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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

उपजाऊ माटी में उद्योग और इमारत


अन्न उत्पादन के क्षेत्र में भारत शुरू से ही अग्रणी रहा है देश के लगभग सभी प्रांत फसल विशेष का उत्पादन करने में अपनी-अपनी पहचान बनायी हुई हैं। छत्तीसगढ़ में धान, गेहूं, चना सहित दलहनी फसलों के उत्पादन तथा पंजाब में गेहूं, मक्का, ज्वार, सरसो के अलावा तिलहन भी अधिक मात्रा में लिया जाता है। हरियाणा में धान, गेहूं, सब्जीयाँ इसी तरह पूवोंत्तर राज्यों में भी फल, अनाज के अलावा कपास और गन्ने की खेती भी बहुतायात में किया जाता है। यहां की उत्पादन तकनिक और प्रणाली किसानों द्वारा स्वंम का ईजात किया हुआ था तब भी और अब जबकि नई तकनिक और उन्नत पद्धति द्वारा उत्पादन लिया जा रहा है, फसलों के पैदावार में कोई क्रातिकारी बदलाव नहीं आया। कारण किसानों द्वारा कम फसल लगाना या सिंचाई, खाद की समस्या नहीं बल्कि खेती का रकबा कम होना है। फसल उत्पादन के लिए सिर्फ जमीन की नहीं उपजाऊ माटी की जरूरत होती है।

सरकार और कुछ निजी उपक्रमों द्वारा अब उपजाऊ भूमि को भी अधिग्रहित किया जा रहा है, एक तरफ सरकार अपनी बरसों पुरानी भूमि अधिग्रहण कानून का हवाला देकर किसानों का जमीन हथिया रहा है वही दूसरी तरफ औद्योगिक इकाईयां रूपियों के दम पर कृषि भूमि में फैक्ट्रीयां बो रही है। भूमि अधिग्रहण कानून,1894 के अनुसार 'सार्वजनिक उद्देश्य के तहत किसी भी जमीन को बगैर बाजार मूल्य के मुआवजा चुकाए सरकार को अधिग्रहण करने का अधिकार है। सरकार यदि सार्वजनिक उद्देश्य के लिए भूमि अधिग्रहण करता है तो उनके उचित मुआवजा निर्धारण पर दिमाक खपाने के बजाय अधिग्रहित की जाने वाली उस भूमि की उपयोगिता के बारे में भी गहराई से विचार करना चाहिए। क्या किसान सिर्फ अपने लिए अनाजों का उत्पादन कर रहा ? किसानों की सच्चाई बयाँ किया जाए तो अनाज बोने वाले किसान ही किसी दिन आधा पेट तो किसी दिन भूखे ही गुजारा करते हंै। फिर भी चीन, इंगलैड, जापान और अमेरीका जैसे विकसित देशों के अलावा खाड़ी देशों में अनाज निर्यात होना एक सौभाग्य की बात है, पर अपने ही देश के में गरीबी और भूखमरी हमारा दुर्भाग्य है। अब अगर भूमि अधिग्रहण कानून के नजरिये से देखा जाए तो क्या खेती करना भी सार्वजनिक उद्देश्य नहीं है, क्या किसान जन हीत के लिए कार्य नही करते? इस सवाल पर गंभीर विशलेषण होना चाहिए। संकुचित सोच के दायरे से बाहर निकलकर भूमि की मुख्य उपयोगिता पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए। मिट्टी में पसीना सिंच कर बालू में भी अंकूर लाने का दम रखने वाले किसानों के जमीन पर आखिर कब तक कांक्रीट के जंगल उगते रहेंगे।

पिलपिले कानून के कारण ही देश के किसानों को हल और बैल छोड़कर इन्कलाबी होना पड़ा। जमीन बचाने के लिए शासन और औद्योगिक समूहो से दो चार होना पड़ा। सिंगुर का हिंसक आंदोलन जिसमें टाटा को अपना बोरिया बिस्तर समेटना पड़ा। नंदीग्राम में सलेम समूह द्वारा केमिकल परियोजना लगाए जाने के विरोध में किसानों द्वारा आंदोलन, हरियाणा के फतेहाबाद गोरखपुर कुम्हारिया गांव के किसानों ने हजार एकड़ से अधिक जगह में बन रहे परमाणु ऊर्जा संयंत्र का विरोध किया, दादरी में रिलायंस के पावर प्लांट के खिलाफ किसानों का आंदोलन। इसी तरह देश में कई जगह किसानों ने अपनी अधिग्रहीत की गई जमीन के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। भूमि के अधिग्रहण के खिलाफ देश के बड़े भूभाग पर किसानों के बीच असंतोष बढ़ता जा रहा है।
भूमि अधिग्रहण को लेकर प्रदेश में भी अनेक आंदोलन हुए हंै, किसान खेती का काम छोड़ खेत बचाव आंदोलन में कूदने को मजबूर हो रहे हैं। आज भी उनके खेती योग्य उपजाऊ भूमि में बहुमंजिला इमारत और उद्योग उपज रहे हैं। जहां धान, गेंहू, मक्के और सरसो लहलहाते थे वहां अब कालोनी और बड़े-बड़े कारखाने बनने लगे हैं। सरकार की भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया को एक बार मान भी ले की सरकार को जन हीत में उस भूमि की जरूरत पड़ी पर निजी औद्योगिक इकाई कृषि भूमि पर ही क्यो अपनी नजरे गड़ाये हुये हैं। उद्योग और रिहायसी कालोनाइजर भी लहलहाते खेत पर ही अपना आशियाना बना रहे हंै। जबकि देश में कृषि भूमि से जादा बंजर भूभाटक है जहां फसल नहीं उगाई जा सकती ऐसे जगहों का चयन उद्योग लगाने के किया जाना चाहिए। कृषि भूमि पर उद्योग लगाना एक सोची समझी साजिस भी हो सकती है, कि कृषि भूमि खत्म होने के बाद खेतों में काम करने वाले मजदूर बेकार हो जायेगे और पेट की आग बुझाने के लिए उनके ही उद्योग और कारखानों में मजूदरी करेंगे। शायद कृषि भूमि पर उद्योग न लगाते तो उन्हे मजदूर नहीं मिलते। इस तरह उद्योगों को जमीन भी मिला और मजदूर भी। 
कृषि योग्य भूमि का गैर कृषि कार्यों में उपयोग करने के दुष्परिणाम खाद्य संकट और भी गहरा सकता है। जिस तरह से खेती के रकबे में कमी आयी उससे यही अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक दिन भारत को भी अनाज बाहर के देशों से आयात करने की स्थिति निर्मित हो सकती है। सरकार भले ही अपने उत्पादन दरों के आंकड़ों में लगातार वृद्धि दर्ज कर रही है, यह सोचने का विषय है कि खेती कम होने के बावजूद उत्पादन में रिकार्ड वृद्धि कैसे हो सकती है। चलो मान भी लें कि आपके उन्नत तकनिक में दम है कि आप उस कमी की भरपाई कर सकते है पर क्या उस कृषि भूमि की भरपाई हो सकती है। 
जी तोड़ मेहनत के कर किसान जमीन को खेत बनाता है खेत की मिट्टी को उपजाऊ बनाता और उसी के भरोसे पीढ़ी दर पीढ़ी खेती करके अपना परिवार चलाता है। यहां लगभग 85 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो इसी तरह खेती से ही अपना जीवन यापन करते हैं, कृषि ही उनका आर्थिक रीढ़ है। और यही हमारे देश की अर्थव्यस्था का आधार स्तंभ है। अब यह स्तंभ डोलने लगा है, प्रतिशत का आंकड़ा भी घटकर 65 हो चुका है। बाहर देशों के पूंजी निवेशक यहां आकर जमीन में पूंजी लगाकर हमारी अर्थव्यस्था की जड़े उखाडऩे लगे हैं। जमीनों में पंूजी निवेश करने वाले निवेशक भूमि तो बड़े चाव से खरीद लेते हंै पर ये उनमें खेती करने बजाय कृषि भूमि को आवसीय में परिवर्तित करा के लहलहाती अन्नदात्री के आंचल में कंाक्रीटों के दीवार उगा देते हैं। 
देश के अनेक राज्यों में कुछ ही सालों के अंतराल में भूमि हल्ला बोल के अनेक प्रक्ररण सामने आये हैं जिनमें उत्तर प्रदेश के आगरा, अलीगढ़, चंदौली, गौतमबुद्ध नगर में 1,76,336 एकड़ जमीन। छत्तीसगढ़ के बस्तर, रायपुर, दुर्ग, बिलासपुर, जांजगीर-चांपा में 42,763 एकड़। महाराष्ट्र के नागपुर, रायगढ़, रत्नागिरी, पुणे में 45,600 एकड़। उड़ीसा के जगतसिंहपुर, जाजपुर, कालाहांडी, गंजाम में 41,800 एकड़। गुजरात के भावनगर, कच्छ में 6,529 एकड़। हिमाचल प्रदेश के कुल्लू, किन्नौर, श्रीमौर, चंबा में 2,817। बिहार के औरंगाबाद, मुजफ्फरपुर में 1,744। आंध्र प्रदेश के ईस्ट गोदावरी, महबूबनगर, श्रीकाकुलम, नेल्लोर, विशाखापत्तनम में 21,739 एकड़। हरियाणा के फतेहाबाद में 1,500। पंजाब के मोहाली में 770। तमिलनाडु के मदुरई, तिरुवल्लुर, तूतीकोरिन में 5,000। चंडीगढ़ में 167। मेघालय में 111एकड़। केरल के कोच्चि में 100। कर्नाटक में 1800 एकड़। देश भर में लगभग इतने आंकड़ों में कृषि भूमि को गैर कृषि कार्यों में बदल दिया गया।
भविष्य में कहीं अब राष्ट्रिय धरोहर के रूप में संग्रहित करने की बारी उपजाऊ माटी की तो नहीं? क्योकि जिनकी भी संख्या घटि है शासन ने उसे बचाने के लिए राष्ट्रिय धरोहर घोषित कर विशेष संरक्षण दिया है। अब तक तो जिनका प्राकृतिक क्षरण हुआ या स्वमेव विलुप्ति के कगार में हो उसे ही बचाने हेतु धरोहर के रूप में सहेजा गया है। यदि उपजाऊ माटी की बारी आती है तो यह पहला प्रक्ररण होगा जिसका पहले दोहन किया गया फिर बचाने के लिए धरोहर घोषित किया जायेगा।

जयंत साहू
रायपुर

जयंत साहू जी छत्तीसगढी भाषा के युवा पीढी के स्थापित साहित्यकार हैं, कविता, कहानी एवं व्यंग्य के साथ ही वे समसामयिक विषयों पर भी निरंतर लिखते रहते हैं. जयंत जी का ब्लॉग है चारी चुगली.

टिप्पणियाँ

  1. उपजाऊ माटी को इमारतें खड़ी करने का कमाऊ साधन बना रखा है।

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  2. अतिथि जयंत साहू जी की कलम से बड़ी सार्थक प्रविष्टि आई है संजीव जी ! उन्हें हार्दिक शुभकामनायें !

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  3. मेहनत से तैयार होये हे जयंत, शाबास.

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  4. सार्थक लेख बधाई जयन्‍त भाई

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  5. असिस देवइया सबो सुजानी सियान मन ल पॉलगी, धन्यवाद आरंभ.

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आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

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