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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

सर्वोच्च अदालत ने सही निर्णय और भारतीयता के प्रति न्याय किया

डॉ. अतुल कुमार क्या सब कुछ बनाने वाले एक ऊपरवाले से भी ऊपर है सोनीया या राहुल या नाज फाउण्डेशन या कि वो हमारी दो पीढ़ी पहले के पूर्वजो से अक्ल मे अबके ये मंत्री इतने ही आगे बढ़ गये है कि जो बात महात्मा गांधी और डॉ.राजेन्द्र प्रसाद, चाचा नेहरू, बाबा साहब और भी लाखों अक्लमदों ने तब काफी सोची-लिखी लम्बी बहस के बाद सविंधान में बनायी वो गलत कहते है! कोई तो खुल के यह बोले, क्या तब भी उन विद्वानों में कोई अक्ल की कमी थी, जो उन्होनें वह धारा संविधान में जारी रखी जिससे असमाजिक कृत्य मानते हुऐ समलैंगिकता को एक गैरकानूनी कारनामा माना। लंदन से पढ़ कर तो ये महान विभूतियां वकालत और उससे भी बड़ी डिग्री उन दासता और अभाव के जमाने में ले आये थे। पता नहीं राहुल और सोनिया कितने पढ़े लिखे हैं और राज चलाने की कितनी बड़ी यूनीर्वसीटी के टॉप के स्कालर हैं? जो भी हो। पर गलत तो गलत है, चाहे त्रिया हठ या बाल हठ या राज हठ में ही करनों क्यों ना पडे। या तो एक मानसिक विकलांगता है समलैंगिकता अथवा फिर परिपक्व जिस्म वाले दोपाये जीव के पास अ-परिपक्व, अविकसित व अल्पविकसित दिमाग की सोच! नहीं तो कम से कम यह तो माना ही जा स

पुस्तक चर्चाः तालाबों ने उन्हें हंसना सिखाया

विनोद साव हिंदी गद्य के उन बिरले लेखकों में शामिल हैं जिनमें अपनी लेखन क्षमता को लेकर कोई बहकाव नहीं रहा और प्रयोगधर्मी लेखक के रुप में जिनकी सही पहचान बनी है। व्यंग्य से अपने लेखन की शुरुवात करते हुए हिंदी व्यंग्य के वे सुस्थापित लेखक हुए, फिर उपन्यास, यात्रा वृत्तांत और कहानियां उन्होंने लिखीं। इन सभी जगहों में अपनी विलक्षण प्रवाहमयी खड़ी बोली से हिंदी गद्य में उन्होंने ऐसा वातावरण निर्मित किया जो एक साथ जनवादी और जनप्रिय दोनों हुआ। उनकी रचनाओं में कथ्य की भरपूर उपस्थिति उनके अद्भुत शिल्प और शैली से आलोकित होकर पाठकों में सम्प्रेषण का एक नया वितान बुनती है। यहां प्रस्तुत संग्रह की कहानियां समाज के उस निम्न मध्य वर्ग की दषा और सोच को सामने लाती हैं जिनके पात्र और चरित्र अलग अलग स्थितियों में अन्यमनस्क और किंकर्त्तव्य-विमूढ़ से खड़े हैं। विशेषकर समाज में हाशिए पर खड़ी स्त्री के मनोविज्ञान की तह तक वे जाते हैं और उनके भीतर की सूक्ष्म अनुभूतियों को वे बखूबी उकेरते हैं। विपरीत परिस्थितियों में भी बरकरार उनके ममत्व की आभा व समर्पण भरे निर्दोष स्त्रीत्व के अनेक आयामों को यहां विनो

सुशासन

पूर्व प्रधानमंत्री मान. अटलबिहारी बाजपेई के जन्म दिन को सरकार द्वारा ’सुशासन दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा की गई है। तदनुरूप विचार गोष्ठियाँ और अन्य कार्यक्रम आयोजित भी किये जा रहे है। पहल स्वागतेय है। कुछ बुद्धिजीवियों का अभिमत है कि सुशासन क्रियान्वयन का विषय है। क्रियान्वयन किस तरह का, इस विषय पर तार्किक बहस और अधिक माथापच्ची करके चाहे इस स्थापना के औचित्य को सिद्ध भी किया जा सकता हो परन्तु प्रचलित अर्थों में क्रियान्वयन का निहितार्थ शासकीय योजनाओं और कार्यक्रमों को जनहित में लागू करने जैसी संकुचित अभिप्रायों से ही है। और इसीलिए इस स्थापना अथवा निष्पत्ति से मैं सहमत नहीं हूँ। इस प्रकार की स्थापनाएँ देकर सुशासन की सारी जिम्मेदारियाँ हम शासन के हिस्से और शासन के माथे नहीं थोप सकते हैं और न ही हम अपनी व्यक्तिगत नैतिक जिम्मेदारियों और मानवीय मूल्यों से बच सकते हैं क्योंकि सुशासन का प्राथमिक, नैसर्गिक और सीधा संबंध हमारी इन्हीं नागरिक जिम्मेदारियों और कर्तव्यों से है। शासन शब्द में सु उपसर्ग लग जाने से सुशासन शब्द का जन्म होता है। ’सु’ उपसर्ग का अर्थ शुभ, अच्छा, मंगलकारी आदि

समीक्षाः

बाजारवाद के इस दौर में आज हर देश अपने अपने पर्यटन को उद्योग का दर्जा दे रहा है। ऐसे कई देश जिनकी माली हालत पतली थी उनमें चेतना जागी और वे अपने नैसर्गिक संसाधनों को सुन्दर पर्यटन स्थलों का रुप देने में लग गए और आज अच्छा धन कमा रहे हैं। इनमें हमारे देश में राजस्थान एक बड़ा उदाहरण है जो अपने अभावों को पर्यटन व्यवसाय के जरिये दूर करने में सफल हो रहा है। देश के अतिरिक्त विदेश से भी सैलानी अब वहां खूब आने लगे हैं। इस मायने में छत्तीसगढ़ में पर्यटन का विस्तार अभी राष्ट्रीय क्षितिज पर नहीं हो पाया है। छत्तीसगढ़ के जन मानस घूमने-फिरने में तो बहुत आगे हैं और वे देश के किसी भी क्षेत्र के पर्यटन स्थलों में भारी संख्या में देखे जाते हैं पर उनके राज्य छत्तीसगढ़ में बाहर से लोग रहने-बसने तो खूब आते हैं पर वे सैलानी बनकर नहीं आते। छत्तीसगढ़ राज्य शासन का पर्यटन विभाग बाहर के सैलानियों को अपनी ओर खींचने का कोई उपक्रम करे इसकी अभी अपेक्षा ही है। इसे मुख्यमंत्री के इस वक्तव्य में भी देखा जा सकता है, पर्यटन पर केंद्रित ‘कला परम्परा’ के अंक का विमोचन करते हुए ग्रंथ को देखकर उसके संपादक डी.पी.देशमुख को

तुरते ताही : कविता का सौंदर्य

पिछले दिनों भिलाई की बहुचर्चित कवियत्री व समाज सेविका नीता काम्बोज ‘सिरी’ के पहले कविता संग्रह का विमोचन हुआ जिसमें शामिल होने का सौभाग्यी प्राप्त हुआ. खुशी हुई कि कवियत्री का पहला कविता संग्रह प्रकाशित हो रहा है. इसके पूर्व मैं कवियत्री नीता काम्बोकज ‘सिरी’ के गीतों को कवि सम्मेलन और गोष्ठियों में सुनते रहा हूं. जहॉं उनके कुछ गीतों में व्याक्तिगत तौर पर मुझे उथली तुकबंदी एवं कविता की अकादमिक कसौटी की कमी नजर आती थी. उनका व्यक्तित्व‍ बेहद सहल है और उनमें बच्चों सी निश्छलता है. इस संग्रह के प्रकाशन के बाद मैं आशान्वित था कि कवियत्री नें अपनी कविताओं को प्रकाशन एवं मंच के अनुरूप अलग अलग छांटा होगा एवं अपनी श्रेष्ठ कविताओं को प्रकाशित करवाया होगा जिसमें उनकी कविताई का उचित मूल्यांकन हो पायेगा, क्योंकि उनमें कविता की पूरी समझ नजर आती है. इसके अतिरिक्त दूसरा तथ्य यह भी था कि यह कविता संग्रह ‘ दृष्टिकोण ’ डॉ.सुधीर शर्मा के वैभव प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है तो निश्चित है डॉ.सुधीर शर्मा नें कविताओं की वर्तनीगत व्याकरणिक भूलों को अकादमिक स्वरूप अवश्य प्रदान किया होगा. तीसरे तथ्य के रूप में

तुरते ताही : कोदो दे के पढ़ई

रविशंकर विश्वविद्यालय के द्वारा अमहाविद्यालयीन छात्रों के लिए स्नातक एवं स्नातकोत्तर के परीक्षाओं के लिए परीक्षा फार्म इन दिनों महाविद्यालयों में आने वाले है. हम इसी का पता लगाने पिछले दिनों शासकीय विज्ञान महाविद्यालय दुर्ग गए वहॉं हमारे सहपाठी नरेश दीवान क्रीड़ा अधिकारी हैं वे मिल गए. आने का कारण पूछा तो हमने बतलाया कि एम.ए. का फार्म भरना है तो पता करने आए थे. उन्होंनें तपाक से कहा कि पिछले साल भी तो तुमने एम.ए.हिन्दी की परीक्षा दी थी ना और तुम्हारा परसेंट भी अच्छा आया था, तो अब फिर क्यों. नरेश नें प्रतिवाद किया कि इसकी कोई आवश्यकता नहीं, बेकार में लोग अपना समय गवांते हैं. उन्होंनें किसी स्कूल शिक्षक का उदाहरण देते हुए बताया कि वह आठ विषयों में एम.ए. किया है, किन्तु स्कूल शिक्षक ही है. उसने अपने घर के सामने नाम पट्टिका में आठ एम.ए.का उल्लेख बड़े शान से किया है. नरेश का कहने का मतलब था कि उस स्कूल शिक्षक ने किसी विशेष विषय में विशेषज्ञता हासिल नहीं की इसलिए नौकरी के क्षेत्र में उसका विकास नहीं हो पाया. नरेश नें आगे यह भी बताया कि उन आठो एम.ए. में स्कूल शिक्षक का प्राप्तांक प्रत

तुरते ताही : छत्तीसगढ़ी में एम.ए. का श्रेय

जब से रविशंकर विश्वविद्यालय में छत्तीसगढ़ी में एम.ए. पाठ्यक्रम आरंभ करने की घोषणा आम हुई है बहुत सारे छत्तीसगढ़ के खास साहित्यकार इसका श्रेय स्वयं लेने की होड़ करते नजर आ रहे है. कुछ वरिष्ठ साहित्यकारों के साथ ही दुर्ग के एक युवा साहित्यकार को इस बात की खुशफहमी है कि स्वयं डॉ.दुबे नें इसका श्रेय उन्हें दे दिया है वहीं राजभाषा आयोग भी मुफ्त में इसे भुनाने का अवसर नहीं गवांना चाहता. मैं स्वयं अपने आप को इसका श्रेय देता हूं क्योंकि मैंनें भी छत्तीसगढ़ी में एम.ए. पाठ्यक्रम होना चाहिए यह बात एक बार अपने दोस्तों से की थी. जो भी हो विश्वविद्यालय नें इसे आरंभ किया यह सराहनीय पहल है. इसके लिए विश्वविद्यालय के डॉ.व्यासनारायण दुबे एवं कुलपति डॉ.शिवकुमार पाण्डेय को ही असल श्रेय जाता है. डॉ.शिवकुमार पाण्डेय नें उस भाषा में स्नातकोत्तर की पढ़ाई को मान्यता दी जिसे भारत के संविधान नें अभी भाषा के रूप में स्वीकृत नहीं किया है. उनकी यह बात भी काबिले तारीफ है कि उन्होंनें बड़े ही सहज भाव से स्वीकारा कि यह पाठ्क्रयम रोजगारोन्नमुखी नहीं है, वे एम.ए. छत्तीसगढ़ी के विद्यार्थियों को छत्तीसगढ़ी भाषा का द

तुरते ताही 2 : राजभाषा आयोग के मंच में डॉ.पालेश्वर शर्मा जी के उद्बोधन पर मेरी असहमति एवं प्रतिरोध

पिछले 28 नवम्बर को छत्तीसगढ़ी राजभाषा दिवस के अवसर पर रायपुर में दो प्रमुख कार्यक्रम आयोजित हुए, एक सरकारी एवं दूसरी असरकारी. सौभाग्य से असरकारी कार्यक्रम की रिपोर्टिंग लगभग सभी संचार माध्यमों नें प्रस्तुत किया. सरकारी कार्यक्रम छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के द्वारा संस्कृति विभाग के सभागार में आयोजित था. हम यहॉं लगभग अनामंत्रित थे किन्तु सरला शर्मा जी नें हमें इस कार्यक्रम में आने का अनुरोध किया था तो हम उनके स्नेह के कारण वहॉं पहुच गए थे. वैसे राहुल सिंह जी के रहते संस्कृति विभाग में हमारी जबरै घुसपैठ होती रही है तो हम साधिकार कार्यक्रम में सम्मिलित हो गए. कुर्सी में बैठते ही लगा कि मंचस्थ आयोग के सचिव पद्म श्री डॉ.सुरेन्द्र दुबे नें एक उड़ती नजर हम पे मारी है, निमंत्रण नहीं दिया फिर भी आ गया. छत्तीसगढ़ी भाषा के कार्यक्रमों में पद्म श्री डॉ.सुरेन्द्र दुबे की मुख मुद्रा कुछ इस तरह की होती है कि सामने जो आडियंस बैठी है वो रियाया है, और वे अभी अभी व्यक्तित्व विकास के रिफ्रेशर कोर्स से होकर आए हैं. इसलिए हम एक पल को सहम गए कि इन्होंनें देख लिया, पहचान गए कि नास्ते का डिब्बा डकारने व

तुरते ताही 1 : नये छत्तीसगढ़ी वेब ठिकानों का स्वागत

इस बात को स्वीकारने में मुझे कोई गुरेज नहीं कि लोक भाषा छत्तीसगढ़ी के वेब पोर्टल गुरतुर गोठ डॉट कॉम के संपादन से मुझे बहुत कम समय में लोक साहित्य के क्षेत्र में प्रतिष्ठा मिली. यह प्रतिष्ठा मुझे मेरे लगातार संवेदनशील और लीक से हटकर छत्तीसगढ़ी लेखन के बावजूद भी नहीं प्राप्त हो पाती जो मुझे इस पोर्टल के संपादन से प्राप्त हुई. हालांकि इसके पीछे मेरी जुनूनी लगन और अपनी भाषा के प्रति प्रेम का जजबा साथ रहा. मुझे इसे निरंतर रखने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी, वेब इथिक व कानूनी पेंचों को ध्यान में रखते हुए वेब आरकाईव में पड़े एवं पीडीएफ फारमेट की रचनाओं को नया वेब रूप प्रदान करना पड़ा. सैकड़ों पेजों की रचनाओं को परिवार के तानों के बावजूद टाईप करना पड़ा. जो भी हो मेरी तपस्या का फल मुझे मेरे पोर्टल के हजारों पाठकों के रूप में मिला. मेरी नेट सक्रियता के शुरूआती समय से ही इच्छा रही कि छत्तीसगढ़ी भाषा और दूसरी लोक भाषाओं के वेब साईट भी नेट में अधिकाधिक संख्या में उपस्थित हो और लोक भाषा के साहित्य भी नेट में अपना स्थान बनायें. स्वप्न धीरे धीरे आकार लेती गई, इसी कड़ी में पिछले कुछ दिनों से लगातार उत्

छत्तीसगढ़ी ब्लॉग की दुनिया

छत्तीसगढ़ी ब्लॉगों के सफर की शुरूआत के कई दावे हो सकते हैं लेकिन साहित्यकार जय प्रकाश मानस ने जब छत्तीसगढ़ी की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘लोकाक्षर’ को आनलाईन किया तब लोगों को पहली बार अपनी मातृभाषा के साहित्य को, आनलाईन पाकर अत्यंत प्रसन्नता हुई. इसी समय में मानस ने छत्तीसगढ़ी के पहली उपन्यास और शिवशंकर शुक्ल जी की कृति दियना के अँजोर व जे.आर.सोनी की कृति चन्द्रकला व मोंगरा के फूल (छत्तीसगढ़ी कविता संग्रह) आदि को ब्लॉग प्लेटफार्म पर प्रस्तुत किया और छत्तीसगढ़ी साहित्य एक क्लिक में जन सुलभ हो गया. इसी तरह साहित्यकार परदेसी राम वर्मा का उपन्यास आवा भी ब्लॉग के माध्यम से नेट के पाठकों तक पहुंचा. इस समय तक हिन्दी ब्लॉगों में छुटपुट छत्तीसगढ़ी भाषा का प्रयोग जारी था. गूगल का सोसल नेटवर्किंग साईट ‘आरकुट’ तब अपने चरम पर था. अमरीका में शोध कर रहे धमतरी के युवा युवराज गजपाल ने इस सशक्त माध्यम में छत्तीसगढ़ी ग्रुप बनाकर छत्तीसगढ़ी रचनाओं को सहेजा. युवराज गजपाल ने सीजी नेट में भी कई लोकप्रिय छत्तीसगढ़ी गानों का संग्रह किया जो याहू के सीजी नेट समूह के द्वारा लाखों लोगों तक पहुचा और बहुत सराहा गया.

कहानीः

वह देर तक चिड़िया के घोंसले को देखता रहा, जैसे घोंसले की कलात्मक आकृति की उसको समझ हो। किसी ताम्बुल के आकार का तिनकों से बना घोंसला पेड़ पर लटक रहा था जिसके भीतर बीचोंबीच एक तना अलगाया गया था जैसे किसी बगीचे में लगा fसंगल बार हो जिसमें बच्चे झूलते लटकते रहते हैं। यहॉं इस तने पर चिड़िया के चूजे झूलते लटकते थे। उन चूजों के बीच में चिड़िया-मॉं आ जाती और दोनों चूजों के मुँह में कोई दाना डाल देती, फिर चूजे खुशी से चहचहाने लगते। इस दृश्य को देखकर तब वह भी चहचहा उठता था किसी चूजे की मानिन्द और अपने हाथ चिड़िया के चूजों की ओर उठाकर ठिठोली मारने लगता, जैसे हास-परिहास और आस की उसे समझ हो। वह खुद भी किसी चूजे की तरह हरदम ताजा और साफ सुथरा दिखा करता। वह देर तक उस घोंसले के भीतर बसे परिवार के हर सदस्य को देखता और पुलक उठता जैसे उनके बीच मातृत्व और संतान सुख की बह रही धारा को भी वह देख रहा हो। इस बीच आंगन में आ रही गिलहरी और कोयलों की फुदकन को वह देखता जैसे उनके अंतर सम्बंधों को समझने की वह कोशिश कर रहा हो। ‘यीशु’... गली में खेल रहे किसी बच्चे की आवाज कहीं गूंजी थी, तब उसने आवाज की दिशा में अपन

वाह वाह क्‍या बात है पर कवि किशोर तिवारी

भिलाई के प्रतिभावान कवि भाई किशोर तिवारी 9 नवम्‍बर को सब टीवी के 'वाह वाह क्‍या बात है' पर अपनी प्रस्‍तुति देते हुए :- किशोर तिवारी जी के दो छत्‍तीसगढ़ी गीत व एक हिन्‍दी गीत गुरतुर गोठ डॉट कॉम में यहॉं और यहॉं संग्रहित हैं. इनकी एक छत्‍तीसगढ़ी कविता का भावानुवाद आरंभ पर यहॉं है. सेल के भिलाई स्‍पात संयंत्र में कार्यरत किशोर जी का मोबाईल नम्‍बर 09575941440 है.

स्मरण:

मन्ना-डे नहीं रहे सिने संगीत में शास्त्रीय राग की एक लौ बुझी -विनोदसाव भारतीय सिने संगीत के बहुचर्चित गायकों में से एक मन्ना डे नहीं रहे। आज सबेरे 24 अक्टूबर को उनका बंगलोर में अवसान हुआ। उनका नाम प्रबोध चन्द्र डे था लेकिन वे मन्नाडे के नाम से जाने गए। मन्ना डे के अवसान के साथ ही रफी, मुकेश, किशोर की समृद्ध गायन परंपरा का अंत हुआ। बंगाल की धरती में पले बढ़े जिन तीन गायकों ने हिंदी व बांग्ला फिल्मों में बड़ी ख्याति अर्जित की उनमें तलत महमूद, हेमंत कुमार और मन्ना डे थे। तलत महमूद बांग्ला फिल्मों में तपन कुमार के नाम से गाते थे और लोकप्रिय थे। हिंदी साहित्य के कथाकार कुमार अंबुज ने मन्नाडे पर एक कहानी लिखी है जिसका षीर्शक है ’एक दिनमन्ना-डे’। मन्ना डे का स्वर और उनका गायन अपनी एक विशिष्ठ भंगिमा लिये हुआ था। उनकी आवाज में भी तलत महमूद की तरह का रेशमी अहसास था।वे शास्त्रीय गीतों के बड़े जानकार और गायक थे। कहा जा सकता है कि सुगमसंगीतों से भरे फिल्मी जगतमें ये मन्नाडे ही थे जिन्होंने अपने हजारों सुगमगीतों के बीच बड़ी संख्या में शास्‍त्रीय गीत भी गाये। उनके गाये गीतों में

यात्रा वृत्तांतः

- विनोद साव दुर्ग-भिलाई रहवासियों के लिए कार ड्राइव के लिए सियादेवी एक आदर्श दूरी है। आना जाना मिलाकर डेढ़ सौ किलोमीटर। छह सात घंटे का एक अच्छा पिकनिक प्रोग्राम। सियादेवी का रास्ता बालोद मार्ग पर झलमला से कटता है। दुर्ग से चौव्वन किलोमीटर झलमला और वहॉ से पन्द्रह किलोमीटर सियादेवी। यह बालोद से बीस और रायपुर से धमतरी होकर सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। नये जिलों के निर्माण के बाद अब यह दुर्ग जिले से निकलकर बालोद जिले के क्षेत्र में आ गया है। वैसे भी बालोद क्षेत्र अपनी कृषि भूमि, जंगल, कुछ पहाड़ियॉ, तांदुला व सूखा नदी और लगभग आधे दर्जन बॉंध व कई नहरों से समृद्ध भूमि है। यहॉ मैदानी और वन्य जीवन का सुन्दर सम्मिश्रण है। सवर्ण और आदिवासी जीवन का अच्छा समन्वय है। यहॉ समृद्ध किसान भी हैं और भरे पूरे आदिवासी भी। यह क्षेत्र अपने किसान आंदोलनों के लिए भी जाना जाता है और आदिवासी चेतना के लिए भी। बालोद स्कूल से पढ़कर निकले कई मेधावी छात्र इंजीनियरिंग एवं प्रशासन में बड़ी संख्या में अपनी पहचान बना चुके हैं। एक समय में बालोद नगर पालिका को पुराने दुर्ग जिले की ग्यारह नगर पालिकाओं में सब

सिर्फ एक गांव में गाई जाती है छत्‍तीसगढ़ी में महामाई की आरती ??

छत्तीसगढ़ के प्राय: हर गांव में देवी शक्ति के प्रतीक के रूप में महामाई के लिए एक स्‍थल निश्चित होता है. जहां प्रत्येक नवरात में ज्योति जलाई जाती है एवं जेंवारा बोया जाता है. सभी गांवों में नवरात्रि के समय संध्या आरती होती है. ज्यादातर गांवों में यह आरती हिन्दी की प्रचलित देवी आरती होती है या कहीं कहीं स्थानीय देवी के लिए बनाई गई आरती गाई जाती है. मेरी जानकारी के अनुसार एक गांव को छोड़ कर कहीं अन्‍य मैदानी छत्‍तीसगढ़ के गांव में छत्‍तीसगढ़ी भाषा में महामाई की आरती नहीं गाई जाती. जिस गांव में छत्‍तीसगढ़ी में महामाई की आरती गाई जाती है वह गांव है बेमेतरा जिला के बेरला तहसील के शिवनाथ के किनारे बसा गांव खम्‍हरिया जो खारून और शिवनाथ संगम स्‍थल सोमनाथ के पास स्थित है. इसके दस्‍तावेजी साक्ष्‍य एवं स्‍थापना के लिए यद्यपि मैं योग्‍य नहीं हूं किन्‍तु वयोवृद्ध निवासियों से चर्चा से यह सिद्ध होता है कि यह परम्‍परा बहुत पुरानी है. वाचिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी गाए जा रहे इस महामाई की आरती का जो ज्ञात प्रवाह है उसके अनुसार लगभग 500 वर्ष से यह इसी तरह से गाई जा रही है. यह आरती कब से गाई जा रही

वर्धा में आभासी मित्रों से साक्षात्कार

महात्मा गॉंधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में विगत दिनों आयोजित हिन्दी ब्लॉग संबंधी कार्यशाला से संबंधित अनुभव के पोस्ट प्रतिभागियों के ब्लॉगों में प्रकाशित हो रहे हैं। सभी की अपनी अपनी दृष्टि और अभिव्‍यक्ति का अपना अपना अलग अंदाज होता है, धुरंधर लिख्खाड़ों में डॉ.अरविन्द मिश्र एवं अनूप शुक्ल नें सेमीनार को समग्र रूप से प्रस्तुत कर दिया है अन्य पोस्टों में भी लगभग सभी पहलुओं को प्रस्तुत किया जा चुका है, उन्हीं वाकयों को बार बार लिखने का कोई औचित्य नहीं है, इस कार्यक्रम में जिन ब्‍लॉगर साथियों से हमारी मुलाकात हुई उनके संबंध में कुछ कलम घसीटी मेरे नोट बुक में पोस्‍ट करने से बचे थे जिसे प्रस्‍तुत कर रहा हूँ। सबसे पहले मैं आप लोगों को बताता चलूं कि, मेरे इस कार्यशाला में जाने के पीछे तीन उद्देश्य थे। पहला, मैं महात्मा गॉंधी अंतरर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय को देखना एवं वहॉं के साहित्‍य सृजन के लिए उर्वर वातावरण को महसूस करना चाहता था। दूसरा, इस कार्यशाला में उपस्थित होकर, आभासी मित्रों से मिलना चाहता था क्योंकि विश्वविद्यालय के पिछले ब्लॉगर सम्मेलनों में मैं चाहकर