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अगस्त, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

भूमि अर्जन, पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन विधेयक 2012 एक स्वागतेय प्रयास

लोकसभा नें भूमि अर्जन, पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन विधेयक 2012 पास कर दिया. यह एक स्वागतेय शुरूआत है, 119 वर्ष पुराने कानून का आमूलचूल परिवर्तन आवश्यक था. केन्द्र सरकार नें ड्राफ्ट बिल को प्रस्तुत करते हुए बहुविध प्रचारित किया कि इसमें किसानों के हितों का पूर्ण संरक्षण किया गया है, किन्तु पास हुए बिल में कुछ कमी रह गई है. इस पर विस्तृत चर्चा बिल के राजपत्र में प्रकाशन के बाद ही की जा सकती है. छत्तीसगढ़ में मौजूदा कानून के तहत निचले न्यायालयों में लंबित अर्जन प्रकरणों में बतौर अधिवक्ता मेरे पास लगभग दो सौ एकड़ रकबे के प्रकरण है, यह पूरे प्रदेश में रकबे के अनुपात में सर्वाधिक है. इसलिये मुझे इस बिल में इसके निर्माण के सुगबुगाहट के समय से ही रूचि रही है. इस रूचि के अनुसार तात्कालिक रूप से नये बिल में पास की गई जो बातें उभर कर आ रही है एवं बिल के ड्राफ्ट रूप में जो बदलाव किए गए हैं उन पर कुछ चर्चा करते हैं. यह स्पष्ट है कि भूमि संविधान के समवर्ती सूची में होने के कारण राज्य सरकार का विषय है, राज्य सरकारों को भूमि के संबंध में कानून बनाने की स्वतंत्रता है किन्तु भूमि अधिग्रहण के मामलो

लायब्रेरी पर कमीश्नरी हावी : दुर्ग संभायुक्त कार्यालय हिन्दी भवन में

आज के समाचार पत्रों में दो अलग अलग खबरों पर राहुल सिंह जी नें ध्यान दिलाया. जिसमें से एक रायपुर के 110 साल पुरानी लाईब्रेरी के रख रखाव की खबर थी तो दूसरे समाचार में दुर्ग में आगामी 5 सितम्बर से आरंभ होने वाले संभागायुक्त कार्यालय हेतु दुर्ग के लाईब्रेरी को चुनने के संबंध में समाचार था. दुर्ग में जिस जगह पर संभागायुक्त कार्यालय खुलना प्रस्तावित है, उस भवन का नाम हिन्दी भवन है, इस भवन के उपरी हिस्से पर बरसों से नगर पालिक निगम की लायब्रेरी संचालित होती रही है. लायब्रेरी के संचालन के कारण ही हिन्दी भवन में 'सार्वजनिक वाचनालय' लिखा गया था. वैसे पिछले कुछ वर्षों से इस भवन से लाईब्रेरी को नव निर्मित भवन 'सेंट्रल लाईब्रेरी' में स्थानांतरित कर दिया गया था, जिसमें नगर पालिक निगम द्वारा संचालित यह लाईब्रेरी अब संचालित हो रही है. वैसे लायब्रेरी पर कमीश्नरी हावी होने का किस्सा अकेले दुर्ग का नहीं है, यह दंश बरसों पहले बिलासपुर भी झेल चुका है. बरसों से लोगों के मन में हिन्दी भवन की छवि एक सार्वजनिक वाचनालाय के रूप में ही रही है इस कारण जब संभागायुक्त कार्यालय के रूप में इस भवन का

मुकुन्द कौशल के छत्तीसगढ़ी उपन्यास 'केरवस' के विमोचन अवसर पर सरला शर्मा का आधार पाठ

उपन्यास कहानी का वृहत रूप है और जीवन की गाथा है. समाज, साहित्य, संस्कृति और समय ये चार आधार स्तंभ होते हैं उपन्यास के. छत्तीसगढ़ी उपन्यास भी इससे अछूता या अलग नहीं है. अब तक लगभग 28 उपन्यासों का प्रकाशन हो चुका है, निश्चित ही उनमें से कुछ उपन्यास छोटे, मंझोले, आकार में छोटे हैं वो बाद की बात है. अभी हम शुरू करते हैं अपनी बात हीरू की कहिनी से, हीरू की कहिनी के बाद एक लम्बा अंतराल रहा और तब 1969 में दियना के अंजोर श्री शिवशंकर शुक्ल जी का उपन्यास आया और उसके बाद एक और उपन्यास आया चंदा अमरित बरसाईस जिसके लेखक हैं, लखन लाल गुप्त. इस बीच और भी उपन्यास आते रहे परन्तु इन दोनों उपन्यासों नें छत्तीसगढ़ी उपन्यासों में मार्गदर्शन का कार्य किया और फिर उपन्यास की यात्रा चलती रही. हम देखते हैं कि इस यात्रा में से घर के लाज से लेकर समय के बलिहारी तक चार उपन्यास प्रकाशित होकर आए है, क्योंकि ये चारों उपन्यास एक स्वप्नदृष्टा देशप्रेमी समाज सुधारक केयूर भूषण के स्वप्न भंग के दस्तावेज हैं. इसके बाद उपन्यास की दुनिया में डॉ.परदेशीराम वर्मा का उपन्यास आवा आया. आवा में गुरू घासीदास और महात्मा गांधी के

पुस्तक-समीक्षा: संघर्षाग्नि का ताप केरवस

छत्‍तीसगढ़ी साहित्‍य में उपन्‍यास लेखन की परम्‍परा नयी है, उंगलियों में गिने जा सकने वाले छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यासों की संख्‍या में अब धीरे धीरे वृद्धि हो रही है। पिछले दो तीन वर्षों में कुछ अच्‍छे पठनीय उपन्‍यास आये हैँ । इसी क्रम में अभी हाल ही में प्रकाशित छत्‍तीसगढ़ी, हिन्‍दी, उर्दू और गुजराती के स्‍थापित साहित्‍यकार मुकुन्‍द कौशल द्वारा लिखित छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास ‘केरवस’ भी प्रकाशित हुआ है। ‘केरवस’ सत्‍तर के दशक के छत्‍तीसगढ़ का चित्र प्रस्‍तुत करता है। ‘केरवस’ की कथा और काल उन परिस्थितियॉं को स्‍पष्‍ट करता है जिनके सहारे वर्तमान विकसित छत्‍तीसगढ़ का स्‍वरूप सामने आता है। विकासशील समय की अदृश्‍य छटपटाहट उपन्‍यास के पात्रों के चिंतन में जीवंत होती है। उपन्‍यास को पढ़ते हुए यह स्‍पष्‍ट हो जाता है कि यह उपन्‍यास लेखक का भोगा हुआ यथार्थ है। नवजागरण के उत्‍स का दस्‍तावेजीकरण करता यह उपन्‍यास सत्‍तर के दसक में उन्‍नति की ओर अग्रसर गॉंव की प्रसव पीड़ा की कहानी कहता है। अँधियारपुर से अँजोरपुर तक की यात्रा असल में सिर्फ छत्‍तीसगढ़ की ही नहीं अपितु गॉंवों के देश भारत की विकास यात्रा है। यह

पुस्तक-समीक्षा: मन की भावनाओं की सरल और सशक्त अभिव्यक्ति "उजास भरा मन का आंगन"

दरोगा जी रोगा जी ! देश के शक्ल में हाथी बन्दूक के साथी तोंदिल दरोगा जी तुम भर दुबले न हुए गुलामी के हुकुमबरदार अंधे क़ानून के तरफदार अफसर के सिपहसालार तुम भर आदमी नही हुए तुम्हारी सुरक्षा में गुंडा खिलखिलाता है, सत्तासीनो की जायज संतान दरोगा जी, तुम भर नही बदले दरोगा जी जिनसे हम-आप सभी परिचित हैं युगों से वैसे ही है और युगों तक वैसे ही रहेंगे। यही कारण है कि किसी भी आयु का पाठक जब इन पंक्तियों को पढता है तो उसे लगता है कि यह उसके समय के लिए लिखी गयी है। दरोगा जी कितने भी अत्याधुनिक हथियार से लैस हों कवि की कलम के आगे सारे अस्त्र-शस्त्र बेकार साबित होते हैं। कवि पीढीयों से ऐसे ही समाज की आवाज बनता रहा है। अक्सर हम कवि को उसकी अकादमिक और साहित्यिक उपलब्धियों से जानने और मानने का प्रयास करते हैं पर कवि की सही पहचान उसकी रचना, उसकी कृति से होती है। आप उसकी कोई भी रचना कहीं से भी लेकर पढ़ें आप बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के सब कुछ जान जायेंगे उसके विषय में। "उजास भरा मन का आंगन" पढने के बाद मेरी इस सोच को और बल मिला। वैभव प्रकाशन (मो. ०९४२५३-५८७४८) ,

पुस्तक-समीक्षा : निराशा से भरे आधुनिक जीवन में आशा की जोत जगाती पुस्तक "अंतरवार्ता"

अपनी परछाई पर दूसरों को चलने दो प्रकाश की देन सबके लिए होती है। आज के भाग दौड़ के जीवन में रोजमर्रा की आपाधापी में अक्सर जीवन के सूत्र खोजने के लिए हम पाश्चात्य जगत के ख्यातिलब्ध विद्वानों की अमर वाणियों का सहारा खोजते हैं पर यह भूल जाते हैं कि जीवन की सफलता के सूत्र हमारे आस-पास बिखरे हैं। हमारे आस-पास ऐसी महान विभूतियों की उपस्थिति है जिनसे हम जीवन दर्शन का गूढ़ रहस्य सरल शब्दों में जानकर अपने जीवन को तनावों और उलझनों से दूर कर सकते हैं। इस आलेख के आरम्भ में आपने जो सशक्त अभिव्यक्ति का रसास्वादन किया ये किसी विदेशी विद्वान के विचार नही है। जनसेवा में दशकों से निस्वार्थ मन से जुटे डा. कृष्णमूर्ती जनस्वामी की यह अभिव्यक्ति है जो उन्होंने अपनी पुस्तक अन्तरवार्ता के माध्यम से हम सब के सामने रखी है। माँ के बाद सबसे सम्मानित वृद्ध होते हैं इसलिए नही कि वे असहाय हैं या उनकी अपेक्षा की पूर्ति तुमसे न हो पा रही हो। नही । उनमे तुम अपना ही भविष्य आंक कर देखो, जिसके निर्माण में तुम अपनी उम्र झोंक दे रहे हो। इस पुस्तक के विषय में ज्यादा कुछ अब तक नही लिखा गया है जो आश्चर्य उत्पन्न कर

भारतीय शास्‍त्रीय संगीत में छत्‍तीसगढ़ी बंदिशें

भारतीय शास्‍त्रीय संगीत के जानकारों का कहना है कि शास्‍त्रीय संगीत की बंदिशों में गाए जाने वाले अधिकतम गीत ब्रज के हैं, दूसरी भाषाओं की बंदिशें भारतीय शास्‍त्रीय रागों में बहुत कम देखी गई है। छत्‍तीसगढ़ी को भाषा के रूप में संवैधानिक दर्जा देनें के प्रयासों के बावजूद शास्‍त्रीय रागों में इस भाषा का अंशमात्र योगदान नहीं है। छत्‍तीसगढ़ी लोकगायन की परम्‍परा तो बहुत पुरानी है किन्‍तु शास्‍त्रीय गायन में छत्‍तीसगढ़ी भाषा का प्रयोग अभी तक आरंभ नहीं हो पाया है। इस प्रयोग को सर्वप्रथम देश के बड़े संगीत मंचों में भिलाई के कृष्‍णा पाटिल नें आरंभ किया है। कृष्‍णा पाटिल भिलाई स्‍पात संयंत्र के कर्मचारी हैं एवं संगीत शिक्षक हैं। कृष्‍णा नें गुरू शिष्‍य परम्‍परा में शास्‍त्रीय गायन अपने गुरू से सीखा है(गुरू का नाम हम सुन नहीं पाये, ज्ञात होने पर अपडेट करेंगें) । वर्षों की लम्‍बी साधना, निरंतर रियाज, संगीत कार्यक्रमों में देश भर में प्रस्‍तुति, विभिन्‍न ख्‍यात संगीतज्ञों के साथ संगत देनें के बावजूद बेहद सहज व्‍यक्तित्‍व के धनी कृष्‍णा नें अपनी भाषा को शास्‍त्रीय रागों में बांधा है। उनका कहना है कि व