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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

हमारी अर्थ व्यवस्था में चीनी घुसपैठ

आज हमारा विदेशी मुद्रा भंडार 278.6 अरब डालर है, जो छह से सात माह के आयात के लिये पर्याप्त है। जबकि 1991 में यह 60 करोड डालर तक गिर गया था, ठीक है किन्तु कुछ नकरात्मक सोचों पर भी एक नजर डालनी होगी। पहला मुद्रा के मोर्चे पर तूफान आने के संकेत, दूसरा सिकुड़ता औद्योगिक उत्पादन, कम होता निवेश, तीसरा मुद्रा स्फीति की लगातार ऊंचीं दर। इन सबका असर मध्यम वर्ग पर विशेष रूप से पड़ रहा है।

इस विषम परिस्थिति में सिकुड़ते औद्योगिक उत्पादन का एक प्रमुख कारण भारतीय बाजार में चीनी वस्तुओं की बहुतायात भी है, वह माल जो सस्ते में मिलता है, यही है हमारे बाजारों के द्वारा हमारी अर्थव्यवस्था पर चीनी घुसपैठ। मुझे एक पंक्ति याद आ रही है - ’’ बात निकली है तो दूर तलक जायेगी ....................’’ जी हॉं कुछ पुरानी बातें याद आयेंगी कुछ नये संदर्भो में...।

साफ्टवेयर, हार्डवेयर और इलेक्ट्रानिक्स के क्षेत्र में चीन शुरूआती दौरे से ही भारत का प्रतिस्पर्धी रहा है। स्वस्थ प्रतिस्पर्धा प्रगति के लिये आवश्यक भी है किन्तु चिन्ता तब शुरू हुई जब चीन ने हमारे बाजारों में अपने उत्पाद खपाना शुरू किया। आपकों याद दिला दूं आजकल त्यौंहारों का समय है, बाजार जाइये वहॉ आपको राखी, गणेश, लक्ष्मी की मूर्ति, बल्बों की झालर भी चीन की मिल जायेगी, वह भी किफायती दरों पर।

मोबाईल, पेन, कैंची, खिलौने, जूते, कपड़े आदि से लेकर मिल्क प्रोडक्ट यानि दूध पावडर, चाकलेट आदि भी आसानी से मिलेगा। वह भी सिर्फ शहरी बाजारों में ही नहीं सूदूर गांवों के साप्ताहिक बाजारों में भी। रोजमर्रा के जीवन में काम आने वाली चीजें बहुतायात से मिल जाती है। जाहिर सी बात है कि अन्य उत्पादों की तुलना में ये काफी सस्ती होती है तो आम जनता इन्हे खरीदती है, वो बात दूसरी है कि चीनी उत्पाद एक बार खराब हुए तो उसे सुधारने की कोई गुंजाईश नहीं रहती, क्योंकि आवश्यक कलपुर्जे हमारे यहॉ उपलब्ध नहीं होते, परिणाम यह कि हम उसे फेंकने पर विवश हो जाते है पर सस्ते का आकर्षण फिर हमें वहीं खींच ले जाता है। यही है चीन की दूर दृष्टि Use and throw  ताकि उपभोक्ता उनकी चीजें बार बार खरीदे। मुद्रा लाभ तो चीन को ही होगा।

आज स्थिति यहॉ तक पहुंच गई है कि बाजार में 30 % से 40 % वस्तुए चीन की पाई जाती है और हमारे देश से पूंजी का पलायन बदस्तूर जारी है तो दूसरी क्षति यह है कि भारत में राजस्व की भारी कमी देखी जा रही है। भारतीय घरेलू उत्पादों, लघु उद्योग धंधों पर इसका असर दिखाई पड़ने लगा है। भिवंडी और थाणे के आसपास 60% उद्योग बंद हो चुके है। वे चीनी वस्तुये आयात करने में लग पड़े है। स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाये इसके पहले कोई ठोस कदम उठाना जरूरी हो गया है।

इतिहास साक्षी है अंग्रेज व्यापारी बनकर ही भारत आये थे। पहले उन्होने हमारे बाजार पर कब्जा किया। अपने उत्पादों की खपत के लिये हमारे बाजारों का उपयोग किया फिर ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना हुई, दुष्परिणाम आप सब भूले नहीं है, कोई भी देश किसी दूसरे देश पर आधिपत्य जमानें के पहले उसके बाजार पर कब्जा करता है, उसकी अर्थ व्यवस्था पर कुठाराघात करता है। हम पहले भी ठगे जा चुके है, अतीत की परछाई हम वर्तमान पर पड़ने नहीं देंगे, जगमगाते भविष्य को धूमिल नहीं होने देंगे।

चीन की बाजारवादी नीति आज की उपभोक्ता संस्कृति की सहायक है। इसका असर हमारी अर्थ व्यवस्था पर ही नहीं जन स्वास्थ्य पर भी पड़ने लगा है। चीन से आयातित खिलौनों एवं अन्य उपकरणों में रंग रोगन के लिये सीसे का प्रयोग घातक स्तर की सीमा पार कर गया है। खाद्य वस्तुओं में ’मेलामाइन’ नामक रसायन पाया गया है, जो कोयले में रासायनिक रूप में मौजूद होता है। प्रोटिन की मात्रा बढ़ाने के नाम पर इसका उपयोग किया जा रहा है, इसका असर उपभोक्ता के पाचन तंत्र पर और श्वसन क्रिया पर पड़ता है। सिंगापुर में स्थानीय परीक्षण करने के बाद चीन से आयातित मिल्क प्रोडक्शन पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, विश्व के कई अन्य देशों ने भी यही रास्ता अपनाया है।

आज जब भारत परमाणु परडुब्बी बनाने में विश्व के छठवें स्थान पर है। 142 लाख किलोमीटर का रोड नेटवर्क भारत में है, जो विश्व का दूसरा बडा रोड नेटवर्क है तो स्पष्ट है कि हमारे देश में ना तो तकनीकी तरक्की कम हुई है ना ही कारखानों की कमीं है। प्रतिवर्ष लाखों विद्यार्थी तकनीकी शिक्षा प्राप्त कर रोजी रोगजार में लग रहे है। उद्योग धंधों की भी कमी नहीं है, उत्पादन भी यथेष्ठ हो रहा है, यातायात की असुविधा सड़कों के जाल से दूर कर दी है फिर क्यों चीनी वस्तुओं से बाजार भर गया है? क्या करे?

सर्वप्रथम तो सरकार को कड़ा रूख अपनाना होगा कि चीनी वस्तुओं का भारत में प्रवेश बंद हो सके। दूसरे जो वस्तुयें आती है उन पर इतना राजस्व लगाया जाय कि हमारे देश के उत्पाद से उनकी कीमत कम ना हो।
चीनी वस्तुओं के बहिष्कार के लिये हमें अतीत के पन्ने पलटनें होगे, याद करना होगा जब विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के लिये राजनेताओं के आह्वान पर आम जनता ने विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी। वही जनचेतना जागृत करना है, समस्या हमारी है, तो समाधान भी हमें ही खोजना पड़ेगा।

जन सामान्य के मन से चीनी वस्तुओं के प्रति मोहभंग जरूरी है। इसके लिये स्वदेशी प्रेम और राष्ट्रीयता की भावना को बल देना होगा। बहिष्कार के लिये संसद तक जाने अथवा सड़कों पर प्रदर्शन करने के पहले हम खुद से शुरूआत करें, निर्णय ले कि हम चीनी वस्तु ना खरीदेंगे, ना उपयोग करेंगे, ना ही किसी को उपहार में देंगे, ना ही किसी से चीनी वस्तुओं का उपहार लेंगे। महत्त् उद्वेश्य के लिये स्व नियंत्रण आवश्यक है।

प्रायः युवा वर्ग सस्ते मोबाईल, फैशनेबल जूते, कपड़े आदि के प्रति ज्यादा आकर्षित होता है इसलिये स्कूलों, कालेजों में चीनी वस्तुओं के बहिष्कार सबंधी व्याख्यान आयोजित किये जावें। बाजारों, चौराहों में भी लोगों को जुटाकर समझाइश दी जावे।

बैनर, पोस्टर लगाये जावें। समाज सेवी संस्थायें आगे आये ताकि जन आन्दोलन किया जा सके। समय की धारा को बदलने का काम जन आन्दोलन से ही संभव होता आया है। जनगण की उर्जा समन्वित होगी तभी आसन्न संकट को टाला जा सकेगा।

कलाकारों, रंगकर्मियों, साहित्यकारों से अनुरोध है वे इस मुहिम में एकजुट हों। समाज को दिशानिर्देश देने की प्रकृति प्रदत्त क्षमता का प्रयोग करें।

जरा सोंचें - चीनी उत्पाद भारतीय बाजार में इसी तरह अपना आधिपत्य बढ़ाते गये तो हमारे घरेलू उत्पादों की खपत कहॉ और कैसे होगी? उद्योग धंधे बंद होने लगें तो लाखों लोग बेरोजगार हो जायेंगे। अर्थव्यवस्था चरमरा जायेगी विचारणीय यह भी है कि हमारी ही पूंजी अपने देश ले जाकर, वे हथियार बनाते है और हमारे ही सीमाप्रान्तों पर आक्रमण कर उन्हीं हथियारों से हमारे देशभक्त, जांबांज सैनिकों पर आक्रमण करते है। हमारी पूंजी का निवेश हमारे देश की विकास योजनाओं में हो, हमारे विरूद्व हथियार बनाने में नहीं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने ऐसे संदर्भो के लिये ही लिखा है -

’’ का बरसा जब कृषि सुखाने
समय बीति पुनि का पछताने ’’

लेखिका
सरला शर्मा
पद्मनाभपुर, दुर्ग (छ.ग.)

टिप्पणियाँ

  1. हम अपने उद्योगों को पतन के रास्ते पर जाते हुये निरीह भाव से देख रहे हैं, चीनी एक एक उत्पाद में शोध कर रहे हैं।

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