विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
कविता की शास्त्रीय परिभाषा क्या है यह मैं नहीं जानता किन्तु मेरा यह मानना है कि भावनाओं की अभिव्यक्ति जब शब्दों में व्यक्त होती है तो निश्चित तौर पर वह कविता होती है. मानव मन में भावनाओं का विशाल समुद्र लहराता है, उसकी उत्तुंग लहरें किसी ना किसी माध्यम से बाहर अभिव्यक्त होती है. सुनीता शानू की भावनायें भी इसी प्रकार बाहर निकल कर शब्दों का रूप धरने को छटपटाती नजर आती हैं. उनकी नव प्रकाशित कविता संग्रह ‘मन पखेरू उड़ चला फिर’ इन्हीं कविताओं की सुगंधित माला है जिसमें सुनीता शानू की अविरल भावनायें कविता के रूप में व्यक्त हुई है. इस कविता संग्रह के संबंध में आलोचक व कवि आनंद कृष्ण नें अपनी भूमिका में शास्त्रीय विवेचना की है. आनंद कृष्ण के शब्दों में सुनीता शानू की कवितायें विस्तृत हुई हैं, कविता में स्पष्ट दृष्टिगोचर भाव के अतिरिक्त विशिष्ठ भाव उद्घाटित हुए हैं. आनंद कृष्ण नें सुनीता शानू की कविताओं को रिसते पीड़ा, गूंजते चीत्कारों और जीजिविषा के मधुरतम गान का संयुक्त समुच्चय कहा है. आनंद कृष्ण नें संग्रह की लगभग प्रत्येक कविता का आलोचनात्मक विश्ल