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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

यात्रा: सिहावा की गोद में

- विनोद साव

सड़क की दोनों ओर शाल के हरे भरे पेड़ थे। यह दिसंबर की आखिरी दोपहरी थी पर नये साल के उल्लास में थी। सड़क के किनारे खड़े पेड़ों को मानों प्रतीक्षा थी उन राहगीरों की जो नव वर्ष में प्रवेश उसके सामने बिछी सड़क से करें। सड़क बिल्कुल सूनी थी इसलिए साठ किलोमीटर की दूरी साठ मिनट में ही पूरी हो गई थी। जंगल की सूनी और चमकदार सड़क पर ड्रायविंग प्लेरजर का यह सुनहरा मौका था जिसे हाथ से जाने नहीं देना था ‘‘... याहू... चाहे कोई मुझे जंगली कहे...’’ कार के भीतर शम्मीकपूर थे और हमारे भीतर रायल स्टेग।

धमतरी से नगरी की यह दूरी तय हो गई थी। बस स्टेंड पर नरेन्‍द्र प्रजापति ने पहचान लिया था जिसने सिहावा-नगरी घुमा देने को आश्वस्त किया था। अभी कुछ दिनों पहले ही उसने एक पाठक के रुप में मोबाइल किया था कि ‘सर ! मैंने आपका यात्रा-वृतांत ‘केसरीवाड़ा’ पढ़ा ... कलम का जादू है सर आपके पास ... आपके साथ साथ मैं भी घूमता रहा।’’ पाठक नरेन्र् अब हमारे मार्ग दर्शक हो गए थे। सिहावा नगरी में वे आगे आगे थे और हम उनके पीछे पीछे।

‘नगरी में आप रहते कहां हैं?’
‘लाइन पारा में।’ उसने विनोदी स्वर में कहा था। वह नगरी का सच्चा माटीपुत्र है। एक तो वह उस समुदाय से है जो मिट्टी से बने उत्पाद पैदा करता है... लेकिन वह खुद पेशे से टेलर मास्टर है और बातचीत करने की उस्तादी शायदः इसी मास्टरी से उसमें आई होगी। अपने जातीय विरासत में मिले लोकरंग ने नरेन्र्द के भीतर कई रंग भर दिए हैं और उसे लहरी बाबू बना दिया है। एक लम्बा समय उसने लोक मंडली का संचालन करते बिताया है। उसे अपनी नगरी से प्यार है और किसी अच्छे गाइड की तरह वह दो दिनों तक हमारे साथ रहा। अपनी नगरी के इतिहास और पंरपरा और उसके क्रमिक उत्थान पर वह लगातार बोलता है ‘‘यह सप्त़ऋषियों का सिहावा है। हर पहाड़ी पर एक ऋषि की समाधि स्थली है। लेकिन सर! पहले दुधावा बांध चलते हैं।’ नदी पहाड़ों में मेरी ज्यादा दिलचस्पी को देखकर उसने खुद ही पहल की।

लगता है हम छत्तीसगढ़ की धरती पर नहीं पोर्ट-ब्लेयर में खड़े हैं। सामने अंतहीन जल सागर है। दोपहरी में भी हल्के कोहरे के बीच अनेक टापुनुमा शिलाखण्डों को समेटे हुए यह विराट दृश्य है। 1964 में बना यह दुधावा बांध है जिसमें 625 वर्ग किलोमीटर का जल क्षेत्र है। एक उठी हुई चट्टान पर कर्व ऋषि का आश्रम है। इस चट्टान तक हम अपनी कार चढ़ा लेते हैं। सिहावा की पहाड़ियां घुमावदार आकार में है ऊन के गोलों की मानिंद। पहाड़ी इलाका होने के बाद भी यहां के रहवासियों में कोई मानसिक पिछड़ापन नहीं है। हर आदमी चैतन्य और समझदार है नरेन्र्य प्रजापति की तरह।

बांध के कई पाइण्ट हैं जहां से अलग अलग नजारे देखे जा सकते हैं। बांध के निर्माण के समय विस्थापित हुए जन मानस को सामने बसा दिया गया था और अब यहां एक भरा पूरा गांव है जिसके साप्ताहिक बाजार भर जाने का आज दिन है। बाजार में हरी सब्जियों के बीच वह लाल सेमी दिखी जो लगभग लुप्त हो चुकी थी पर अब फिर उसकी आवक होने लगी है। डांग कांदा और लाल रंग का झुरगा पहली बार देखा। नरेन्र्ब कहते हैं कि ‘इन दोनों को उबालकर एक साथ बनाया जाता है मसालेदार... खूब अच्छा लगता है।’

दूसरे दिन अल्सुबह ही हम उस पहाड़ी की लम्बी सीढ़ियों को लांघ गए थे जहां महानदी का उद्गम स्थल माना जाता है। अचंभा होता है यह देखकर कि धान कूटने का बहाना जैसे छेद पर थोड़ा जल भरा है और इसी छेद से महानदी का उद्गम हुआ है। यह ऋंगऋषि की तपोभूमि है जिनकी तपस्या से त्रेता के महानायक राम का भी जनम हुआ माना जाता है। यहां एक पालतू मोरनी को विचरण करते देखा जिसे निकट बसे एक पंडित ने पाला है। पहाड़ी के नीचे झांकने पर सिहावा नगर की सुन्दरता खण्डाला से भी कहीं अधिक आकर्षक जान पड़ती है। नीचे आकार लेती नन्ही महानदी है जो सोलह किलोमीटर की यात्रा कर और फिर वहां से लौटकर पश्चिम से पूर्व की ओर बह चली है। नीचे उतरकर हमने नदी में स्नान कर लिया था।

सिहावा का तहसील मुख्यालय नगरी है। पुराने मूल गांव से हटकर इसका नया नगर भी विकसित हो गया है नया रायपुर की तरह। यह सुदूर अंचल में बसे होने के कारण अपनी जीवटता से एक आत्मनिर्भर नगर हो गया है। बस स्टेंड गुलजार है। टैक्सी और ऑटो भी खूब मिल जाते हैं। हर किसम के होटल-रेस्तरॉं हैं जहॉं वाजिब दाम में सब कुछ मिल जाता है। इसके चौराहों से हर दिशा में निकलती सड़कें खूब चौड़ी हैं जगदलपुर की सड़कों की तरह। यदि पास में बस्तर जैसा प्राकृतिक सौन्दर्य निहारना है तो सिहावा-नगरी को एक और आदर्श पर्यटन स्थल के रुप में सरकार विकसित कर सकती है। हमें बिदा करते हुए नरेन्र्ड़ प्रजापति अपनी भावभीनी आवाज में कहते हैं ‘‘और आइए सर... लेकिन सपनों में न आना ... हकीकत में आना’’


20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
ई मेल -vinod.sao1955@gmail.com


टिप्पणियाँ

  1. वाह, ऐसा परिवेश हो तो क्यों न कोई घुमक्कड़ी सीख जाये।

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  2. इतिहास बसे हे सच म सँगी महानदी के तीर म संस्कृति-सोन समाए हावै महानदी के नीर म ।
    एहर छत्तीसगढ के गँगा सब ल निर्मल कर देथे लइका-मन के मैल ल धोथे धो के उज्जर कर देथे ।
    आगम-निगम समाए सब्बो महानदी के क्षीर म संस्कृति सोन समाए हावै महानदी के नीर म ।

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