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मार्च, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

आयोजन : ‘समाजरत्न’ पतिराम साव सम्मान समारोह संपन्न

समाजसेवी गेंदलाल देशमुख और कवि मुकुंद कौशल सम्मानित दुर्ग. ‘वह लेखक हमेशा जीवित रहता है जो अपने युग और समय पर हस्तक्षेप करता चलता है. पतिराम साव आज भी हमारे बीच जीवित हैं क्योंकि वे अपने समय के प्रति सतर्क थे. वे ‘साहू सन्देश’ के संपादकीय में अपने युग में हो रहे परिवर्तनों पर निरंतर हस्तक्षेप कर रहे थे. वे केवल कविता के ही नहीं हिंदी गद्य के भी सशक्त कलमकार थे. इसलिए हम आज भी उनके विचारों का स्मरण करते हैं और उनसे सीख ग्रहण करते हैं.’ उक्त विचार पतिराम साव सम्मान समारोह में पधारे मुख्य अतिथि, कल्याण महाविद्यालय, भिलाई के हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ.सुधीर शर्मा ने व्यक्त किये. अध्यक्षता करते हुए अनुसूचित जाति जनजाति विभाग, रायपुर के सहायक संचालक डॉ.बी.आर.साहू ने कहा कि ‘मैं पतिराम साव जी के बड़े पुत्र अपने समय के यशस्वी शिक्षाविद अर्जुन सिंह साव का शिष्य रहा हूँ इसलिए भी सावजी के समाजसेवी संस्कारों को उनके परिजनों में निकट से देखने का अवसर पाता रहा हूँ.’ इस वर्ष वृक्षारोपण के जरिये पर्यावरण सरंक्षण करने वाले ग्राम हनोदा-कोडिया के निवासी गेंदलाल देशमुख को समाजसेवा के लिए तथा दु

समीक्षा : समकालीन स्त्री-विमर्श को डाॅ. विनय कुमार पाठक का प्रदेय

(डाॅ. दादू लाल जोशी के शोध प्रब्रध की समीक्षा) इस शोध प्रबंध की समीक्षा, समालोचना अथवा आलोचना में कुछ लिखने अथवा कहने से पहले हमें ध्यान देना होगा कि इस ग्रंथ की चौदह पृष्ठों की विस्तृत और विद्वतापूर्ण भूमिका के अलावा दोनों फ्लैफ में भी, दो अलग-अलग विद्वानों की अमृत वाणियाँ (मीठे वचन को संत कवियों ने अमृत के समान ही माना है।) दी गई हैं। इस तरह की सामग्रियाँ वस्तुतः प्रस्तुत कृति की समीक्षाएँ ही होती है। फिर भी मान्य समीक्षकों की समीक्षाएँ अलग महत्व रखती हैं और अधिक मूल्यवान होती हैं, अतः समीक्षाओं और आलोचनाओं की और भी निर्झरणियाँ विभिन्न स्रोतों से निकलनी चाहिए, निकलकर बहनी भी चाहिए, यह हमारी साहित्यिक परंपरा के अनुकूल भी है और आवश्यकता भी। कहा गया है - ’’सूर, सूर, तुलसी शशि, उड़ुगण केशवदास। बांकी सब खद्योत सम, जँह-तँह करत प्रकाश।’’ यह समीक्षा कुबेर जी के ब्‍लॉग में यहॉं भी पढ़ी जा सकती है. 

छत्तीसगढ़ में रंग-परंपरा

27 मार्च विश्व रंगमंच दिवस। जब बात विश्व रंगमंच की हो तो भला छत्तीसगढ़ के रंग-परंपरा की चर्चा कैसे नहीं होगी। क्योंकि दुनिया में सबसे पुराना नाट्य शाला छत्तीसगढ़ में जो मिलता है। दुनिया के बड़े रंगकर्मी छत्तीसगढ़ में जन्म लेते हैं। अतभूद शैली वाले नाचा-गम्मत भी छत्तीसगढ़ में ही मिलता है। हम चर्चा कर रहे छत्तीसगढ़ की रंग परंपरा की । सरगुजा में दुनिया का प्राचीन नाट्य शाला- छत्तीसगढ़...कला और संस्कृति का गढ़। एक ऐसा प्रदेश जहां की रंग-परंपरा दुनिया में सबसे पुराना माना जाता है। दुनिया का सबसे पुराना नाट्य शाला छत्तीसगढ़ के सरगुजा में रामगढ़ के पहाड़ी पर मिलता है। रामगढ़ की पहाड़ी पर स्थित सीताबोंगरा गुपा और जोगमारा गुफा में प्राचीन नाट्य शाला के प्रमाण मिले है। खैरागढ़ संगीत एवं कला विश्वविद्यालय में शिक्षक वरिष्ठ रंगकर्मी योगेन्द्र चौबे बताते है कि आधुनिक थियेटर की तरह सीताबोंगरा गुफा के भीतर मंच , बैठक व्यवस्था आदि के साथ शैल चित्र मिलते है। सीताबोंगरा गुफा को छत्तीसगढ़ में रंगकर्म की परंपरा का जीवंत प्रमाण के रुप में देखा जाता है। छत्तीसगढ़ में नाचा-गम्मत - रंग-परंपरा में छत्तीसगढ़

डॉ. नथमल झँवर की पांच कवितायें

डॉ. नथमल झँवर जी मेरे गृह नगर सिमगा में निवास करते हैं किन्‍तु उनकी रचनायें संपूर्ण हिन्‍दी विश्‍व में लगातार छपती है। झँवर जी मूलत: कवि हैं किन्‍तु वे कहानियॉं एवं व्‍यंग्‍य भी लिखते हैं। उनकी कहानियॉं विभिन्‍न राष्‍ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती हैं। उनकी दो कवितायें इस ब्‍लॉग में यहॉं प्रकाशित हैं, उनके कविताओं का एक संग्रह 'एक गीत तुम्‍हारे नाम' ब्‍लॉग प्‍लेटफार्म में यहॉं संग्रहित है। प्रस्‍तुत है उनकी पॉंच कवितायें - 1.जाने क्यों डरते हैं कैसी दुनिया है मनुष्य होने का दम भरते हैं बेटी के पैदा होने से, जाने क्यों डरते हैं बेटी के होने पर क्यों है शोक मनाया जाता नव कन्या को देख, बाप का चेहरा क्यों मुरझाता बेटी की किलकारी सुन, क्यों दुखी हुआ जाता है बेटी औ’ बेटे में अन्तर, समझ नहीं आता है कैसी दुनिया है ये कैसा भेद किया करते है बेटी के पैदा होने पर, जाने क्यों डरते है बेटे को अपना, बेटी को कहें पराया धन है समझ नही आता मानव का कैसा ये चिन्तन है उसी कोख में बेटा - बेटी दोनों को पाला है बेटी के पैदा होते मुख में लगता ताला है नन्ही गुड़िया दे

जिला न्‍यायालयों के महत्‍वपूर्ण निर्णय

भारतीय न्यायपालिका में सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के कार्यान्वयन के लिए भारत के सवोच्‍च न्यायालय द्वारा ई- न्यायालय परियोजना 2005 के तहत् न्‍याय निर्णयों को सुलभ बनाने के लिए ई-कोर्ट वेबसाईट बनाया गया है जिसमें जिला एवं ताल्‍लुका न्‍यायालयों के न्‍याय निर्णय भी अब पीडीएफ फारमेट में तत्‍काल प्राप्‍त हो जा रहे हैं। इसके पूर्व सिर्फ सवोच्‍च न्‍यायालय एवं उच्‍च न्‍यायालयों के न्‍याय निर्णय ही इंटरनेट के माध्‍यम से प्राप्‍त हो पाते थे, अब ई-कोर्ट के कारण भारत के प्रत्‍येक जिला एवं ताल्‍लुका न्‍यायालयों के न्‍याय निर्णय कुछ क्लिक में उपलब्‍ध हो पा रहे हैं। हमने ई-कोर्ट में उपलब्‍ध, छत्‍तीसगढ़ के जिला एवं ताल्‍लुका न्‍यायालयों के कुछ विशेष न्‍याय निर्णयों को एक ब्‍लॉग बनाकर प्रस्‍तुत करने का प्रयास किया है। जिसका लिंक यहॉं है, अभी कुछ दिन पहले छत्‍तीसगढ़ के गैंगेस्‍टरों के बीच हुए महादेव हत्‍याकाण्‍ड का फैसला दुर्ग न्‍यायालय के द्वारा दिया गया उसे भी इस ब्‍लॉग में शामिल किया गया है। हम प्रयास करेंगें कि नियमित रूप से महत्‍वपूर्ण एवं आवश्‍यक स्‍थानीय न्‍याय निर्णयों को उक्‍त ब्

छत्तीसगढ़ के जनकवि :कोदूराम “दलित” भुलाहू झन गा भइया

५ मार्च को एक सौ पाँचवीं जयन्ती पर विशेष {छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध कहानीकार और वरिष्ठ साहित्यकार श्री परदेशीराम वर्मा जी की किताब – “अपने लोग” के प्रथम संस्करण २००१ से साभार संकलित} छत्तीसगढ़ के जनकवि :कोदूराम “दलित” भुलाहू झन गा भइया पिछड़े और दलित जन अक्सर अन्चीन्हे रह जाते हैं | क्षेत्र, अंचल, जाति और संस्कृति तक पर यह सूत्र लागू है | पिछड़े क्षेत्र के लोग अपना वाजिब हक नहीं माँग पाते | हक पाने में अक्षम थे इसीलिये पिछड़ गये और जब पिछड़ गये तो भला हक पाने की पात्रता ही कहाँ रही | हमारा छत्तीसगढ़ भी एक ऐसा क्षेत्र है जिसे हक्कोहुकूक की समझ ही नहीं थी | परम श्रद्धालु, परोपकारी, मेहमान-नवाज, सेवाभावी यह छत्तीसगढ़ इसी सब सत्कर्मों के निर्वाह में मगन रह कर सब कुछ भूल जाता है | “मैंने उन्हें प्रणाम किया” यह भाव ही उसे संतोष देता है | जबकि प्रणाम करवाने में माहिर लोग उसकी स्थिति पर तरस ही खाते हैं | छत्तीसगढ़ी तो अपनी उपेक्षा पर जी भर रोने का अवकाश भी नहीं पाता | जागृत लोग ही अपनी उपेक्षा से बच्चन की तरह व्यथित होते हैं .... ‘मेरे पूजन आराधन को मेरे सम्पूर्ण समर्पण को, जब मेरी कमजोर

इस होली में सारे कलुष धो लेना चाहता हूँ

इस सोसल मीडिया और इसके अस्त्र हिन्दी ब्लॉगिंग नें पिछले वर्षों से कुछ ऐसा छद्म और आभासी व्यक्तित्व का निर्माण कर दिया कि, लगने लगा कि मैं भी रचनाकार हूँ और मेरा एक अलग अस्तित्व निर्माण अब हो चुका है। हालाँकि हकीकत यह है कि ये पूर्ण आभासी है और जमीनी तौर पर मेरा लेखन घूरे के स्तर से उठ नहीं पाया है, किन्तु भरम तो भरम है। पिछले दिनों एक कार्यक्रम में वरिष्ठ साहित्यकारों को सीट रिजर्वेशन लिस्ट में अपना नाम ढूंढते और झुंझलाते देखने पर कुछ ऐसा लगा कि, कम से कम मुझे तो अपने औकात में रहना चाहिए। वर्तमान में छत्तीसगढ़ में लोकभाषा में लिखने वाले लगभग एक हजार लोग हैं। जिसमे से एक से ज्यादा किताबों के रचयिता भी पांच सौ से कम नहीं हैं। निश्चित तौर पर ऐसे रचनाकार वरिष्ठता की श्रेणी में आते हैं। इन पांच सौ रचनाकारों के सामने मेरा अस्तित्व कुछ भी नहीं। ये पांच सौ रचनाकार ऊपरी तौर पर भले न स्वीकारें किन्तु ये स्वयं निरंतर मंच की तलाश कर रहे हैं। व्यवहारिक तौर पर महिमा मंडनीय नियत मंचीय कुर्सियों की संख्या कम है। कुर्सियों के लिए पहले से ही जद्दोजहद है। ऐसी स्थिति में बिना प्रचुर लेखन किए, सीटों पर अप

आस्था और विश्वास के कवि- पं. विद्याभूषण मिश्र

जब कुछ पढ़ने लायक हुआ तब से छत्‍तीसगढ़ के दो कवि मेरे मन में बसे हैं एक स्‍व.नारायण लाल परमार और दूसरे विद्या भूषण मिश्र। दोनों से मैं पर्वों में शुभकामना संदेश के बहाने पत्राचार करते रहा हॅूं। बाद के वर्षों में मेरी बहन जांजगीर में व्‍याही और विद्याभूषण मिश्र जी के दर्शन के अवसर भी प्राप्‍त हुए किन्‍तु व्‍यक्तिगत संपर्क दर्शन मात्र के अतिरिक्‍त कुछ ना रहा। उनकी प्रकाशित रचनाओं के संबंध में पत्रों के माध्‍यम से ही मेरा जीवंत संपर्क बना रहा, मैं इस बात से संतुष्‍ट हो लेता था कि वे मेरी दीदी से मेरे संबंध में आर्शिवचन कहा करते थे। विगत कुछ वर्षो में अंतरालों के मध्‍य जांजगीर जाना हुआ, ‘पांव-पलौटी’ भी हुई किन्‍तु, भागम-भाग में उनसे उस तरह नहीं नहीं मिल पाया, जैसा मैं चाहता था। अलगी दफा मिलेंगें यही सोंचकर कई मुलाकातों को टालता रहा, अब यह अवसर कभी नहीं आयेगा। नमन.. मेरे प्रिय गीत कवि पं.विद्या भूषण मिश्र मैं आपके लाखों प्रशंसकों में से एक - संजीव ‘शरद’ (1993 के जमाने में मैं कवि हुआ करता था तब इसी नाम से मेरी कवितायें प्रकाशित होती थी)         पं. विद्याभूषण मिश्र को याद करते