विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
जब से रविशंकर विश्वविद्यालय में छत्तीसगढ़ी में एम.ए. पाठ्यक्रम आरंभ करने की घोषणा आम हुई है बहुत सारे छत्तीसगढ़ के खास साहित्यकार इसका श्रेय स्वयं लेने की होड़ करते नजर आ रहे है. कुछ वरिष्ठ साहित्यकारों के साथ ही दुर्ग के एक युवा साहित्यकार को इस बात की खुशफहमी है कि स्वयं डॉ.दुबे नें इसका श्रेय उन्हें दे दिया है वहीं राजभाषा आयोग भी मुफ्त में इसे भुनाने का अवसर नहीं गवांना चाहता. मैं स्वयं अपने आप को इसका श्रेय देता हूं क्योंकि मैंनें भी छत्तीसगढ़ी में एम.ए. पाठ्यक्रम होना चाहिए यह बात एक बार अपने दोस्तों से की थी. जो भी हो विश्वविद्यालय नें इसे आरंभ किया यह सराहनीय पहल है. इसके लिए विश्वविद्यालय के डॉ.व्यासनारायण दुबे एवं कुलपति डॉ.शिवकुमार पाण्डेय को ही असल श्रेय जाता है.
डॉ.शिवकुमार पाण्डेय नें उस भाषा में स्नातकोत्तर की पढ़ाई को मान्यता दी जिसे भारत के संविधान नें अभी भाषा के रूप में स्वीकृत नहीं किया है. उनकी यह बात भी काबिले तारीफ है कि उन्होंनें बड़े ही सहज भाव से स्वीकारा कि यह पाठ्क्रयम रोजगारोन्नमुखी नहीं है, वे एम.ए. छत्तीसगढ़ी के विद्यार्थियों को छत्तीसगढ़ी भाषा का दूत बनाना चाहते हैं जो इस भाषा के प्रचार प्रसार में अहम किरदार निभायेंगें. छत्तीसगढ़ी के इन दूतों को मेरा सलाम.
पिछले पोस्ट में मेरी असहमति पर टिप्पणियॉं आई थी कि डॉ.पालेश्वर शर्मा जी के किस बात पर मेरी असहमति रही. मैं इस बात को ज्यादा विस्तार ना देते हुए सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि यह असहमति मेरी व्यक्तिगत सोंच से अपजी असहमति थी. मैं इस पर कुछ लिख कर विवाद उत्पन्न नहीं करना चाहता, इस सभा में रामेश्वर वैष्णव, सुशील त्रिवेदी, शकुन्तला शर्मा, जयंत साहू, संस्कृति विभाग के अशोक तिवारी, डॉ.कामता प्रसाद वर्मा आदि उपस्थित थे. मेरा मानना है कि मेरी असहमति के संबंध में सभा में उपस्थित अधिकतम लोग सहमत रहे होंगें और जो लोग वहॉं अनुपस्थित थे वे उपस्थित सज्जनों से स्वयं चर्चा कर लेवें. मोटे तौर पर आचार संहिता के संबंध में याद दिलाने के बावजूद दो सब्जी से मंहगाई बढ़ने वाली राजनैतिक बातें एवं आयोग के सदस्य मनोनीत करने के संबंध में आयोग सदस्य की अक्षमता व प्रशासनिक/राजनैतिक सिफारिशों पर टिप्पणी मुझे उस मंच से अच्छी नहीं लगी. शेष बातें कभी व्यक्तिगत संपर्क में स्पष्ट करने का प्रयास करूंगा.
तमंचा रायपुरी
विचार यह करें कि छत्तीसगढ़ी का क्या (एक उदाहरण- खुसरा चिरई के बिहाव) दुनिया के सामने रखा जा सकने लायक है और क्या (हीरालाल काव्योपाध्याय के व्याकरण की तरह) सदैव, सब के लिए स्तुत्य है. ऐसा न हो कि जिसके हाथ में माइक्रोफोन, उसकी आवाज गूंजे, फिर सन्नाटा.
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