तुरते ताही 2 : राजभाषा आयोग के मंच में डॉ.पालेश्वर शर्मा जी के उद्बोधन पर मेरी असहमति एवं प्रतिरोध सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

तुरते ताही 2 : राजभाषा आयोग के मंच में डॉ.पालेश्वर शर्मा जी के उद्बोधन पर मेरी असहमति एवं प्रतिरोध


पिछले 28 नवम्बर को छत्तीसगढ़ी राजभाषा दिवस के अवसर पर रायपुर में दो प्रमुख कार्यक्रम आयोजित हुए, एक सरकारी एवं दूसरी असरकारी. सौभाग्य से असरकारी कार्यक्रम की रिपोर्टिंग लगभग सभी संचार माध्यमों नें प्रस्तुत किया.

सरकारी कार्यक्रम छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के द्वारा संस्कृति विभाग के सभागार में आयोजित था. हम यहॉं लगभग अनामंत्रित थे किन्तु सरला शर्मा जी नें हमें इस कार्यक्रम में आने का अनुरोध किया था तो हम उनके स्नेह के कारण वहॉं पहुच गए थे. वैसे राहुल सिंह जी के रहते संस्कृति विभाग में हमारी जबरै घुसपैठ होती रही है तो हम साधिकार कार्यक्रम में सम्मिलित हो गए. कुर्सी में बैठते ही लगा कि मंचस्थ आयोग के सचिव पद्म श्री डॉ.सुरेन्द्र दुबे नें एक उड़ती नजर हम पे मारी है, निमंत्रण नहीं दिया फिर भी आ गया. छत्तीसगढ़ी भाषा के कार्यक्रमों में पद्म श्री डॉ.सुरेन्द्र दुबे की मुख मुद्रा कुछ इस तरह की होती है कि सामने जो आडियंस बैठी है वो रियाया है, और वे अभी अभी व्यक्तित्व विकास के रिफ्रेशर कोर्स से होकर आए हैं. इसलिए हम एक पल को सहम गए कि इन्होंनें देख लिया, पहचान गए कि नास्ते का डिब्बा डकारने वाला आ गया. इसी उहापोह में थे कि सचमुच में नास्ते का डिब्बा आ गया, हमने ना कही तो डिब्बा बांटने वाले नें जबरदस्ती हाथ में पकड़ा दिया. हम चाह रहे थे कि इस घटना को भी पद्म श्री देखें किन्तु बांटने वाला कुछ ऐसे खड़ा था कि डॉक्टर साहब देख नहीं पाये. बहुत देर तक डिब्बा हाथ में लिए बैठे रहे फिर ज्यादा सोंचने के बजाए सभी आमंत्रित अतिथियों की भांति रसमलाई का लुफ्त उठाने लगे.

यह कार्यक्रम चुनाव आचार संहिता की अवधि में हो रहा था इस कारण आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्य कार्यक्रम में उपस्थित नहीं थे. कार्यक्रम में जब हम पहुंचे थे तब डॉ.विनय कुमार पाठक जी का उद्बोधन चल रहा था जो राजभाषा आयोग के शब्दकोश एवं प्रयोजनामूलक छत्तीसगढ़ी के विकास में भावी योजनाओं के संबंध में था. इसके बाद कार्यक्रम का संचालन डॉ.सुधीर शर्मा नें आरंभ किया और रविशंकर विश्वविद्यालय के कुलपति शिवकुमार पाण्डेय जी नें अपना उद्बोधन दिया.

इसके बाद प्रमुख वक्ता के रूप में पालेश्वर शर्मा जी नें अपना उद्बोधन आरंभ किया. पालेश्वर शर्मा जी छत्तीसगढ़ी भाषा के वरिष्ठ विद्वान हैं, छत्तीसगढ़ की संस्कृति, साहित्य और परम्परा के वे जीते जागते महा कोश हैं. हम उनसे छत्तीसगढ़ के संबंध में सदैव नई जानकारी प्राप्त करते रहे हैं किन्तु राजभाषा आयोग के इस कार्यक्रम में पालेश्वर शर्मा जी के लम्बे एवं उबाउ उद्बोधन में मोती छांटने की सी स्थिति रही. मैं हतप्रभ था कि यह पालेश्वर शर्मा जी पर वय का असर था या तात्कालिक मन: स्थिति, कुछ समझ में नहीं आया. संचालक को उनके उद्बोधन के बीच में ही पर्ची देना पड़ा पर पालेश्वर जी अपने रव में बोलते ही रहे. मैं उनका बहुत सम्मान करता हूं किन्तु उन्होंनें जो 28 नवम्बर को छत्तीसगढ़ी राजभाषा दिवस को छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के मंच से अपना वक्तव्य दिया उसमें से अधिकतम बातें उस मंच एवं स्वयं पालेश्वर जी की गरिमा के अनुकूल नहीं थी, मेरी असहमति एवं प्रतिरोध दर्ज किया जाए.

तमंचा रायपुरी

टिप्पणियाँ

  1. पालेश्‍वर शर्मा जी ने ऐसी क्‍या बात कह दी जिससे आप असहमत हो गये। इसे भी स्‍पष्‍ट करें तो हम भी अपना विचार व्‍यक्‍त कर सकें।

    संपादक

    विचार वीथी
    सुरेश सर्वेद

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  2. आदरणीय पालेश्‍वर जी की प्रतिष्‍ठा में (कई बार) विवादित किस्‍म का लेखन और वक्‍तव्‍य (लगभग उनकी पहचान में अनिवार्य की तरह) शामिल है.

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  3. यह तो एक पारिवारिक कार्यक्रम था जी सो आप वहाँ बिन बुलाये मेहमान तो थे ही ............ और रही पालेश्वर शर्मा जी की बात ...तो मेरे विचार से उन्हें मंच पर आदर सहित बिठाया तो जाना चाहिए किन्तु माईक पर ''कभी नहीं''

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  4. @ डॉ.सुरेन्द्र दुबे की मुख मुद्रा कुछ इस तरह की होती है कि सामने जो आडियंस बैठी है वो रियाया है.
    :- बिलकुल सही कहेस, परजा ले कैइसन बेवहार करना चाही, ये डॉ साहब बने जानथे।

    @ पहचान गए कि नास्ते का डिब्बा डकारने वाला आ गया।
    :- अइसनहे ग़ियानिक मन कहिंथे, सरकारी माल ल अपन ददा के माल समझना चाहिए, खाए के पाछू डकार घलो नी लेना चाही। :)

    @ आमंत्रित अतिथियों की भांति रसमलाई का लुफ्त उठाने लगे.
    :- ई बूता सोरा आना लगिस, लुफ़्त उठाए मा कौनो कमी नी होना चाही।

    जवाब देंहटाएं

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