कला की एकांत साधिका- सुश्री साधना ढांढ सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

कला की एकांत साधिका- सुश्री साधना ढांढ


यों तो मैंने लगभग आठ-नौ वर्षों पहले महाकौशल कला विथिका में सुश्री साधना ढांढ की कृतियों की प्रदर्शनी देख रखी थी, पर उस वक़्त मुझे कतई गुमां न था कि ये कृतियां अस्सी प्रतिशत् शारीरिक निःशक्तता से पीडित किसी महिला द्वारा रचीं गयी हैं। मुझे जब यह ज्ञात हुआ कि उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर रोल माॅडल अवार्ड मिला है, तो मैं अपने आपको उनसे मिलने से रोक नहीं पाया। वहां कुछ पत्रकार बंधु पूर्व से ही विराजमान थे। वे भी उनसे ही मिलने आये हुए थे। साधना जी को देखकर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि अस्सी प्रतिशत् शारीरिक निःशक्तता के बावजूद उन्होंने अपने अन्दर के कलाकार को निःशक्त नहीं होने दिया है। उनके अन्दर के कलाकार की जिजीविषा देखते ही बन रही थी। वे हमारी उपस्थिति से पूरी तरह अनभिज्ञ अपनी कृतियों को उकेरने में मग्न थीं और हम उन्हें विभिन्न तरह के क़ाग़ज़ों पर उनके शिल्प को आकार लेते हुए, खो जाने की हद तक तन्मय होकर देख रहे थे। वहां पर उपस्थित उनकी बधिरों की भाषा में समझाने वाली शिक्षिका ने उन्हें हल्के से छुआ और उनकी तन्द्रा टूटी। फिर उन्होंने हमारी ओर देखा उनकी आंखें आत्मविश्वास से लबरेज़ थीं। संभवतः मैंने पहली बार किसी निःशक्त को छलकते हुए आत्मविश्वास के साथ पाया। अवार्ड के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि उन्हें यह अवार्ड राष्ट्रपति महोदय द्वारा 3 दिसम्बर को प्रदान किया जायेगा।
साधनाजी अपने घर पर ही एक शिल्प स्कूल चलातीं हैं, जहां पर वें बच्चों और बड़ों को समान रूप से प्रशिक्षण देतीं हैं। नई पीढ़ी के कलाकारों के बारे में पूछने पर उन्होंनें बताया कि वे मेहनत से बचना चाहतें हैं और शाॅर्टकट में ही सफलता पा लेना चाहते हैं। मोबाईल फोन भी उनकी एकाग्रता में बाधक हो जाता है।
वर्तमान में रायपुर शहर की दिशा और दशा के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि रायपुर में तो चारों ओर कंक्रीट ही कंक्रीट पसरा हुआ है । लोगों में संवेदनशीलता भी कम होती जा रही है। बातों ही बातों में हमें पता चला कि लगभग 12 वर्ष की उम्र से ही उन्हें निःशक्तता का दंश झेलना पड़ रहा है। इसके अलावा इस दौरान उन्हें हुए लगभग अस्सी फ्रेक्चर्स, जो कि अच्छे-अच्छों का दिल हिलाने का माद्दा रखते हैं, से भी वे अप्रभावित रहीं। हमने जब इन हालातों में भी उनकी इस अतीव क्रियाशीलता का राज़ पूछा तो उन्होंने एक पंक्ति में उत्तर दिया व्यस्त रहो मस्त रहो। उनकी उपलब्धियों के बारे में पूछने पर उन्होंने इनकार में सिर हिला दिया इस पर मध्यस्थ शिक्षिका ने बताया कि दीदी सिर्फ काम पर यकीं रखती हैं। वे नेम एण्ड फेम से बचतीं है । बाद में मध्यस्थ शिक्षिका से ही ज्ञात हुआ कि उनकी लगभग आठ-नौ जगह प्रदर्शनियां लग चुकी हैं और लगभग सत्रह से भी अधिक संगठनों एवं संस्थाओं द्वारा उन्हे पुरस्कृत एवं सम्मानित किया जा चुका है। अंत में हमने उस निष्णात कलाकार की कलाकृतियों का भरपूर आनंद लिया और उसी खुमारी में वापस आ गये।
वाकई इसमें कोई संदेह नही है कि अपनी निःशक्तता को अभिशाप मानकर हताशा-निराशा के दलदल में फंसे हुए निःशक्तों के लिये साधनाजी आशा की किरण नहीं बल्कि आशा का पूरा सूर्य ही है, जिन पर पूरी उपन्यास लिखी जा सकती है।

आलोक कुमार सातपुते,हाउसिंग बोर्ड कालोनी सड्डू रायपुर
मो-09827406575


बुलंद हौसलों से बनीं 'रोल मॉडल

यदि जज्बा और हौसले बुलंद हों, तो किसी भी कठिनाई में अपना मुकाम हासिल किया जा सकता है। जिंदगी में अब तक 80 फ्रैक्चरों का सामना कर चुकी तथा ऑस्ट्रियोपॉरेसिस जैसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त प्रदेश की सुश्री साधना ढांड ने अपनी कला को ही अपनी बीमारी से लडऩे का जरिया बनाया। उनके जज्बे और हौसले का सम्मान करते हुए सामाजिक न्याय तथा अधिकारिता मंत्रालय ने उन्हें रोल मॉडल के अवार्ड से नवाजा है। विकलांग दिवस के अवसर पर आगामी 3 दिसंबर को राष्ट्रपति के हाथों उन्हें यह सम्मान दिया जाएगा। सुश्री साधना के इस सम्मान पर प्रदेश के मुख्यमंत्री तथा राज्यपाल ने भी हर्ष व्यक्त किया है। 12 बरस की उम्र से श्रवण शक्ति को खोने, पैरों से निशक्त, नाटे कद के साथ जिंदगी की तमाम चुनौतियों से लड़ते हुए उन्होंने पेंटिंग, शिल्पकला तथा फोटोग्राफी के क्षेत्र में सुकून तलाशा।
कल्पना की ऊंचाइयों पर अपने दुख विस्मृत करती साधना जिंदगी का उत्सव अपनी कला में तलाशती हैं। चित्रकला, शिल्पकला के साथ अप्रतिम फोटोग्राफी करने वाली साधना की कृतियां न केवल दर्शकों को अचंभित करती हैं, बल्कि विपरीत स्थितियों में भी जीवन कैसे जिया जा सकता है, इसकी प्रेरणा भी देती हैं। पेड़-पौधों के बीच भी उनका कलाकार अनुपम कृतियां तलाशता रहता है। फल, फूलों, सब्जियों से साकार किए 100 से अधिक गणेश के चित्र इसकी गवाही देते हैं। यह उनके भीतर बैठे कलाकार का ही करिश्मा है कि वे अपनी तस्वीरों में भी अद्भुत शेड एंड लाइट तथा कलर इफेक्ट का कौशल प्रदर्शित करती हैं। 1982 से अपने घर पर बच्चों को चित्रकला का प्रशिक्षण देने वाली साधना ने अब तक 20000 से ज्यादा छात्रों को प्रशिक्षित किया है। गणेश भगवान के विभिन्न स्वरूपों पर केंद्रित उनकी एकल फोटो प्रदर्शनी न केवल शहर में बल्कि देश के विभिन्न शहरों में भी दर्शकों ने भरपूर सराहना दी। जवाहर कला केंद्र, जयपुर के अलावा भुवनेश्वर, पूना, नागपुर, भोपाल, ललित कला अकादमी, नई दिल्ली जैसे स्थानों पर उन्होंने अपने प्रदर्शनों से न केवल अपना बल्कि प्रदेश का नाम भी रौशन किया है। 
स्त्री शक्ति, सृजन सम्मान, महिला शक्ति सम्मान, बेस्ट टेरेस गार्डन अवार्ड, बोंसाई- फ्लावर डेकोरेशन, लैंडस्कैप, फोटोग्राफी आदि क्षेत्रों में विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित साधना अपनी व्यस्तता और एकाग्रता के जरिए आज इस मुकाम तक पहुंची हैं। बुलंद हौसलों वाली सशक्त और नन्हें कद की साधना हालांकि विगत दो वर्षों से चलने-फिरने में असमर्थ हैं, बावजूद इसके उनकी न तो कल्पना मुरझाई है, न ही एकाग्रता विचलित हुई है। बदलते परिवेश में उनका मानना है कि लोगों के पास समय नहीं हैं, जाहिर है इससे एकाग्रता कहां मिलेगी। निश्चित रूप से वे न केवल निशक्तजनों के लिए, बल्कि सशक्तों के लिए भी साधना एक रोल मॉडल हैं।

अरूण काठोटे

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भट्ट ब्राह्मण कैसे

यह आलेख प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट जी नें इस ब्‍लॉग में प्रकाशित आलेख ' चारण भाटों की परम्परा और छत्तीसगढ़ के बसदेवा ' की टिप्‍पणी के रूप में लिखा है। इस आलेख में वे विभिन्‍न भ्रांतियों को सप्रमाण एवं तथ्‍यात्‍मक रूप से दूर किया है। सुधी पाठकों के लिए प्रस्‍तुत है टिप्‍पणी के रूप में प्रमोद जी का यह आलेख - लोगों ने फिल्म बाजीराव मस्तानी और जी टीवी का प्रसिद्ध धारावाहिक झांसी की रानी जरूर देखा होगा जो भट्ट ब्राह्मण राजवंश की कहानियों पर आधारित है। फिल्म में बाजीराव पेशवा गर्व से डायलाग मारता है कि मैं जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय हूं। उसी तरह झांसी की रानी में मणिकर्णिका ( रानी के बचपन का नाम) को काशी में गंगा घाट पर पंड़ितों से शास्त्रार्थ करते दिखाया गया है। देखने पर ऐसा नहीं लगता कि यह कैसा राजवंश है जो क्षत्रियों की तरह राज करता है तलवार चलता है और खुद को ब्राह्मण भी कहता है। अचानक यह बात भी मन में उठती होगी कि क्या राजा होना ही गौरव के लिए काफी नहीं था, जो यह राजवंश याचक ब्राह्मणों से सम्मान भी छीनना चाहता है। पर ऊपर की आशंकाएं निराधार हैं वास्तव में यह राजव

क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?

8 . हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास? - पंकज अवधिया प्रस्तावना यहाँ पढे इस सप्ताह का विषय क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है? बैगनी फूलो वाले कंटकारी या भटकटैया को हम सभी अपने घरो के आस-पास या बेकार जमीन मे उगते देखते है पर सफेद फूलो वाले भटकटैया को हम सबने कभी ही देखा हो। मै अपने छात्र जीवन से इस दुर्लभ वनस्पति के विषय मे तरह-तरह की बात सुनता आ रहा हूँ। बाद मे वनस्पतियो पर शोध आरम्भ करने पर मैने पहले इसके अस्तित्व की पुष्टि के लिये पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की। यह पता चला कि ऐसी वनस्पति है पर बहुत मुश्किल से मिलती है। तंत्र क्रियाओ से सम्बन्धित साहित्यो मे भी इसके विषय मे पढा। सभी जगह इसे बहुत महत्व का बताया गया है। सबसे रोचक बात यह लगी कि बहुत से लोग इसके नीचे खजाना गडे होने की बात पर यकीन करते है। आमतौर पर भटकटैया को खरपतवार का दर्जा दिया जाता है पर प्राचीन ग्रंथो मे इसके सभी भागो मे औषधीय गुणो का विस्तार से वर्णन मिलता है। आधुनिक विज्ञ

दे दे बुलउवा राधे को : छत्तीसगढ में फाग 1

दे दे बुलउवा राधे को : छत्‍तीसगढ में फाग संजीव तिवारी छत्तीसगढ में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा लोक मानस के कंठ कठ में तरंगित है । यहां के लोकगीतों में फाग का विशेष महत्व है । भोजली, गौरा व जस गीत जैसे त्यौहारों पर गाये जाने लोक गीतों का अपना अपना महत्व है । समयानुसार यहां की वार्षिक दिनचर्या की झलक इन लोकगीतों में मुखरित होती है जिससे यहां की सामाजिक जीवन को परखा व समझा जा सकता है । वाचिक परंपरा के रूप में सदियों से यहां के किसान-मजदूर फागुन में फाग गीतों को गाते आ रहे हैं जिसमें प्यार है, चुहलबाजी है, शिक्षा है और समसामयिक जीवन का प्रतिबिम्ब भी । उत्साह और उमंग का प्रतीक नगाडा फाग का मुख्य वाद्य है इसके साथ मांदर, टिमकी व मंजीरे का ताल फाग को मादक बनाता है । ऋतुराज बसंत के आते ही छत्‍तीसगढ के गली गली में नगाडे की थाप के साथ राधा कृष्ण के प्रेम प्रसंग भरे गीत जन-जन के मुह से बरबस फूटने लगते हैं । बसंत पंचमी को गांव के बईगा द्वारा होलवार में कुकरी के अंडें को पूज कर कुंआरी बंबूल की लकडी में झंडा बांधकर गडाने से शुरू फाग गीत प्रथम पूज्य गणेश के आवाहन से साथ स्फुटित होता है - गनपति को म