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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष: संवेदनाओं से भरे कलाकार थे कामरेड ए.के.हंगल

                   विनोद साव

हिदी फिल्मों के चरित्र अभिनेता ए.के.हंगल नहीं रहे। एक ऐसे दिन में उनका अवसान हुआ जब चंद्रमा पर सबसे पहले जाने वाले अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग भी यह दुनियॉं छोड़ गए। ए.के.हंगल ऐसे समय में कूच कर गए हैं जब हम भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष मना रहे हैं। सुपरस्टार राजेश खन्ना के साथ सबसे ज्यादा सोलह फिल्मों में अभिनय करने वाले जीवंत अभिनेता अवतार वीनित किशन हंगल राजेश खन्ना के तुरंत बाद ही हमसे बिदा हो गए, ‘शोले’ में कहे गए अपने संवाद की तरह ‘इतना सन्नाटा क्यों है भई।’ ...और अपने पीछे वे सन्नाटा छोड़ गए। साथ ही उस सन्नाटे को बढ़ा गए जो देव आनंद और राजेश खन्ना के गुजर जाने के बाद पसरा पड़ा सन्नाटा है। मेगा हिट ‘शोले’ में ए.के.हंगल की भूमिका सबसे छोटी थी, कुछ मिनटों की लेकिन सबसे यादगार असर उन्हीं के अभिनय ने छोड़ा था, अपनी खास संवाद अदायगी और भाव प्रवण चेहरे से। इस फिल्म में उन्होंने बमुश्किल तीन चार संवाद बोले थे लेकिन उनके बोले गए हर संवाद दर्शकों के दिलों को छू गए थे। कुछ तो दर्शकों को रुला भी गए हैं। जब नमाज के लिए जाते हुए उन्हें यह खबर मिलती है कि उनका नवजवान बेटा डाकुओं के हाथों मारा गया है तब वे कहते हैं कि ‘जाता हूं ... आज अल्ला से पूछूंगा कि इस गॉंव में शहीद होने के लिए मुझे दो चार औलादें और क्यों नहीं दीं!’


फिल्मों में ए.के.हंगल की उपस्थिति एक बेहद संवेदनशील उपस्थिति होती थी। एक ऐसी उपस्थिति जिसमें एक जिम्मेदार किरदार खड़े होता था। एक ऐसा चरित्र जो महज एक पारिवारिक व्यक्ति नहीं है बल्कि गहन और व्यापक सरोकारों से जुड़ा हुआ जिम्मेदार इंसान है। चाहे वह शोले का मौलवी हो, नमकहराम का यूनियन लीडर हो, बावर्ची का पारिवारिक व्यक्ति हो या फिर ‘शौकीन’ का अपनी उम्र को दरकिनार कर रहा शौकीन मिजाज इंसान हो - हर कहीं उनकी उपस्थिति दर्शकों को छू लेती थी। ऐसा लगता था कि वे अभिनय कर नहीं रहे हों केवल कैमरे के सामने अपने को प्रस्तुत कर रहे हों। इस मामले में रंगीन फिल्मों के दौर के दो अभिनेता ओम पुरी और ए.के.हंगल एक समान प्रभाव छोड़ते हैं। एक सामान्य और संजीदा आदमी की तरह अभिव्यक्ति देते हुए अपने चरित्रों को जी लेने की काबिलियत इनमें रही है।

इसका एक बड़ा कारण यह है कि हंगल थियेटर की दुनियॉं से आए थे। इसलिए उनके अभिनय में एक किसम की सहृदयता दिखा करती थी। वे अपनी भूमिकाओं को हृदय से जीते थे और इसलिए एकदम स्वाभाविक अभिनय करते थे। वे पेशावर के उसी हिस्से से आए थे जिसने बम्बई फिल्म उद्योग को महान हस्तियॉं दी थीं। हंगलजी को भी वर्ष 2006 में fहंदी फिल्मों में उनके योगदान के लिए पद्मभूषण से नवाजा गया था।


ए.के.हंगल स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, यूनियन लीडर थे, इप्टा के आजीवन सदस्य एवं अंतिम समय तक राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। वे जब पेशावर से इक्कीस बरस की उम्र में मुबई पहुॅचे तब उनकी जेब में भी उतने ही रुपये थे जितनी कि उनकी उम्र थी। वे भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य रहे और अपनी आजीविका चलाने के लिए उनके लिए दर्जी का काम किया। जिस तरह का अभाव और संघर्षमय जीवन जीया वैसा ही अभिनय किया। उनकी पृष्ठभूमि और उनके व्यक्तित्व और अभिनय क्षमता को देखते हुए उनका सबसे सही उपयोग ऋषिकेश मुखर्जी ने अपनी फिल्म ‘नमक हराम’ में किया था। इसमें वे एक ईमानदार यूनियन लीडर की भूमिका में थे जिनके साथ राजेश खन्ना की टकराहट होती है और यूनियन के चुनाव में हंगल की हार होती है। इस फिल्म में हंगल के घर में महान श्रमिक नेताओं और विचारकों के चित्र लगे थे जिनमें माक्स, लेनिन के साथ व्ही.व्ही.गिरी के चित्र भी दीवालों पर टॅगे दिखलाए गए हैं। गिरी देश के पहले राष्ट्रपति थे जो कभी मजदूर नेता थे। ऋषिकेश मुखर्जी जैसे विचारवान और कल्पनाशील निर्देशक ही इस तरह का फिल्मांकन कर पाते हैं। इस फिल्म की कहानी तब के यूनियन नेताओं और उद्योगपतियों के बीच टकराहट से उपजी मशीनबंदी पर आधारित थी। तब बंबई के कपड़ा मिलों में दत्ता सावंत के दौर में उपजे यूनियन आंदोलनों में कैसा बहकाव आया था और किन स्थितियों में कपड़े मिल बंद हो गए थे और लाखों मजदूरों के सामने पेट भरने की कैसी विकराल समस्या आ गई थी इन सबको आधार बनाकर रची गई कहानी का बड़ा प्रभावशाली फिल्मांकन हुआ है।


दर्शकों की संवेदना को झकझोर देने वाली अपनी भूमिकाओं के बाद भी ए.के.हंगल फिल्मों को ‘शो-बिजनेस’ का एक बड़ा क्षेत्र माना करते थे। अपनी आत्मकथा ‘ए.के.हंगल का जीवन और समय’ में उन्होंने कहा है कि ‘फिल्मों को लेकर मेरी कोई बहुत महत्वाकांक्षा कभी नहीं रही किन्हीं परिस्थितियों में मैं यहॉं आ गया और एक लम्बा समय यहॉं गुजारने के बाद भी मैं यहॉं किसी आउटसाइडर की तरह ही रहा।’ यह वही संकट है जो थियेटर की दुनियॉं से आए बेहद परिपक्व कलाकारों के सामने होती है। कुछ इसी तरह का संकट कलकत्ता से आए उत्पलदत्त के सामने भी था और वे अपनी जरुरतें पूरी करने के बाद बंबई फिल्मोद्योग को छोड़ फिर कलकत्ता बस गए थे और सामान्य जीवन जीने लग गए थे।


ए.के.हंगल इप्टा से जुड़े होने के कारण निरंतर सक्रिय रहे। वे प्रलेस तथा इप्टा के आयोजनों में आते जाते थे। कभी बिलासपुर आए तो कभी रायपुर पहुंचे। भिलाई इप्टा के कलाकार बताते हैं कि पिछले साल इप्टा के राष्ट्रीय अधिवेशन को मुंबई के बदले में भिलाई करवाने की पहल हंगल ने खुद की थी ‘यह कहते हुए कि मुंबई महानगरी है यहॉं सम्मेलन अधिवेशन होते रहते हैं इस बार अधिवेशन भिलाई में होना चाहिए।’ 98 वर्षीय हंगल अस्वस्थ थे भिलाई के अधिवेशन में वे नहीं आ सके तो उनका सचित्र संदेश आया जिसमें बोलते हुए उन्हें एल.सी.डी.पर दिखाया गया। अशक्त होने के बाद भी अपने कामरेडी जोश में वे बोल रहे थे कि ‘मुझसे पहले भी यह दुनियॉं थीं, और मेरे बाद भी यह दुनियॉं रहेगी और एक बेहतर दुनियॉं के लिए हमारे लिए लड़ाई जारी रहेगी।’




20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
ई मेल -vinod.sao1955@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. सुन्दर यादों संग सुन्दर लेख की बधाई

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  2. हंगल जी पर आपका लेख कितनी फिल्मों को फिर से याद दिला गया । इस संवेदनशील उत्कृष्ट अभिनेता को मेरी श्रध्दांजली ।

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