विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
रोज़ा रखो या न रखो माहे- रमज़ान में,
दिल की बुराई तो तजो माहे -रमज़ान में।
ख़ुशियां ख़ूब मना ली जीवन में गर तो,
ग़ैरों के दुख को हरो माहे-रमज़ान में।
कि बड़ों को आगे झुकना वाजिब है पर,
सच के ख़ातिर न झुको माहे -रमज़ान में।
बेश डरो अपने माबूद से जीवन भर,
झूठ फ़रेब से भी डरो माहे-रमज़ान में।
हर ज़ीस्त ख़ुदा का है,हर ज़ीस्त ख़ुदा जब,
ज़ीस्ते ख़ुदा से न लड़ो माहे-रमज़ान में।
पाप की टोकरी तुम सदियों ढो चुके,तो बस,
नेकी की फ़स्ल रखो माहे-रमज़ान में।
उलजन,फ़िसलन,विचलन,संशय बंद भी हो ,
कि सबल किरदार करो माहे-रमज़ान में।
बीबी बच्चों से बड़ा जग में शय ना इक,
वापस घर लौट चलो माहे-रमज़ान में।
डॉ.संजय दानी "कंसल" दुर्ग
दिल की बुराई तो तजो माहे -रमज़ान में।
ख़ुशियां ख़ूब मना ली जीवन में गर तो,
ग़ैरों के दुख को हरो माहे-रमज़ान में।
कि बड़ों को आगे झुकना वाजिब है पर,
सच के ख़ातिर न झुको माहे -रमज़ान में।
बेश डरो अपने माबूद से जीवन भर,
झूठ फ़रेब से भी डरो माहे-रमज़ान में।
हर ज़ीस्त ख़ुदा का है,हर ज़ीस्त ख़ुदा जब,
ज़ीस्ते ख़ुदा से न लड़ो माहे-रमज़ान में।
पाप की टोकरी तुम सदियों ढो चुके,तो बस,
नेकी की फ़स्ल रखो माहे-रमज़ान में।
उलजन,फ़िसलन,विचलन,संशय बंद भी हो ,
कि सबल किरदार करो माहे-रमज़ान में।
बीबी बच्चों से बड़ा जग में शय ना इक,
वापस घर लौट चलो माहे-रमज़ान में।
डॉ.संजय दानी "कंसल" दुर्ग
डॉ.संजय दानी "कंसल" पेशे से चिकित्सक हैं एवं उर्दू अद़ब से जुड़े हुए हैं। इंटरनेट की दुनियॉं में इनका एक ब्लॉग भी है। गज़ल एवं कहानियॉं लिखते हैं, वर्तमान में वे दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य समिति के अध्यक्ष एवं विभिन्न साहित्यिक व अदबी संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। डॉ.दानी जनअधिकारों एवं जनमुद्दों पर भी समय समय पर आवाज उठाते रहते हैं। अभी हाल ही में उन्होंनें भारतीय रेल में यात्रा के दौरान सेवा में कमी के लिए, रेलवे के विरूद्ध दायर किए गए मुकदमें में सफलता पाई है जिसकी सर्वत्र चर्चा हुई है। उक्त मुकदमें की संक्षिप्त जानकारी यहॉं है
सटीक रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर शब्द ,बेह्तरीन अभिव्यक्ति .!शुभकामनायें. आपको बधाई
जवाब देंहटाएंकुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
सञ्जय जी ! आप की क़लम में जादू है । आप गज़ल के बादशाह हैं, बहुत अच्छी गज़ल लिखते हैं । विभिन्न विषयों पर आपकी पकड है जिससे पाठक आपसे जुडा रहता है - चरैवेति - चरैवेति ।
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