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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

75वें जन्म दिवस पर विशेष : रघुवीर अग्रवाल ‘पथिक’ की रचना यात्रा

                                                                                             - विनोद साव
विनोद साव एवं रघुवीर अग्रवाल 'पथिक' जी
दुर्ग में कुछ स्वस्थ और दीर्घजीवी साहित्यकार है इनमें रघुवीर अग्रवाल ‘पथिक’ जैसे उर्जावान लोग हैं जो आज 75 बरस की आयु में भी सक्रिय हैं।
बीसवी शताब्दी के सातवें दशक में दुर्ग में पतिराम साव पचरी पारा स्थित अपने निवास से ‘साहू सन्देश’ नाम से एक सामाजिक पत्रिका निकालते थे। यह पत्रिका सन् 1960 से 1968 तक नियमित रुप से हर माह निकला करती थी। लगभग पचास पृष्ठों की यह पत्रिका मात्र एक जातिगत बुलेटिन नहीं थी। सावजी ने इसे एक व्यापक साहित्यिक और वैचारिक पत्रिका के रुप में आगे बढ़ाया था। इस पत्रिका में न केवल साहू समाज के स्वजन छपा करते थे बल्कि तब के सर्व समाज के साहित्य प्रेमीजन इस पत्रिका में प्रकाशित हुआ करते थे। कोदूराम दलित, दानेश्वर शर्मा और रघुवीर अग्रवाल ‘पथिक’ की यह त्रयी तब इसी पत्रिका से मुखरित हुआ करती थी।
'पथिक' जी के अमरित महोतव पर आयोजित कार्यक्रम
दलित, दानेश्वर और पथिक की तिकड़ी ने हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में समान अधिकार से कविताएं कीं। हिन्दी को इन्होंने राष्ट्रवादी भाव से लिया तो इनका क्षेत्रीय प्रेम छत्तीसगढ़ी में मुखरित हुआ। हिन्दी में देशप्रेम के गीत लिखे गए तो छत्तीसगढी में हास्य और श्रृंगार की रचनाएं लिखी गईं। इन तीनों ही कवियों ने देशप्रेम के गीत और हास्य-व्यंग्य की कविताएं खूब लिखीं और इन तीनों ने ही अपनी रचनाओं को कवि सम्मेलन के मंचों पर भी खूब प्रस्तुत किया। पिताजी अर्जुनसिंह साव अपने समय के यशस्वी प्राचार्य और शिक्षा अधिकारी रहे। वे लेखक नहीं थे पर बडे विचारवान और सुरुचि सम्पन्न इन्सान थे। वे एक श्रेष्ठ शिक्षाविद, संस्कृति कर्मी और कुशल कार्यक्रम संयोजक थे। उन्होंने भी अपने कार्यकाल में पाटन स्कूल के ‘सोशल गेदरिंग’ में इन तीनों कवियों को एक बार एक साथ प्रस्तुत किया था। तब इनके साथ भिलाई के प्राचार्य कवि शिवकुमार द्विवेदी भी गए थे।
पथिक जी बतलाते हैं कि उन्होंने पीजीबीटी कॉलेज रायपुर से उस समय बी.एड.किया जब हमारे पिताजी वहां से एम.एड. कर रहे थे। तब एक सीनियर ट्रेनी पिताजी के रुदबे का लाभ वे एक जूनियर ट्रेनी के रुप में वहां ले रहे थे। एक बार तो वे दोनों नागपुर के कांग्रेस अधिवेशन में नेहरु जी के साथ आए दिलीप कुमार को देखने के लिए भाग निकले थे।
कोदूराम दलित का एक छत्तीसगढ़ी गीत है ‘जय जय गनेश महराजा, मुसुवा में चढ़के आजा’ इसे छात्रगण गणेशोत्सव में गाया करते थे। कुछ इस शैली की छत्तीसगढ़ी कविता पथिकजी की तुलसीदास पर है -
‘जय जय तुलसी महराज, अरज ला करहू पूरा पूरा,
मैं तोर देश भारत के छत्तीसगढ़ के बैहा टूरा’।
‘मैं ढलंग ढलंग के पॉंव परथौं, सुनहू मोर गोंसाई’
‘मैं लिखथौं कविता सांय सांय अउ सुग्घर बढ़िया बढ़िया,
तैं भरे समुद्दर हिन्दी के अउ मैं तो भर देंव तरिया।’
पथिकजी के इन गीतों को स्कूल के बच्चे तुलसी जयन्ती में गाया करते थे। एक बार छोटे भाई संतोष साव ने भी इसे गाया था।
रवि श्रीवास्तव, विनोद साव, दानेश्वर शर्मा एवं मुकुन्द कौशल
पथिकजी का संग्रह ‘जलें रक्त से दीप’ संभवतः 1970 के आसपास प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तक का शानदार ‘गेटअप’ था। तब मैं उच्चतर माध्यमिक शाला, पाटन में दसवीं कक्षा का छात्र था। उन्होंने यह गीत संग्रह को हमारे पिताजी को भेंट किया था। तब देश की आजादी को मात्र बीस-बाइस बरस हुए थे और लोगों के भीतर देशभक्ति का जज़्बा भरा हुआ था। उस समय के ज्यादातर कवि राष्ट्रवादी हुआ करते थे और कई लेखक क्रांतिकारी रचनाएं लिख रहे थे। इन सबके आदर्श और प्रेरणाश्रोत थे - राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर, माखनलाल चतुर्वेदी और सोहनलाल द्विवेदी। उस समय देशप्रेम का भाव जगाकर हृदय को द्रवित करने वाली और रुला देने वाली फिल्में भी खूब बना करती थीं। नेहरु, शास्त्री और इन्दिरा जैसे तेजस्वी व्यक्तित्व देश का नेतृत्व सम्हाले हुए थे। तब के युवा कवि रघुवीर अग्रवाल पथिक थे, और इन सारी स्थितियों ओर उस समय के नेतृत्वकर्ताओं का बड़ा प्रभाव पथिक जी और उनकी पीढ़ी पर पड़ रहा था। यदि ‘जलें रक्त से दीप’ के गीतों को देखा जाए तो उनमें ये सारे प्रभाव साफ दीख रहे थे। ‘जलें रक्त से दीप’ की रचनाएं बड़ी गेय रचनाएं थीं। उसके पहले ही गीत ‘बदलती जा रही दुनियां सम्हलकर पग बढ़ाना है’ को तो मधुर राग में गाया जा सकता था। यह फिल्म ‘हकीकत’ के गीत ‘वतन पर जो फिदा होगा अमर वो नौजवॉं होगा’ की पैरौडी जैसी थी। इस संग्रह का शीर्षक गीत था ‘जलें रक्त से दीप - जल उठी बलिदानों की आरती, उठो जवानों आज देश की धरती तुम्हें पुकारती।’
विनोद साव, रघुवीर अग्रवाल 'पथिक' जी एवं दीनदयाल साहू
पथिकजी, जैसा कि ज्ञात है कि हिंदी और छत्तीसगढ़ी में समान अधिकार से लिखते हैं। वे आज भी सक्रिय हैं और अपनी पीढ़ी के उन कवियों की तरह नहीं हैं जो किसी कालखण्ड में कैद हो गए हों और आज चूक गए हों। वे आज भी रचना रत हैं इसलिए आज का परिवेश, आज की स्थितियॉं भी उनकी कविताओं में दिख रही हैं। अपना छत्तीसगढ़ राज पा लेने के बाद की स्थितियॉं उनकी इन पंक्तियों में हैः
हमर देस, अउ हमर गॉंव मा, होगे अइसन लाचारी
हमरे भूँइयां, हमरे भाखा, अउ दूसर के हकदारी
लोक चेतना से संपृक्त कवि यथार्थ की विषमाताओं को देखकर किस तरह उद्विग्न हो उठता है। आज की स्थितियॉं कैसे उन्हें झकझोरती हैं, ये पंक्तियॉं उनका प्रमाण है। प्रो.त्रिभुवन पाण्डेय कहते हैं कि ‘छत्तीसगढ़ी के विकास के साथ राष्ट्रभाषा के रुप में हिंदी को प्रतिष्ठित करने की आकांक्षा उन सभी लोगों में है जो भाषा के विकास को लोक अभिव्यक्ति और लोक गरिमा के रुप में देखते हैं। इस संदर्भ में पथिक जी की यह काव्य अभिव्यक्ति महत्वपूर्ण हैः
अंगरेजी तो सीखौ वोला राजमुकुट पहिरावौ झन
हमर राष्ट्रभाषा हिंदी ये, येला कभू भुलाऔ झन
अपन देस के भासा मन के महिमा ला पहिचानो तो
कभू बिदेसी खपरा मा घर के छानी ला छावौ झन
रघुवीर अग्रवाल ‘पथिक’ के कितने ही गीतों को कई कार्यक्रमों में लोग गाया गुनगुनाया करते थे। ऐसे पथिकजी को हम लोगों ने उनकी सृजन साधना के लिए ‘समाजरत्न’ पतिराम साव सम्मान से एक बार अलंकृत किया था मुख्य अतिथि रमेश नैय्यर के कर कमलों से।
विनोद साव
मुक्तनगर, दुर्ग 491001

20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
ई मेल -vinod.sao1955@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. पथिकजी को जन्मदिन की ढेरों शुभकामनायें..

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  2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  3. मोर मन के शंका ल घलो दूर करे चाहत हौं के भाई संजीव हमला निर्जीव काबर बना डरे हे ? काय अतेक नराजगी होगे तउन ?

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  4. भाई संजीव (महराज) पैलगी सहित आपके द्वारा दिए हुए साहित्यकार के परिचय माँ आदरणीय रघुबीर अग्रवाल जी "पथिक" के सन्दर्भ माँ ये जाने के इच्छा होईस के मोर बचपन माँ सुने "कुर्सी माता" के आरती उंखरे द्वारा त नई लिखे गे हे ? "ॐ जय कुर्सी माता. नेता सब तोर पाँव पखारे भटके मतदाता. ॐ......" बने लागिस जम्मो साहित्यकार के बारे माँ पढ़के ...बहुत बहुत बधाई !

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  5. इस जानकारी को संकलित कर हम तक पहुचाने के लिए ह्रदय से धन्यवाद आपका

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