगिगता 2015 में कुछ रह कहॉं जाती है। चूल्हे गायब हो गए, गोदी नें अमीरों की गैस सबसिडी छोड़वाकर झुग्गी-झोपड़ी में लगवा दिया। गैस नें सांझ ढले खपरैल की घरों के उपर उठते धुंए की मनोहारी छटा को लील लिया। महिलाओं की चूडि़यों की खनक के साथ हर्षित होने वाली चक्कियॉं घरों से 'नंदा' गए, उनकी उदासी देखने के लिए हमारी आंखें तरस गयी। सीजते संयुक्त परिवार की परिकल्पना 'तईहा' की बातें हुई, अचानक आने वाले मेहमानों के लिए उतावली और हमेशा 'एक ठोम्हा अकतिहा चुरने' वाली देचकी किलो के भाव बेंच दी गई और उनका स्थान सीमित मात्रा में भोजन बनाने के लिए उपलब्ध लीटर वाले कूकरों नें ले लिया। ऐसे में घर के सामने जूठन पर पलने वाली कानी कुतिया भी भाग कर अब मुनिसपल के वेस्ट मैनेजमेंट में अपना कमीशन खोजने लगी। रंगीन केमिकल्स से पुते पुताये भीत से कीट-पतंगों को विरक्ति हुई और जो आशक्त किचन के सेंधों में छिपे बैठे रहे उनके लिए हिट सहज रूप से परचून की दुकान पर उपलब्ध हो गया। इन सबको देखते हुए सुकड़दुम छिपकिलियों का गस्त, पहरेदारों की नहीं चोरों सी लगने लगी, सो छिपकिल्लियां भी गायब। विभिन्न प्रकार के उडल-नूडल खाद्धान्न से भरे घरों में कपड़े, किताबें, गत्ते और लकडि़यों को कुतरते चूहों की शिकश्ती का हालात भी अब दिखने से रहा। चाउंर वाले बाबा की किरपा से मुफ्त दानों की एक आध बोरी और चेपटी की दो चार बोतलों से घर सदा आबाद रहा मने अंदर ही रहा, तो दानों के अंदर आने की बात रही ही नहीं। रही बात काले कौये की तो उस पर ब्लॉ.. ब्लॉं.. ब्लॉं...
हॉं अब समय बदल गया है, शब्दों की परिभाषाओं में बदलाव आ गया है। ग्रोथ के आंकड़ो के छद्मावरण के बीच किश्तों में खरीदी खुशियों से संतुष्ट, एंड्राइड मोबाईल धारी, मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग आज भी इस कविता में अपने आप को तलासता है। उपरी कमाई व छठे वेतनमान के अंगूर को ताकते, न्यूनतम वेतनमान को तरसते, जिन्दगी के ड्यू इंस्टांलमेन्ट की रिकवरी वाले एसएमएस और फोन काल से तंग, किसी परिवार में अचानक जब मेहनत का असली फल गांधी जी के छापों वाले कागज के टुकड़ों के साथ मिलता है तब बाबा नागार्जुन याद आते हैं और घर भर की आंखें चमक उठती है, कई दिनों के बाद!
-तमंचा रायपुरी
भौतिकवादी युग में 1952 की कविता की प्रासंगिगता 2015 में कुछ रह कहॉं जाती है। चूल्हे गायब हो गए, गोदी नें अमीरों की गैस सबसिडी छोड़वाकर झुग्गी-झोपड़ी में लगवा दिया। गैस नें सांझ ढले खपरैल की घरों के उपर उठते धुंए की मनोहारी छटा को लील लिया। महिलाओं की चूडि़यों की खनक के साथ हर्षित होने वाली चक्कियॉं घरों से 'नंदा' गए, उनकी उदासी देखने के लिए हमारी आंखें तरस गयी। सीजते संयुक्त परिवार की परिकल्पना 'तईहा' की बातें हुई, अचानक आने वाले मेहमानों के लिए उतावली और हमेशा 'एक ठोम्हा अकतिहा चुरने' वाली देचकी किलो के भाव बेंच दी गई और उनका स्थान सीमित मात्रा में भोजन बनाने के लिए उपलब्ध लीटर वाले कूकरों नें ले लिया। ऐसे में घर के सामने जूठन पर पलने वाली कानी कुतिया भी भाग कर अब मुनिसपल के वेस्ट मैनेजमेंट में अपना कमीशन खोजने लगी। रंगीन केमिकल्स से पुते पुताये भीत से कीट-पतंगों को विरक्ति हुई और जो आशक्त किचन के सेंधों में छिपे बैठे रहे उनके लिए हिट सहज रूप से परचून की दुकान पर उपलब्ध हो गया। इन सबको देखते हुए सुकड़दुम छिपकिलियों का गस्त, पहरेदारों की नहीं चोरों सी लगने लगी, सो छिपकिल्लियां भी गायब। विभिन्न प्रकार के उडल-नूडल खाद्धान्न से भरे घरों में कपड़े, किताबें, गत्ते और लकडि़यों को कुतरते चूहों की शिकश्ती का हालात भी अब दिखने से रहा। चाउंर वाले बाबा की किरपा से मुफ्त दानों की एक आध बोरी और चेपटी की दो चार बोतलों से घर सदा आबाद रहा मने अंदर ही रहा, तो दानों के अंदर आने की बात रही ही नहीं। रही बात काले कौये की तो उस पर ब्लॉ.. ब्लॉं.. ब्लॉं...
हॉं अब समय बदल गया है, शब्दों की परिभाषाओं में बदलाव आ गया है। ग्रोथ के आंकड़ो के छद्मावरण के बीच किश्तों में खरीदी खुशियों से संतुष्ट, एंड्राइड मोबाईल धारी, मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग आज भी इस कविता में अपने आप को तलासता है। उपरी कमाई व छठे वेतनमान के अंगूर को ताकते, न्यूनतम वेतनमान को तरसते, जिन्दगी के ड्यू इंस्टांलमेन्ट की रिकवरी वाले एसएमएस और फोन काल से तंग, किसी परिवार में अचानक जब मेहनत का असली फल गांधी जी के छापों वाले कागज के टुकड़ों के साथ मिलता है तब बाबा नागार्जुन याद आते हैं और घर भर की आंखें चमक उठती है, कई दिनों के बाद!
-तमंचा रायपुरी
very nice and informative blog post . I appreciating your work,Thanks for sharing with us.-indian marriage site
जवाब देंहटाएंबाबा नागार्जुन मेरे अपने जैसे लगते हैं लगता है मेरे ही बाबा हैं । सबको ऐसा ही लगता होगा । सञ्जीव ! विशेषकर वर्धा हिन्दी विश्वविद्यालय में मुझे ऐसा एहसास होता रहा जैसे मैं बाबा नागार्जुन के घर में रह रही हूँ । वे मुझे बहुत अच्छे लगते हैं ।
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