विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
-छत्तीसगढ़ शासन द्वारा 12 से 14 दिसम्बर को पुरखौती मुक्तांगन में प्रस्तावित 'रायपुर साहित्य महोत्सव' पर शेष- राज्य बन जाने के बाद छत्तीसगढ़ का क्रेज हिन्दी पट्टी में भी बढ़ा है. इस बात को साबित करने के लिए एक वाकया काफी है. हुआ यूं कि एक बार, देश के सर्वोच्च आलोचक डॉ.नामवर सिंह राजकीय मंच से कहते हैं कि मैं ही आपका माधव राव सप्रे हूं. रियाया तालियॉं बजाती है, क्रांतिकारी हाथ मलते हैं, मनसबदारों के जी में जी आता है, कुल मिला कर बात यह कि, कार्यक्रम सफल होता है. आपने कभी सोंचा कि यह परकाया प्रवेश का चमत्कार कब होता है, तब, जब एक मुहफट आलोचक राजकीय अतिथि बनकर परम तृप्त होता है. संतों! समय ऐसे कई उच्च साहित्यकारों के परकाया प्रवेश का समय आ रहा है. हॉं भाई, रायपुर साहित्य महोत्सव होने जा रहा है. इस पर राज्य में सुगबुगाहट है, खुसुरपुसूर हो रही है और साहित्य के कुछ संत छाती पीट रहे हैं. हमने भी रचनाकारों के प्रति राजकीय आस्था अनास्था के क्रम में कल ही कुम्भनदास को कोट किया था. लिख डालने के बाद याद आया कि, कुम्भनदास के समय में तुलसीदास नाम से भी एक कवि हुए थे. इधर अकबर के बुलाव