विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
लोकप्रियता की अजब पहेली राजेश खन्ना कुछ अनछुए आत्मीय प्रसंग विनोद साव साल 1969 से 1974 तकरीबन पॉंच सालों का यह एक ऐसा दौर था जिसमें हमारे हिस्से में राजेश खन्ना आए। हम हाई स्कूल के छात्र फिल्मी दर्शक के रुप में राजेश खन्ना बैच के छात्र थे, जबकि वे हम स्कूल के लड़कों से दस-बारह साल बड़े रहे होंगे लेकिन हमारे वे एक ऐसे प्रिय पात्र हो गए थे कि वे हम सबको अपने साथ पढ़ने वाले किसी मित्र की तरह लगा करते थे। हम पर राजेश खन्ना का प्रभाव कितना गहरा था इसका एहसास तब हुआ जब हमें स्कूल की लड़कियॉं शर्मिला टैगोर और मुमताज की तरह दिखने लगी थीं। हमें ऐसा लगता कि हमारी सूरत किसी ऐसे हीरो से मिल रही है जिसे हमने ‘आराधना या ‘कटी पतंग’ में देखा हो। हमारे सिर के बालों के बीच थोड़ी बाॅयीं ओर मांग अपने आप निकलने लग गई थी। अपनी मुचमुची मुस्कान के साथ हम आॅखें झपका कर बातें करने में मशगूल हो जाते थे। हमने डबल सिलाई वाले शर्ट पहने। धोती और पाजामा के साथ नहीं बल्कि पेंट के उपर कुरता पहनने का नया शौक चर्राने लगा था, जिसे गुरु शर्ट कहा जाता था। उनके पहने कोट में पहली बार फ़र वाले कॉलर दीखने लगे थे। ज