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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

बिस्मार्क

ओटो एडुअर्ड लिओपोल्ड बिस्मार्क (बिस्मार्क का जन्म शून हौसेन में 1 अप्रैल, 1815 तथा निधन 30 जुलाई, 1898 को हुआ था), जर्मन साम्राज्य का प्रथम चांसलर तथा तत्कालीन यूरोप का प्रभावी राजनेता था। वह ’ओटो फॉन बिस्मार्क’ के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। उसने अनेक जर्मनभाषी राज्यों का एकीकरण करके शक्तिशाली जर्मन साम्राज्य स्थापित किया। वह (1862 ई. में)द्वितीय जर्मन साम्राज्य का प्रथम चांसलर बना। वह ’रीअलपालिटिक’ की नीति के लिये प्रसिद्ध है जिसके कारण उसे ’लौह चांसलर’ के उपनाम से जाना जाता है। वह लगभग 25 वर्षों तक जर्मनी का सर्वेसर्वा रहा। बिस्मार्क एक महान राष्ट्रनिर्माता था, जिसने अपने राष्ट्र की जरूरतों को समझा और उन्हें पूरा करने की भरपूर कोशिश की। जर्मन राष्ट्र उसके प्रति हमेशा कृतज्ञ रहेगा।

बिस्मार्क का जन्म शून हौसेन में 1 अप्रैल, 1815 को हुआ। गांटिंजेन तथा बर्लिन में कानून का अध्ययन किया। बाद में कुछ समय के लिए नागरिक तथा सैनिक सेवा में नियुक्त हुआ। 1847 ई. में वह प्रशा की विधान सभा का सदस्य बना। 1848-49 की क्रांति के समय उसने राजा के ’दिव्य अधिकार’ का जोरों से समर्थन किया। सन् 1851 में वह फ्रैंकफर्ट की संघीय सभा में प्रशा का प्रतिनिधि बनाकर भेजा गया। वहाँ उसने जर्मनी में आस्ट्रिया के आधिपत्य का कड़ा विरोध किया और प्रशा को समान अधिकार देने पर बल दिया। आठ वर्ष फ्रेंकफर्ट में रहने के बाद 1859 में वह रूस में राजदूत नियुक्त हुआ। 1862 में व पेरिस में राजदूत बनाया गया और उसी वर्ष सेना के विस्तार के प्रश्न पर संसदीय संकट उपस्थित होने पर वह परराष्ट्रमंत्री तथा प्रधान मंत्री के पद पर नियुक्त किया गया। सेना के पुनर्गठन की स्वीकृति प्राप्त करने तथा बजट पास कराने में जब उसे सफलता नहीं मिली तो उसने पार्लमेंट से बिना पूछे ही कार्य करना प्रारंभ किया और जनता से वह टैक्स भी वसूल करता
रहा। यह ’संघर्ष’ अभी चल ही रहा था कि श्लेजविग होल्सटीन के प्रभुत्व का प्रश्न पुनः उठ खड़ा हुआ। जर्मन राष्ट्रीयता की भावना से लाभ उठाकर बिस्मार्क ने आस्ट्रिया के सहयोग से डेनमार्क पर हमला कर दिया और दोनों ने मिलकर इस क्षेत्र को अपने राज्य में मिला लिया (1864)।

दो वर्ष बाद बिस्मार्क ने आस्ट्रिया से भी संघर्ष छेड़ दिया। युद्ध में आस्ट्रिया की पराजय हुई और उसे जर्मनी से हट जाना पड़ा। अब बिस्मार्क के नेतृत्व में जर्मनी के सभी उत्तरस्थ राज्यों को मिलाकर उत्तरी जर्मन संघराज्य की स्थापना हुई। जर्मनी की इस शक्तिवृद्धि से फ्रांस आंतकित हो उठा। स्पेन की गद्दी के उत्तराधिकार के प्रश्न पर फ्रांस जर्मनी में तनाव की स्थिति उत्पन्न हो गई और अंत में 1870 में दोनों के बीच युद्ध ठन गया । फ्रांस की हार हुई और उसे अलससलोरेन का प्रांत तथा भारी हर्जाना देकर जर्मनी से संधि करनी पड़ी। 1871 में नए जर्मन राज्य की घोषणा कर दी गई। इस नवस्थापित राज्य को सुसंगठित और प्रबल बनाना ही अब बिस्मार्क का प्रधान लक्ष्य बन गया। इसी दृष्टि से उसने आस्ट्रिया और इटली से मिलकर एक त्रिराष्ट्र संधि की। पोप की ’अमोघ’ सत्ता का खतरा कम करने के लिए उसने कैथॉलिकों के शक्तिरोध के लिए कई कानून बनाए और समाजवादी आंदोलन के दमन का भी प्रयत्न किया। इसमें उसे अधिक सफलता नहीं मिली। साम्राज्य में तनाव और असंतोष की स्थिति उत्पन्न हो गई। अंततोगत्वा सन् 1890 में नए जर्मन सम्राट् विलियम द्वितीय से मतभेद उत्पन्न हो जाने के कारण उसने पदत्याग कर दिया। बिस्मार्क के समान ही लौह संकल्पों के कारण भरत के लौह पुरूष सरदार वल्लभ भाई पटेल को ’भारत का बिस्मार्क’ कहा जाता है।

कुबेर

16 जून 1956 को जन्‍में कुबेर जी हिन्‍दी एवं छत्‍तीसगढ़ी के सिद्धस्‍थ कलमकार हैं. उनकी प्रकाशित कृतियों में भूखमापी यंत्र (कविता संग्रह), उजाले की नीयत (कहानी संग्रह), भोलापुर के कहानी (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह), कहा नहीं (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह), छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली (छत्ती़सगढ़ी लोककथा संग्रह) आदि हैं. माइक्रो कविता और दसवाँ रस (व्यंग्य संग्रह), और कितने सबूत चाहिये (कविता संग्रह), प्रसिद्ध अंग्रजी कहानियों का छत्‍तीसगढ़ी अनुवाद आदि पुस्‍तकें प्रकाशन की प्रक्रिया में है. कुबेर जी नें अनेक पुस्‍तकों को संपदित भी किया है जिनमें साकेत साहित्य परिषद् की स्मारिका 2006, 2007, 2008, 2009, 2010 व शासकीय उच्चतर माध्य. शाला कन्हारपुरी की पत्रिका ‘नव-बिहान’ 2010, 2011 आदि हैं. इन्‍हें जिला प्रशासन राजनांदगाँव का गजानन माधव मुक्तिबोध साहित्य सम्मान 2012 मुख्मंत्री डॉ. रमन सिंह द्वारा प्राप्‍त हुआ है. कुबेर जी का पता ग्राम – भोड़िया, पो. – सिंघोला, जिला – राजनांदगाँव (छ.ग.), पिन 491441 है. वे शास. उच्च. माध्य. शाला कन्हारपुरी, राजनांदगँव (छ.ग.) में व्याख्याता के पद पर कार्यरत हैं. उनसे मोबाईल नु. – 9407685557 पर संपर्क किया जा सकता है.
कुबेर जी के आलेखों एवं क‍हानियों को आप उनके ब्‍लॉग 'कुबेर की कहानियॉं' में भी पढ़ सकते हैं. गुरतुर गोठ में कुबेर जी के आलेखों की सूची यहॉं है।

टिप्पणियाँ

  1. यदि सरदार वल्लभभाई पटेल देश के प्रथम प्रधानमँत्री बने होते तो आज देश की स्थिति कुछ और होती ।

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  2. कुबेर जी से भेट करवाने के लिये आभार
    संजीव भाई को चरण स्पर्श

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आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

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