भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष - 5 : सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष - 5 :

मेनस्ट्रीम सिनेमा में तेलुगु फिल्में कहॉं हैं?
विनोद साव.

भारतीय सिनेमा ने अपने गौरवशाली सौ वर्ष पूरे कर लिए हैं और इस अवसर पर फिल्मों की रचनात्मकता और समाज पर उनके सार्थक प्रभाव को लेकर बहस जारी है। इसी बहस को आगे बढ़ाते हुए हिन्दी के साहित्यकार और समीक्षक विनोद साव ’’आरंभ’’ के लिए लगातार लिख रहे हैं। यह विनोद जी ने तेलुगु फिल्मों पर बहस के लिए ये विचार हमारे सामने रखे हैं जिन्हें हम पाठकों के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं इस उम्मीद के साथ कि इसे पढ़ने के बाद हमारे पाठक ज्यादा से ज्यादा इस आलेख पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर तेलुगु फिल्मों तथा सभी फिल्मों की चर्चा को आगे बढ़ाएंगे!
संपादक


भारतीय सिनेमा के सौ साल पर फिल्मों की चर्चा चल रही है। इनमें हिन्दी फिल्मों के समानांतर अहिन्दी फिल्मों की चर्चा भी हो रही है। इनमें हिन्दी मराठी, बांग्ला और दक्षिण की कई फिल्मों के निर्देशक कलाकार इन सभी भाषाओं में काम करते हैं और कहीं कहीं एक साथ काम करते हुए दिखते हैं। इन फिल्मों पर होने वाली बहस में हिन्दी सहित अनेक अहिन्दी फिल्मों और उनके कलाकार शामिल हैं पर यह दुखद और आश्‍चर्य जनक है कि इनमें तेलुगु फिल्मों और उनके कलाकारों का जिक्र नहीं हो पा रहा है, जबकि यह माना जाता है कि फिल्मों की संख्या में तेलुगु फिल्में सबसे आगे हैं।

तेलुगु फिल्में संख्या, निर्माण, गुणवत्ता व फिल्मांकन की दृष्टि से हिन्दी फिल्मों के समकक्ष उतरती हैं और पौराणिक फिल्मों के निर्माण में यह हिन्दी तथा अन्य भाषायी फिल्मों से काफी आगे हैं। ऐसा लगता है कि पौराणिक फिल्मों की जिस उत्कृष्टता से तेलुगु फिल्में महिमा मंडित होती रही हैं वही मेनस्ट्रीम सिनेमा (सिनेमा की मुख्यधारा) के मूल्यांकन के दौर में उसकी कमजोरी बन गई है। भारतीय सिनेमा के सौ साल की रचनात्मकता पर जो चर्चा जारी है उनमें उनके सामाजिक सरोकारों पर मुख्य रुप से ध्यान केन्द्रित है और तेलुगु फिल्मों पर दृष्टिपात करने से उनके इस रचनात्मक सामाजिक फिल्मों का पता नहीं लग पा रहा है और उनके अभिनेताओं अभिनेत्रिओं की भूमिका में उस रचनात्मकता को खोजे जाने की फिलहाल प्रतीक्षा ही है जिनसे किसी फिल्म का एक सुधारवादी रुप सामने आता है और उसके दर्शकों पर गहन सामाजिक प्रभाव पड़ता है। यह जरुर है कि तेलुगु फिल्मों के निर्माण को पूरे सौ साल नहीं हुए हैं। यहॉ पहली मूक फिल्म ’भीष्म प्रतिज्ञा’ 1921 में बनी और पहली बोलती फिल्म ’भक्त प्रहलाद’ 1933 में बनी थी। पर भारतीय सिनेमा के सौ वर्षों को समग्र रुप में देखा जा रहा है और तेलुगु फिल्मों की उम्र केवल आठ साल ही कम है और यह अवस्था कम नहीं है।

हिन्दी तथा तमिल फिल्मों में अलग अलग काल में अलग नायक हुए और उनका अलग अलग प्रभाव पड़ता रहा है। हिन्दी फिल्मों में ऐसे नायकों (हीरो) की यह फेहरिश्‍त लम्बी है। पर तेलुगु फिल्मों में उसके लम्बे कालखण्ड में दो महानायकों एन.टी.रामाराव और नागेश्‍वर राव का कोई सानी आज तक पैदा नहीं हो सका है। ये महानायक तेलुगु फिल्मों के ऐसे वटवृक्ष रहे हैं जिनकी छाया में कोई दूसरा कलाकार पनप नहीं पाया।

एन.टी.रामाराव जिनका लोकप्रिय नाम ’एन. टी.आर.’ रहा है उन्होंने जन मानस पर इतनी पैठ जमा ली थी कि अपने बुढ़ापे काल के बावजूद भी राजनीति में उतरकर आन्ध्र प्रदेश में कांग्रेस जैसी विशाल पार्टी को ध्वस्त कर तेलुगु देशम नाम की एक क्षेत्रीय पार्टी बना ली और उसे सत्तानशीन कर दिया। इस अभिनेता ने पहले ऐसे नेता होने का श्रेय लिया जिन्होंने तेलुगु जनता को ’तेलुगु’ रुप में पहचान दी जबकि इससे पहले तेलुगु जनमानस को आम बोलचाल में समस्त दक्षिण भारतीयों की तरह ’मद्रासी’ कह दिया जाता था। राम, कृष्ण तथा महाभारत के अनेक पात्रों और कई कई पौराणिक गाथाओं के मिथक चरित्रों के अपने अभिनय से जीवन्त कर देने वाले एन.टी.आर. अपने जीते-जी स्वयं एक मिथक बन गए थे और वे आन्ध्र की जनता के बीच किसी भगवान की तरह पूजे जाने लगे थे, पर आज मेनस्ट्रीम सिनेमा में तेलुगु फिल्मों के इस भगवान की कोई चर्चा नहीं है।

एनटीआर की तुलना में उनके समकालीन दूसरे महानायक नागेश्‍वर राव ने सामाजिक फिल्मों में अधिक हिस्सेदारी की थी। उन्हें दादा साहब फाल्के का सर्वोच्च सम्मान भी प्राप्त हुआ था। यह सम्मान निर्देशक बी.नागिरेड्डी को भी प्राप्त हुआ था। एनटीआर भी यह सम्मान प्राप्त कर सकते थे। जल्दी दिवंगत हो जाने और संभवतः घोर राजनीति में सक्रिय हो जाने के कारण वे इस सम्मान को नहीं पा सके थे।

यहॉ पर मुद्दा यह है कि फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कई किस्म के गिनीज रिकार्ड बना लेने वाली ’टॉलीवुड’ की तेलुगु फिल्मों ने अपने गौरवशाली इतिहास में मात्र दो नायकों को ही पहचान दी। बाद की आधुनिक फिल्मों में चिरंजीव और नागार्जुन जैसे कुछ नायक कामयाब रहे पर वे भी कला और सार्थक फिल्मों के अभिनेता नहीं माने गए। दक्षिण की दूसरी भाषाओं की फिल्मों में आज भी शिवाजी गणेशन को तमिल फिल्मों के महान अभिनेता के रुप में उनके योगदान को सिनेमा की मुख्यधारा में शामिल किया जाता है। बाद में रजनीकांत और कमलहासन हुए जिन्होंने फिल्मों और उसकी तकनीकों में कई अनूठे प्रयोग किए। रजनीकांत ने ’रोबोट’ बनाकर फिल्मों की धारा को एक नयी दिशा दे दी। कमलहासन ने तो कई कलात्मक सार्थक फिल्मों का निर्माण किया और सिनेमा की मुख्य धारा को हमेशा प्रभावित किया है। कन्नड़ भाषा बोलने वालों में नाटकों की ओर अधिक और फिल्मों की ओर कम रुझान रहा, इसलिए वहॉ व्यावसायिक फिल्मों के एक अभिनेता राजकुमार की ही हैसियत बन पाई लेकिन कन्नड़ और हिन्दी की कला फिल्मों को गिरीश कर्नाड ने खूब उंचाई दी है।
बांग्ला भाषा के कलाकार व्यावसायिक फिल्मों में दखल नहीं दे सके, अपनी व्यावसायिक भूख को मिटाने के लिए उन्होंने हिन्दी फिल्मों को अपनाया और सफलता प्राप्त की। फिर भी बांग्ला की व्यावसायिक फिल्म में उत्तम कुमार और सुचित्रा सेन की लोकप्रियता का बुखार बंगाली दर्शकों को चढ़ा था। सामाजिक सरोकारों वाली उनकी समानांतर व कला फिल्मों ने अंतर्राष्ट्रीय उंचाई प्राप्त की और सत्यजीत राय व मृणाल सेन जैसे निर्देशकों ने बड़ी प्रतिष्ठा अर्जित की। मराठी भाषा क्षेत्र ने फिल्म निर्माण का न केवल इतिहास रचा बल्कि इस इतिहास का आरंभ किया जहॉ दादा साहब फाल्के और व्ही.शांताराम जैसे ऐतिहासिक फिल्म निर्माता हुए। इन सबकी चर्चा आज भारतीय सिनेमा के सौ साल के अवसर पर हो रही है। पर यह विडंबना है कि दुनिया का सबसे बड़ा स्टुडियो हैदराबाद में रखने, फिल्मों का सबसे बड़ा परदा टॉगने, सबसे ज्यादा सिनेमा हॉल और दर्शक होने के बावजूद भी तेलुगु फिल्मों के किसी भी निर्माता निर्देशक, अभिनेता और अभिनेत्री की चर्चा सिनेमा की मुख्यधारा में नहीं हो पा रही है, जबकि तेलुगु फिल्मों की कितनी ही नायिकाओं ने व्यावसायिक हिन्दी फिल्मों को उंचाइयॉ दीं। आखिर इन सबों का कारण क्या है? इस पर तेलुगु फिल्मों के विशेषज्ञ समीक्षक क्या कहते हैं? टॉलीवुड इन सबके लिए कितना जिम्मेदार है? आन्ध्र प्रदेश की मीडिया की क्या भूमिका रही है? क्या तेलुगु फिल्मों की सारी रचनात्मक विषेषताऍं पौराणिकता के प्रति घोर श्रद्धा के गाल में समा गईं! नायक-नायिका की उन्नत अदाओं में सराबोर हो गईं! किसी महाशक्ति के चमत्कार, मारधाड़ या स्टंट की चकाचौंध में डूब गईं। क्या तकनीक दिखाने के चक्कर में हम कथानक के प्रभाव को भूल गए। इन सबों पर आज चर्चा की जरुरत है, तेलुगु कला विशेषज्ञों को गंभीर होकर सोचने की जरुरत है। फिल्म निर्माण की सारी क्षमताओं और तकनीकी उत्कृष्ठता के प्रदर्शन के बावजूद आज मेनस्ट्रीम सिनेमा में तेलुगु फिल्में कहॉ खड़ी हैं? भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष की चर्चा से तेलुगु फिल्में क्यों नदारद हैं? आखिर क्यों?

विनोद साव.

20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
ई मेल -vinod.sao1955@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. सूचनापरक दिलचस्प और विचारणीय तेलुगु फिल्मों की चर्चा क्यों नहीं

    जवाब देंहटाएं
  2. जानकारी से भरा आलेख, यहाँ तो तेलगू सिनेमा खासा लोकप्रिय है।

    जवाब देंहटाएं
  3. समेत दिया सिनेमा जगत को अपनी लेखनी में

    जवाब देंहटाएं
  4. आप ने याद दिला डी कि सिनेमा खोखले पुरानपंथ के दूषित आयामों से नवनीत निकालने तथा तत्कालीन अधिनायक वाद और घृणित महन्त्वाद के विरोध में प्रारम्भ हुआ था जो कि आज घोर प्रदूषण फैला रहा है| तेलुगु फिल्मों ने पौराणिक पृष्ठभूमि पर नए प्रयोग किये थे |

    जवाब देंहटाएं
  5. सर्वोत्त्कृष्ट, अत्युत्तम लेख
    हिन्‍दी तकनीकी क्षेत्र की रोचक और ज्ञानवर्धक जानकारियॉ प्राप्‍त करने के लिये इसे एक बार अवश्‍य देखें,
    लेख पसंद आने पर टिप्‍प्‍णी द्वारा अपनी बहुमूल्‍य राय से अवगत करायें, अनुसरण कर सहयोग भी प्रदान करें
    कैसे हुई मुगले आजम रंगीन भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष
    MY BIG GUIDE

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत सुनकर ज्ञानवर्धक लेख | आभार

    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
    Tamasha-E-Zindagi
    Tamashaezindagi FB Page

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भट्ट ब्राह्मण कैसे

यह आलेख प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट जी नें इस ब्‍लॉग में प्रकाशित आलेख ' चारण भाटों की परम्परा और छत्तीसगढ़ के बसदेवा ' की टिप्‍पणी के रूप में लिखा है। इस आलेख में वे विभिन्‍न भ्रांतियों को सप्रमाण एवं तथ्‍यात्‍मक रूप से दूर किया है। सुधी पाठकों के लिए प्रस्‍तुत है टिप्‍पणी के रूप में प्रमोद जी का यह आलेख - लोगों ने फिल्म बाजीराव मस्तानी और जी टीवी का प्रसिद्ध धारावाहिक झांसी की रानी जरूर देखा होगा जो भट्ट ब्राह्मण राजवंश की कहानियों पर आधारित है। फिल्म में बाजीराव पेशवा गर्व से डायलाग मारता है कि मैं जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय हूं। उसी तरह झांसी की रानी में मणिकर्णिका ( रानी के बचपन का नाम) को काशी में गंगा घाट पर पंड़ितों से शास्त्रार्थ करते दिखाया गया है। देखने पर ऐसा नहीं लगता कि यह कैसा राजवंश है जो क्षत्रियों की तरह राज करता है तलवार चलता है और खुद को ब्राह्मण भी कहता है। अचानक यह बात भी मन में उठती होगी कि क्या राजा होना ही गौरव के लिए काफी नहीं था, जो यह राजवंश याचक ब्राह्मणों से सम्मान भी छीनना चाहता है। पर ऊपर की आशंकाएं निराधार हैं वास्तव में यह राजव

क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?

8 . हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास? - पंकज अवधिया प्रस्तावना यहाँ पढे इस सप्ताह का विषय क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है? बैगनी फूलो वाले कंटकारी या भटकटैया को हम सभी अपने घरो के आस-पास या बेकार जमीन मे उगते देखते है पर सफेद फूलो वाले भटकटैया को हम सबने कभी ही देखा हो। मै अपने छात्र जीवन से इस दुर्लभ वनस्पति के विषय मे तरह-तरह की बात सुनता आ रहा हूँ। बाद मे वनस्पतियो पर शोध आरम्भ करने पर मैने पहले इसके अस्तित्व की पुष्टि के लिये पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की। यह पता चला कि ऐसी वनस्पति है पर बहुत मुश्किल से मिलती है। तंत्र क्रियाओ से सम्बन्धित साहित्यो मे भी इसके विषय मे पढा। सभी जगह इसे बहुत महत्व का बताया गया है। सबसे रोचक बात यह लगी कि बहुत से लोग इसके नीचे खजाना गडे होने की बात पर यकीन करते है। आमतौर पर भटकटैया को खरपतवार का दर्जा दिया जाता है पर प्राचीन ग्रंथो मे इसके सभी भागो मे औषधीय गुणो का विस्तार से वर्णन मिलता है। आधुनिक विज्ञ

दे दे बुलउवा राधे को : छत्तीसगढ में फाग 1

दे दे बुलउवा राधे को : छत्‍तीसगढ में फाग संजीव तिवारी छत्तीसगढ में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा लोक मानस के कंठ कठ में तरंगित है । यहां के लोकगीतों में फाग का विशेष महत्व है । भोजली, गौरा व जस गीत जैसे त्यौहारों पर गाये जाने लोक गीतों का अपना अपना महत्व है । समयानुसार यहां की वार्षिक दिनचर्या की झलक इन लोकगीतों में मुखरित होती है जिससे यहां की सामाजिक जीवन को परखा व समझा जा सकता है । वाचिक परंपरा के रूप में सदियों से यहां के किसान-मजदूर फागुन में फाग गीतों को गाते आ रहे हैं जिसमें प्यार है, चुहलबाजी है, शिक्षा है और समसामयिक जीवन का प्रतिबिम्ब भी । उत्साह और उमंग का प्रतीक नगाडा फाग का मुख्य वाद्य है इसके साथ मांदर, टिमकी व मंजीरे का ताल फाग को मादक बनाता है । ऋतुराज बसंत के आते ही छत्‍तीसगढ के गली गली में नगाडे की थाप के साथ राधा कृष्ण के प्रेम प्रसंग भरे गीत जन-जन के मुह से बरबस फूटने लगते हैं । बसंत पंचमी को गांव के बईगा द्वारा होलवार में कुकरी के अंडें को पूज कर कुंआरी बंबूल की लकडी में झंडा बांधकर गडाने से शुरू फाग गीत प्रथम पूज्य गणेश के आवाहन से साथ स्फुटित होता है - गनपति को म