लोक कथागायन और परिवर्तन का दौर : रमाकांत श्रीवास्तव सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

लोक कथागायन और परिवर्तन का दौर : रमाकांत श्रीवास्तव

यादवों की कथा गायन की विशेष शैली है बांस गीत। गायक, रागी और बांसिन का दल यादव वीरों की कथा का गायन करता है। सामान्यत: ये कथाएं विवरण प्रधान होती हैं कथा गायन कई घंटों का समय लेता है। कलाकारों को कथा की जानकारी पुश्त दर पुश्त परंपरा से होती है। इस कला का सीधा संबंध चरवाहा संस्कृति से है। एक समय था कि हर गांव कस्बे में बांस गीत के कलाकार मिल जाते थे किन्तु अब इस कला का ह्रास हो रहा है।वरिष्ठ लोकगायक स्व चिंतादास बंजारे से मैंने पूछा था कि लोककथा गायन के प्रति लोगों की रुचि अब कितनी रह गई है तो उनका बेबाक उत्तर था 'अब समय बदल गया है सर। पहले छट्ठी में, मुंडन में, शादी में लोग बुलाते थे और सुनते थे। भरथरी, चंदैनी कई-कई रात लोग बैठकर सुनते थे। नाचा पार्टी कहीं जाती थी तो सारा गांव रात भर मजा लेता था। अब तो सिनेमा और टीवी देखते हैं। पहले जैसी बात नहीं रही गुरूजी।' पंडवानी गायिका ऊषा बारले से जब मैं भिलाई में उनके निवास स्थान पर मिला तब वे न्यूयार्क से कार्यक्रम देकर लौटी थीं। मैंने उनसे पंडवानी गायन के वर्तमान दौर विषय में जानना चाहा तो इस संबंध में बतलाते हुए उन्होंने स्थिति पर अपने स्पष्ट विचार व्यक्त करते हुए कहा 'आजकल तो बिजनेस हो गया है। घर बैठे टीवी सीडी में देखकर सब पंडवानी गाना सीख गये। अनगिनत कलाकार हो गये। कुछ अपने मन से बना लिया और कुछ बाजे वालों ने सुधार दिया। कार्यक्रम दो बजे है और कलाकार बारह बजे ही पहुंच जाते हैं।' युवा पीढ़ी की प्रसिध्द पंडवानी गायिका ऋतु वर्मा से उनके दर्शकवृंद के संबंध में प्रश्न करने पर उन्होंने कहा 'गांव में तो भक्ति वाले शांत रस के प्रसंग में ही मन लगाकर सुनते हैं। पर बड़े मंचों पर वीर रस के प्रसंग जैसे कीचक वध, द्रौपदी चीरहरण को ज्यादा सुनना चाहते है। गांव और शहर के दर्शकों में यह अंतर है कि गांव के दर्शक बहुत मग्न होकर गायन सुनते है तो सुनाने में भी मजा आता है। नये-नये शब्द बन जाते हैं। एक घंटा का कार्यक्रम दो-तीन घंटा भी चल जाता है।' दिलचस्प बात यह है कि ऋतु वर्मा को लगता है कि विदेशों में सबसे अच्छे दर्शक उन्हें जापान में मिले। इन लोक कलाकारों के मन्तव्यों को सामने रखकर हम लोक संस्कृति के वर्तमान परिदृश्य का आकलन करने का प्रयास कर रहे हैं। डॉ. श्यामाचरण दुबे ने अपने लेख 'संक्रमण की पीड़ा' में तेजी से बदलते सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश को गिरिजाकुमार माथुर की पंक्तियों के माध्यम से व्यक्त करने का प्रयास किया है। काव्य पंक्तियां निम्लिखित हैं-
जो कुछ पुराना है मोहक तो लगता है।
टूटन का दर्द मगर सहना ही पड़ता है॥

बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ही विज्ञान और प्रौद्योगिकी के तीव्र विकास ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी थी कि भारत जैसे सांस्कृतिक चेतना से आबध्द देश के सामने कुछ उलझनें उत्पन्न हो गयी थीं। अपनी विशिष्ट सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़ाव के चलते तीव्र गति से परिवर्तित समय के साथ चलना उसके लिये कठिन हो गया। बीसवीं सदी के दौर में उत्पन्न यह उलझन शताब्दी के बीतते-बीतते एक विकट समस्या बन कर उभरी। भूमंडलीकरण, बाजारवाद और तथाकथित संचार क्रांति ने भारत के बाह्य स्वरुप को ही नहीं उसकी आंतरिक चेतना को भी झकझोर कर रख दिया। वैश्वीकरण के प्रच्छन्न उद्देश्यों ने एक ऐसी उपभोक्तवादी जीवन पध्दति का निर्माण किया जिसमें कलाओं की पवित्र प्रतिज्ञाओं के लिये स्पेस तेजी से कम होने लगा। भारत की शास्त्रीय और लोक कलाओं के मूल उद्देश्यों का स्थिर रहना संभव नहीं रह गया।

नागर और ग्राम्य जीवन के साथ अनुष्ठानों, संस्कारों, लोकाचारों के साथ गुम्फित कलारुपों का जिस तेजी से व्यापारीकरण इस दौर में हुआ वैसा किसी काल में नहीं हुआ था। यदि हम सुभाष घई द्वारा निर्मित फिल्म 'ताल' के सह नायक (जो फिल्म की कहानी में संगीत निर्देशक हैं) का संवाद याद करें तो अनुभव करेंगे कि वह बीसवीं सदी के नौंवे दशक और उसके बाद की स्थिति के लिये भी बेहद मौजूं है। ताल फिल्म के एक दृश्य में लोक गायक ताराबाबू मुंबई के फिल्म निर्देशक विक्रांत कपूर से मिलते हैं तो यह देखकर आश्चर्य चकित रह जाते हैं कि उनके गाये हुए गीत को ही सजा संवार कर विक्रांत ने अपना कैसेट तैयार किया है। विक्रांत बिना किसी संकोच के ताराबाबू से कहता है 'आप लोग छोटी-छोटी जगहों पर जो धुनें बनाते हैं उसमें हम चार वाद्यों की आवाजें भरकर रीमिक्स करते है। रीमिक्स का मतलब है-दूसरे का माल है उसे अपना बना लो।'

बदलते संदर्भ उजड़ते लोग:-
पूरन चंद जोशी के एक लेख के शीर्षक को मैंने जस का तस यहां ले लिया है क्योंकि शीर्षक स्वयं इतना मानीखेज है कि वह स्वयं ही बहुत कुछ कहता, और सम्प्रेषित करता है। तीव्र गति से उजड़ते सामुदायिक जीवन और उसकी सांस्कृतिक विरासत को पी.सी. जोशी ने मैथ्यू आरनॉल्ड की इन पंक्तियों के माध्यम से विश्लेषित करने की कोशिश की है-

टॉर्न बिटविन टू वर्ल्ड्स वन डेड
एण्ड द अदर पावरलेस टू बी बॉर्न
विद नो वेअर यट टु ले वन्स हेड।
(फंसे है दो दुनियाओं के बीच एक दुनिया मृत और दूसरी जन्म लेने में अक्षम नहीं कोई कोई ठौर, टिकाएं सिर जहां।) 

उन्होंने अपने लेख में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न उठाये हैं- 1. क्या लोक समुदाय अपने पारंपरिक रुप में जीवित रह सकते हैं? 2. क्या उन्हें नई परिस्थितियों में ढाला जा सकता है? 3. आज के बदलते संदर्भ में उनका क्या भविष्य है? 4. उसके सुरक्षित ही नहीं जीवंत बने रहने के क्या विकल्प हैं? छत्तीसगढ़ की कथागायन परंपरा को केंद्र में रखकर हम इन प्रासंगिक प्रश्नों पर समग्रता से विचार करें। तीव्र गति से परिवर्तित होती सामाजिक परिस्थितियों के कारण लोक समुदायों के स्वरुप का बदलना स्वाभाविक है। शहरीकरण ने गांव को अपनी जद में ले लिया है, गांव के रहन-सहन में परिवर्तन हुआ है तथा रीति-रिवाजों का शनै: शनै: विलोपीकरण हुआ। संस्कारों, पर्वों और अनुष्ठानों से जुड़े नृत्य-गीत पहले जीवन में गंभीर अर्थ रखते थे किन्तु अब वे नेपथ्य में हैं। उनके स्थान को सिनेमा के गानों ने ले लिया है। शादी, ब्याह के अवसर पर ग्रामीण अंचलों में भी पारंपरिक गीतों के स्थान पर डीजे का प्रचलन आम बात हो गई है। ग्राम्य जीवन के संघर्षों, कष्टों और रोजी के लिये पलायन ने भी लोक संस्कृति की सिसृक्षा, रसिकता और सहजता को क्षीण किया है। यह ऐसी मानव त्रासदी है जिसका सीधा संबंध समाज की आर्थिक परिस्थितियों से है। इस त्रासदी की अभिव्यक्ति एक लोकगीत में इस रुप में की है-

भुखिया के मारे बिरहा बिसरिगा भूल गई कजरी कबीर। देखि के गोरी के उठल जोबनवा अब उठै न करेजवा में पीर॥ डंडा नाच, राऊत नाच, करमा, ददरिया अब जीवन के सहज अंग न होकर सरकारी-गैर सरकारी लोकोत्सवों के आइटम के रुप में स्थानांतरित हो गये हैं। राउत नाच जैसे जातीय लोक कलारुप अब मंचों के श्रृंगार हैं। यह स्वाभाविक भी है। यादव जाति का व्यवसाय अब केवल गौ पालन नहीं रह गया है। जातिगत व्यवसायों वाला समाज अब अपना रुप बदल चुका है। पढ़े-लिखे तथा नौकरीपेशा यादव नवयुवकों से यह आशा नहीं की जा सकती कि वे खुमरी पहन कर सजी-धजी पारंपरिक वेशभूषा में घरों के दरवाजों पर नाचेंगे। कस्बों और गांवों में अभी भी राउत नाच होता अवश्य है किन्तु इसमें केवल वे गोपालक शामिल होते हैं जो अभी भी गौ पालन और गौचारण के कार्य से जुड़े हुए हैं। जाहिर है कि राउत नाच अब नागर मंच में महोत्सव का रुप ले चुका है जिसमें सजी-धजी नृत्य मंडलियां प्रतियोगिता में शामिल होती है। छत्तीसगढ़ के कई शहरों में राउत नाच महोत्सव होते हैं। अब यह जातीय अस्मिता का नया रुप है जिसके तार सूक्ष्म रुप से राजनीति से जुड़े हुए हैं।


यादवों की कथा गायन की विशेष शैली है बांस गीत। गायक, रागी और बांसिन का दल यादव वीरों की कथा का गायन करता है। सामान्यत: ये कथाएं विवरण प्रधान होती हैं कथा गायन कई घंटों का समय लेता है। कलाकारों को कथा की जानकारी पुश्त दर पुश्त परंपरा से होती है। इस कला का सीधा संबंध चरवाहा संस्कृति से है। एक समय था कि हर गांव कस्बे में बांस गीत के कलाकार मिल जाते थे किन्तु अब इस कला का ह्रास हो रहा है। कथा गायन की कला देवार जाति की अपनी विशेषता रही है। छत्तीसगढ़ में देवारों के अस्थाई डेरे जहां भी लगते थे वहां नृत्य गान की अपनी कला का प्रदर्शन वे करते थे। यह कला उनके जीवनयापन का आधार भी थी। परंपरा से प्राप्त कई गाथाओं का गायन वे करते थे। उनके वादन की और सुर लगाने की अपनी शैली थी। 'थी' शब्द का प्रयोग इसलिये किया जा रहा है क्योंकि बदली हुई सामाजिक स्थिति में अब लोक कथा गायन में प्रवीण देवार जाति की युवा पीढ़ी में कलाकार नहीं बचे हैं। अब उनके वाद्य सारंगी और ढुंगरु के स्वर थम चुके हैं और उनकी स्त्रियों ने पारंपरिक गायन, नर्तन छोड़ दिया है। वर्तमान समय में वे स्थाई आवास बनाकर रहने की प्रक्रिया में है तथा आमतौर पर कबाड़ एकत्र कर बेचने के व्यवसाय में वे लग रहे हैं। शीघ्र ही उनकी अगली पीढ़ी शिक्षा प्राप्त कर एक नयी जीवन शैली को अपनाने की राह पर है। ध्यातव्य है कि 'दसमत कैना' का गायन केवल देवार जाति करती थी किन्तु अब पूर्ण रुप से इस कथा का गायन करने वाले देवार कलाकार इक्के दुक्के ही बचे हैं। मंच पर इसे प्रस्तुत करने वाली संभवत: अकेली कलाकार रेखा देवार हैं। इन गाथाओं का डाक्यूमेन्टेशन हो रहा है, वही अवशेष के रुप में हमारे पास शेष रह जायेगा। कुछ विद्वान और संस्कृतिविद् इस प्रक्रिया के पक्ष में नहीं है। उनका तर्क है कि लोक संस्कृति एक बहता प्रवाह है अत: उसे जीवन के सहज अंग के रुप में समाज में जीवित कला के रुप में रहने देना चाहिए। बेशक, यह विचार एक आदर्श है किन्तु तीव्र गति से बदलती हुई जीवन स्थितियों में यह कला जीवित ही नहीं रह पायेगी तब क्या होगा? क्या यह हमारी कला संपदा का पूर्ण विलोपीकरण नहीं होगा? रामहृदय तिवारी जैसे रंगकर्मी और सिनेनिर्देशक तो यह मानते हैं कि इन्हें लुप्त होने से रोका ही नहीं जा सकता।5 हम लोक गाथाओं का ही उदाहरण लें। चनैनी का गायन छत्तीसगढ़ में उतना ही लोकप्रिय था जितना भोजपुर क्षेत्र में लोरिकी का गायन था। छत्तीसगढ़ में चनैनी केवल यादव समुदाय की कला नहीं थी, उसका गायन अन्य जातियों के कलाकारों भी करते थे। किन्तु आज समग्र चनैनी का गायन करने वाले कलाकारों का नितांत अभाव है। चनैनी की धुन अवश्य बरकरार है और उसके प्रसंगों का गायन भी होता है। किन्तु विशेषज्ञता के साथ इस लोककाव्य का सम्पूर्ण गायन अब नहीं होता। दृश्यता का दबाव- सामाजिक जीवन प्रध्दति के परिवर्तन ने ग्रामीण समाज के ऋतुचक्र से जुड़े पर्व तथा कलारुपों को प्रभावित किया है। बदली हुई जीवन शैली ने लोगों की मानसिकता और रुचि में भी परिवर्तन किया है। दृश्य माध्यम ने दर्शकों की रुचि का परिष्कार करने के स्थान पर उसे विकृत ही किया। अब स्थिति यह है कि हर कलारुप में दृश्यता की अनपेक्षित घुसपैठ प्रारंभ हो चुकी है। यही कारण है कि कथा गायन के कुछ ऐसे कलारुप ही लोकप्रिय हो रहे हैं जिनमें अभिनय की गुंजाइश है। पंडवानी इसका ज्वलंत प्रमाण है। चनैनी गायन ने धीरे-धीरे नाटक का रुप ले लिया है। मंच पर अधिक पात्रों का समावेश दृश्यता की मांग और उसका दबाव है। बिलासा केंवटिन जैसे करुण कथागीत में थोड़ी बहुत कामेडी जोड़ने का कारण भी दृश्यता की मांग हो सकती है।

कुछ कथागीत लोक कलाकारों द्वारा निर्मित भी हुए हैं। माधवानल कामकंदला तथा सुतनुका देवदीन के कथागीतों की परंपरा पुरानी नहीं है। इन कथाओं पर आधारित नृत्य तथा गीत नाटय की रचनाएं नागर मंच पर स्थान पा रही हैं। उनका प्रभाव भी लोक कथागायन पर पड़ रहा है। फिल्मों की कोरियोग्राफी का प्रभाव भी लोककला मंडलियों की प्रस्तुति में प्रवेश पा रहा है। मंचीय कला की समझ और वेशभूषा का परिवर्तन तो सहज प्रक्रिया है और कला की दृष्टि से इनमें कोई बुराई भी नहीं है क्योंकि परिवर्तन प्रत्येक काल में होते रहे हैं। किन्तु यह देखा जा रहा है कि कथा गायन की कला का ह्रास हो रहा है और अभिनय तत्व तथा मंचीयता की प्रवृत्ति बढ़ रही है। यह भी कटु सत्य है कि इस परिवर्तन को रोका जाना संभव नहीं लगता। मंचों की सजावट, प्रकाश उपकरणों का प्रयोग, नवीन वाद्यों का संगत में शामिल होना पारंपरिक शैली को स्वयं ही बदलाव का रास्ता दिखला देता है। लोक कला मंडलियां भी इनके इस्तेमाल के लिये लालायित हैं तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं है। मशाल या गैस बत्ती के प्रकाश में चौपाल के कामचलाऊ मंचों पर होने वाले प्रदर्शनों का युग समाप्त हो चुका है।

लोक महोत्सवों की भगदड़-लोक जीवन के सहज अंग के रुप में कथागायन एक पुरानी परंपरा रही है। प्राचीन काल में 'गाथा,' 'नाराशंसी' और 'रैभी' का प्रचलन ऐतिहासिक सत्य है। बीसवीं सदी के छठवें-सातवें दशक तक छत्तीसगढ़ के ग्रामीण क्षेत्रों में छट्ठी, मुंडन, विवाह आदि संस्कारों में तथा भागवत कथा जैसे अनुष्ठानों के समय कथागायन होता था। पूनाराम निषाद, तीजन बाई, उषा बारले, ऋतु वर्मा जैसे कलाकारों के प्रदर्शनों का प्रारंभ इसी तरह हुआ था। गणेशोत्सव, दुर्गापूजा आदि पर्वों पर ये कलाकार ससम्मान बुलाये जाते थे। इन पर्वों पर अब भी लोक कलाकारों के कार्यक्रम होते हैं किन्तु वर्तमान समय में फिल्मी गीतों और डिस्कों ने इन मंचों को अतिक्रांत कर रखा है। गांवों में भी अब यह दृश्य आम है कि विवाहोपरान्त आशीर्वाद समारोह में डीजे की धुन पर अधकचरा डिस्को हो रहा है। दुर्भाग्य से इसे आधुनिकता मान लिया गया है। समृध्द लोक कलाओं के प्रति उदासीनता का यह एक दुखद उदाहरण है। इधर शासन ने लोक कलाओं के संरक्षण और संवर्ध्दन के लिये अपनी प्रतिबध्दता प्रदर्शित की है। शासन के अतिरिक्त निजी संगठनों के द्वारा भी ये प्रयास जारी हैं। सरकारी महोत्सवों ने कई कलाकारों को विश्व प्रसिध्द होने में मदद की है। छत्तीसगढ़ के कई लोक कथागायक विदेशों में अपने कार्यक्रम सफलतापूर्वक प्रस्तुत कर यश प्राप्त कर सके हैं। इन कलाकारों के बायोडाटा में विदेश प्रवासों का उल्लेख गौरव के साथ किया जाता है। जहां तक शासन के द्वारा किये जाने वाले उत्सवों का प्रश्न है ये बहुत जल्दी निहित स्वार्थों भरी भगदड़ में तब्दील हो गये हैं। अब तो नगर महोत्सवों की बाढ आ गयी है। विभिन्न प्रांतों के वार्षिक महोत्सव भी सम्पन्न होते हैं जहां कलाकारों के अंर्तप्रांतीय समागम होते हैं। इससे लोककलाप्रेमी दर्शकों को यह लाभ अवश्य मिलता है कि वे देश के विभिन्न अंचलों के कलाकारों को देख पाते हैं। किन्तु किसी तरह के मानकों का निर्धारण न कर पाने के कारण ऐसे महोत्सव में तेजी से मिलावटी प्रस्तुतियां दिखलाई देने लगी हैं। छत्तीसगढ़ में लोक कला महोत्सवों की धूम है जिनमें बहुधा नेताओं की भागीदारी होती है। इन उत्सवों ने कथा गायन का सबसे अधिक नुकसान किया है। इनमें से कई महोत्सव आयोजकों की यशलिप्सा, खानापूरी और तुष्टिकरण की रणनीति पर टिके होते हैं। अत: अच्छी, सामान्य और ढेर सी अधकचरी कला मंडलियों को इनमें शामिल कर लिया जाता है। पंडवानी, चंदैनी या भरथरी जैसी गाथा गाने वाले कलाकार को जब बीस मिनट की समय सीमा में बांध दिया जाता है तो वह सोच में पड़ जाता है कि किस प्रसंग को वह कितना संक्षेपीकृत रुप में प्रस्तुत करे। कभी-कभी तो वह सोच भी नहीं पाता कि संयोजक का निर्देश मिलता है कि आपको बारह मिनट ही दिये जा सकते हैं। आयोजक द्वारा किसी वीआईपी को मंच पर बुलाकर उसके आशीर्वचन प्राप्त करने के चक्कर में लोक कथागायक यदि मंगलाचरण और भरतवाक्य ही सुना पाये तो गनीमत है। इन परिस्थियिों के चलते अब ऐसे कलाकार भी मिल सकते हैं जो गिने चुने प्रसंगों की पंद्रह मिनट की चमकदार प्रस्तुति में तो माहिर हैं किन्तु उन्हें कथा का पूर्ण ज्ञान नहीं है। बावजूद इसके वे आयोजकों के कृपा पात्र बनकर मंचप्रवीण कलाकार बन सकते है। चिंतादास बंजारे, लतमार दास जैसे निष्णात लोक कथागायक दूर दराज के स्थानों पर रहने के कारण तथा परिचय का दायरा न बढ़ा पाने के कारण वह स्थान नहीं पा सके जो उन्हें मिलना चाहिए था। पूनाराम निषाद जैसे विनम्र और सरल कलाकार को ख्याति इसलिये मिल सकी कि हबीब तनवीर ने सत्तर के दशक में उन्हें मंच पर प्रस्तुत किया था। आज की परिस्थिति में लोक कलाकारों की यह नियति है।

जनता की सांस्कृतिक परंपरा का श्रेष्ठ उभारने के लिये राज्योत्सवों और लोक महोत्सवों की कल्पना नि:संदेह सराहनीय है किन्तु ये उत्सव राजनैतिक दलों की वाचालता और मट्ठरपन की विलासभूमि बनते जा रहे हैं। जनजीवन के सौंदर्य के आयामों को विकसित करने के स्थान पर यह भीड़ जुटाकर वाहवाही लूटने के साधन बन गये हैं। होना यह चाहिए था कि ये उत्सव गैर राजनैतिक उपक्रम बनते जहां सरकार और प्रशासन द्वारा स्वायत्त अकादमियों को काम करने की स्वतंत्रता प्रदान की जाती। शासकों की उपस्थिति वहां विनम्र दर्शकों और श्रोताओं के रुप में ही होना उचित होती, इसके बरक्स ये आयोजन प्रथम पंक्ति में सपरिवार बैठने की लालसा के मारे अधिकारियों की अहम तुष्टि के साधन और पिकनिक भाव का मनोरंजन स्थल बनते जा रहे हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन ने लोक कथागायकों को अपने कार्यक्रमों में अवसर दिया है जिससे कुछ स्तरीय ध्वन्यांकन हो सका है। किन्तु इन कार्यक्रमों में भी समय की सीमा निर्धारित होने के कारण प्रस्तुतियां अधूरी रह जाती हैं। इन संस्थानों के संग्रहों में कलाकारों के परिचय और साक्षात्कार तो हैं किन्तु सम्पूर्ण गाथाओं का दृश्यांकन और ध्वन्यांकन है या नहीं इसकी जानकारी मुझे नहीं है। लोक कथा गायिकी का व्यावसायीकरण- बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में भूमण्डलीकरण की अंधी आंधी ने नैतिक और व्यावसायिक मूल्यों को ध्वस्त कर दिया है। उपभोक्तावाद रणनीति नहीं बल्कि जीवन मूल्य के रुप में स्थापित हुआ। हमारी सांस्कृतिक चेतना और जीवन दर्शन को इस व्यवसायीकरण ने गहराई से प्रभावित किया। नागर क्षेत्र हो, ग्राम्य अंचल हो या वनांचल, भारतीय जीवन शैली में सांस्कृतिक चेतना और कलाबोध सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन के साथ एकाकार थे। जीवन के प्रत्येक मुकाम पर हमारे क्रियाकलापों में पारंपरिक गीत, नृत्य, चित्रांकन, कथाकथन और कथागायन का अनिवार्य जुड़ाव था। यह जीवन पध्दति एक जातीय सौंदर्यबोध की रचना भी करती थी किन्तु बाजारीकरण ने उसे या तो लुप्त कर दिया या उसे दिखावे में तब्दील कर दिया। विभिन्न अनुष्ठानों को सम्पन्न करने के लिये जो आंतरिक स्फुरण और पारंपरिक कलाबोध पीढ़ी दर पीढ़ी सम्हाल कर रखा गया था वह परिवार की दहलीज को लांघकर बाजार की वस्तु में तब्दील हो गया। ऊपरी तौर पर देखने से यह एक बड़ी सुविधा की तरह लगता है किन्तु वास्तव में यह हमारे कलारुपों का जीवन से निकलकर बाजार में स्थापित हो जाने की प्रक्रिया है। भूमण्डलीकरण और उदारवाद वस्तुत: नव उपनिवेशवाद के घटक है। पूरा संसार वैश्विक पूंजी के इशारे पर नाच रहा है। भारत की सद्य आर्थिक नीतियां उसकी अनुगामिनी है। छत्तीसगढ़ भी इस भ्रमित विकास का शिकार है। विकास की यह अधोसंरचना जन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित करती है। छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक बदलाव को रेखांकित करते हुए डॉ. जयप्रकाश ने लिखा है उपनिवेशीकरण सिर्फ आर्थिक घटना नहीं है वह मानसिक स्तर पर भी घटित हो रहा है। उसका प्रभाव समाज की सांस्कृतिक जड़ों पर भी दिखाई देता है। कहने की जरुरत नहीं कि नव उपनिवेशिक प्रभाव अनेक स्तरों पर संस्कृति के भिन्न-भिन्न रुपों और निर्मितियों में दिखलाई देता है।' लोक संस्कृति को लोकप्रिय संस्कृति बनाने की मंशा बाजारीकरण का एक हिस्सा है। छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति के क्षेत्र में दीर्घ काल से सक्रिय संस्कृतिकर्मी यह अनुभव करने लगे हैं कि बाजारवादी संस्कृति का दुष्प्रभाव ग्रामीण इलाकों तक फैल गया है। डॉ. कालीचरण यादव लिखते हैं बदलते हुए सांस्कृतिक परिदृश्य में बाजार के तर्क और उसके मनोविज्ञान को समझे बिना लोक संस्कृति ने मनुष्य और ज्ञान के संबंधों को कमजोर बना दिया है। वह बाजार की आवश्यकताओं की पूर्ति के उद्देश्य से परोसी और संचालित की जाती है। लोकप्रिय संस्कृति की अंतर्वस्तु, मनुष्य को अपने समय और समाज के प्रति उदासीन बनाने वाली और उसे एक जागरुक नागरिक की बजाय उपभोक्ता के रुप में विघटित करने वाली होती है। लोकप्रिय संस्कृति मानवीय सरोकारों से इतर मानव विरोधी भूमिका का निर्वाह करती है।7 नाचा पार्टियां और सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाली मंडलियां पहले भी थीं और उन्हें खर्च, विदाई या शुल्क देने की परंपरा भी थी किन्तु उनमें व्यावसायिक नजरिया उतना नहीं था। लोक कलाकारों की सृजन इच्छा और उत्सवों में उनकी भागीदारी की भावना प्रमुख होती थी। किन्तु बदलते परिवेश में यह स्वाभाविक है कि लोककलाकारों में भी स्टार कलाकार होने लगे हैं जो खासे व्यस्त रहते हैं। चुस्त और व्यावहारिक कलाकार सम्पर्क बनाने में पटु हो गये हैं। उनके पास आयोजनों के संबंध में पर्याप्त सूचनाएं भी रहती हैं और मंच पर जमने की उन में सामर्थ्य भी रहती है। इसका विलोम परिदृश्य यह है कि दूरदराज के इलाकों के अच्छे कलाकार उपेक्षित हैं। उनके पास पारंपरिक कला की विरासत है फिर भी उन्हें मंच नहीं मिल पाता। बाजार में ढेर से कैसेट और सीडी आ गये हैं। निष्णात, सामान्य और अधकचरे कलाकारों के कथा गायन की सीडी इस समय उपलब्ध है। पंडवानी और भरथरी का चलन अधिक है क्योंकि कथाओं के कुछ गायकों को अंतर्राष्ट्रीय प्रसिध्दि मिली है। कुछ ऐसे व्यवसायी हैं जिनका दावा है कि उन्होंने लोक कलाओं का भला किया है और उसकी दृश्यात्मकता में इजाफा किया है। ऐसे एक व्यवसायी ने विश्व प्रसिध्द पंडवानी गायिका तीजन बाई के डीवीडी कुछ इस प्रकार तैयार की है कि तीजनबाई तंबूरा लेकर गा रही हैं और पृष्ठभूमि में बीआर चोपड़ा के महाभारत सीरियल का दृश्य चल रहा है। नतीजा साफ है कि तीजन बाई का गायन गौण हो गया है। सांस्कृतिक संतरण और भद्रलोकीकीरण-परिवर्तित सामाजिक परिदृश्य ने कथागायकों की मानसिकता पर भी प्रभाव डाला है।

एक विचित्र स्थिति यह निर्मित हुई है कि लोक कलाकारों का दर्शक वर्ग बदल गया है। ग्रामीण क्षेत्रों में उत्सवों और अनुष्ठानों के अवसर पर आर्केस्ट्रा पार्टी और फिल्म देखने का चलन बढ़ गया है और नागर मंच पर लोक संगीत को महत्व मिल रहा है। महत्व मिलने के कारणों में लोक संस्कृति का व्यवसायीकरण, राजनीति में आंचलिक अस्मिता का दिखावा भरा उफान और आयोजकों के अपने निहित स्वार्थ भी शामिल हैं। ऐसा नहीं कि वर्तमान में नागर समाज ने लोक संस्कृति के महत्व को एकदम नहीं समझा है। बेशक, समाज के पढ़े लिखे वर्ग, बुध्दिजीवी और कलाकारों ने लोक संस्कृति के माध्यम से एक ताजगी का अनुभव किया है और उसकी शक्ति को भी पहचाना है। विगत दशकों में प्रत्येक कला विधा ने-विशेष रुप से रंगकर्म और चित्रकला ने लोककला शैली, उसके बिम्बों और प्रतीकों को अपनी सर्जना में शामिल कर अपने को सम्पन्न बनाया है। कला संस्थाओं और अकादमियों के आयोजनों ने नागर और ग्राम्य धारा के कलाकारों को एक दूसरे के निकट आने के अवसर भी प्रदान किये है। यह पूरा परिदृश्य अपने आप में एक गंभीर विरोधाभास की तरह दिखलाई देता है। आमतौर पर छत्तीसगढ़ी कथागायन में गाने के साथ उसकी व्याख्या और कथा के विस्तार के बंधों का प्रयोग होता है। स्वाभाविक रुप से गद्य में यह कथा कहन छत्तीसगढ़ी में होता है। इन दिनों लोक कथागायक नागर श्रोताओं की उपस्थिति में छत्तीसगढ़ी को हिन्दी से तरल बनाकर प्रस्तुत करने लगे हैं। गायन का अंश छत्तीसगढ़ी में होता है किन्तु कथा कहन में तेजी से भाषायी परिवर्तन हो रहा है। इस संदर्भ में तीजन बाई का उदाहरण प्रासंगिक होगा। विस्तृत हिन्दी भाषी क्षेत्र में तीजन बाई की पंडवानी की मांग है। छत्तीसगढ़ के बाहर शहरी क्षेत्र के निवासी भी उनके श्रोता हैं। तीजन बाई का कथा कहन अब सायाम हिन्दी में होने लगा है। संभवत: उनका यह सोचना है कि इससे बड़े श्रोतावर्ग तक उनकी कथा सम्प्रेषित होगी। कलाकार का यह दृष्टिकोण एक स्तर पर सही हो सकता है किन्तु एक अन्य कोण से विवेचना करने पर यह तथ्य उभरकर आता है कि पंडवानी की प्रसिध्दि का महत्वपूर्ण कारक उसकी आंचलिक गंध है। जब पंडवानी के कलाकारों को प्रसिध्दि मिलनी प्रारंभ हुई थी तब ठेठ छत्तीसगढ़ी भी सम्प्रेषण में बाधक नहीं हुई। पंडवानी की कमेण्ट्री का हिन्दीकरण भद्रजन को लुभाने का एक भ्रम मात्र है।


पंडवानी का वर्तमान स्वरुप ही अपने आप में तथाकथित भद्र लोक में शामिल होने की भावना से विकसित हुआ है। पंडवानी के मूल प्राचीन रुप को दंतकथा कहकर उसकेस्थान पर महाभारत की कथा को स्थापित करना यदि एक ओर सृजन का नया आयाम है तो दूसरी ओर यह लोक में प्रचलित पांडवों की कथा को हीन मानने की भावना है। लोकगाथा की तुलना में सबल सिंह चौहान रचित महाभारत की कथा को स्वीकार करने के पीछे प्रख्यात कथानक के प्रति आकर्षण का भाव है। परिणाम यह हुआ कि मूल पंडवानी लुप्त हो चुकी है। रही सही कसर इस प्रचार ने पूरी कर दी कि सबल सिंह के महाभारत के आधार पर प्रस्तुत की जाने वाली पंडवानी वेदमती शैली है और पुरानी पंडवानी कापालिक शैली। इस विभाजन का न तो कोई आधार है और न ही इसके पीछे कोई तर्क है। 'वेदमती' पद 'कापालिक' शब्द से अधिक आदर के योग्य माना गया क्योंकि समाज में कापालिक परंपरा का स्थान नगण्य हो गया है। तार्किक दृष्टि से सोचे तो कापालिक एक भिन्न मत है और महाभारत की कथा से उसका सम्बंध दूर-दूर तक नहीं है। अपनी कथा गायन शैली को लोक मानस में उच्चासीन करने के लिये ये नाम प्रचारित किये गये हैं। न केवल जन सामान्य ने बल्कि लोक संस्कृति के कई शोधार्थियों ने इन नामों को जस का तस स्वीकार भी कर लिया है।

कथा गायन में स्त्रियों का योगदान:-
छत्तीसगढ़ में कथागीतों की परंपरा को जीवित रखने में यहां की स्त्रियों की भागीदारी सराहनीय है। यों लोकवार्ता का समग्रता में मूल्यांकन करने पर इस सत्य को स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होगी कि अनुष्ठानों, संस्कारों आदि से जुड़े उत्सवों एवं उनकी विभिन्न क्रियाओं में स्त्रियों की हिस्सेदारी प्रारंभ से रही है। कथाकथन, गायन, नृत्य, चित्रांकन जैसी विधाओं को लोक में स्त्रियों की आस्था और परंपरानुगामिता ने सुरक्षित रखा। छत्तीसगढ़ अंचल की स्त्रियां मेहनती, मृदुल, हंसमुख और खुले स्वभाव की होती हैं। यहां परदा प्रथा नहीं है अत: स्त्रियां मुक्त भाव से गायन करती हैं। धान की निंदाई, रोपाई के समय, मेले मड़ई जाते समय, अनुष्ठानों को सम्पन्न करते समय इनके गीतों को सुनकर कोई भी कलाप्रेमी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। इनकी खनकती आवाज और गला (सुर) तोड़ने की सहज कला अत्यंत मनमोहक तथा चकित करने वाली है। भारतीय समाज में, जहां तक कथाकथन का सवाल है वहां दादी-नानी की कहानियां संभवत: प्रत्येक काल में आकर्षण का केंद्र रही हैं। स्त्री का यह प्रकृतिप्रदत्त गुण है कि वह भाषा को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने की प्रमुख कारक रही है। छत्तीसगढ़ी कथा गायन के परिप्रेक्ष्य में यह दृष्टव्य है कि मंच पर एक लम्बे समय तक पुरुष कलाकारों का वर्चस्व रहा है किन्तु घर-आंगन में कितनी ही स्त्रियां इन कथाओं का गायन अपने परिवारजनों तथा परिचितों के बीच करती रही हैं। पारिवारिक स्तर पर यह कथागायन अगली पीढ़ी को सांस्कृतिक निधि के हस्तांतरण की एक प्रक्रिया भी रही है। देवार जाति की स्त्रियां गायन में अपने पुरुषों की संगिनी थीं। नृत्य, गान उनका जातिगत गुण था फिर भी सारंगी पर कथागायन का कार्य अधिकतर पुरुष ही करते थे किन्तु स्त्रियां भी सहज रुप से इस कला को आत्मसात करती थी। यही कारण है कि स्मृतिलोप के इस दौर में कथागायन की देवार कला आज कुकुसदा की रेखा देवार तथा कुछ अन्य कलाकारों के पास विद्यमान है। इतर जातियों की स्त्रियों का कथागायन की ओर आकर्षण, मेरी दृष्टि में उनका प्राकृतिक गुण है। बीसवी सदी के उत्तरार्ध्द का समय इस दृष्टि से उल्लेखनीय है कि मंचों पर कथागीतों के प्रस्तुतिकरण में स्त्रियों को मान्यता और प्रसिध्दि मिली। निकट अतीत और वर्तमान परिदृश्य को देखें तो कथागायिकाओं की संख्या पुरुष कलाकारों से कम नहीं है। भरथरी गायन की पर्याय सुरुज बाई खांडे हैं जो अपनी मीठी और दर्द भरी आवाज में भरथरी गायन को नया अर्थ देती है। इसी तरह तीजन बाई आज पंडवानी की पर्याय बन चुकी हैं। पंडवानी गायिकी के महत्वपूर्ण नामों में आज स्त्रियों की संख्या ही अधिक है।

पुरानी पंडवानी गाने वाली लक्ष्मीबाई बंजारे से लेकर नयी गायिका ऋतु वर्मा और उनके बाद उभरने वाली पीढ़ी में भी गायिकाओं की संख्या कम नहीं है। ज्ञात नामों की सूची काफी लंबी है। लक्ष्मी बाई बंजारे, बुधिया बाई, तीजन बाई, शांति बाई चेलक, रेमन बाई, पार्वती बाई, वीणा साहू, इंडिया बाई, ऋतु वर्मा, प्रभा यादव, सावित्री मीरा, सुशीला ठाकुर, प्रतिभा बाई, चैती बाई, बैसाखिन बाई, चमेली निषाद, सुरुज बाई, रेखा जलछत्री, उषा बारले, रेखा देवार, दया बाई, सुमित्रा बाई, अशोक बाई जाना बाई, कौशिल्या बाई, द्रौपदी बाई, कुन्ती बाई, अमृता साहू, प्रतिभा बाई, उत्तरा जंघेल, कुंती बाई निर्मलकर, चंद्रिका बाई, हेमिन बाई जांगड़े लोक कथा गायिकाओं के उभार को कलाकार-विशेष रुप से पुरुष कलाकार दो भिन्न दृष्टियों से देखते हैं। नई पंडवानी के जनक झाडूराम देवांगन का मत था कि महिलाएं पंडवानी के मंच की गंभीरता को तरल बना रही हैं। पूनाराम निषाद का मत भी इस ओर झुका हुआ है। वे मानते हैं कि महिलाओं के मंच पर सफल होने के कारणों में एक यह है कि उनका परिधान और ग्लैमर दर्शकों को आकृष्ट करता है। दूसरी ओर कुछ कलाकार इसे नारी जागरण से जोड़कर देखते है। पंडवानी गायक खम्मन लाल का मत है 'लड़कियों की आवाज मधुर होती है। अशिक्षित नारी होकर भी मंच पर प्रोग्राम देना बहुत अच्छी बात है। इस कारण पुरुषों की शैली अलग हो जाती है। महिलाओं की शैली अच्छी लगती है।' एक अन्य पंडवानी गायक प्रहलाद निषाद स्त्रियों के मंच पर आने के कारण की विवेचना इस तरह करते हैं 'इसके पीछे मुख्य रुप से तीजन बाई की प्रसिध्दि और प्रकाश में आना है। नारी होकर जिन्होंने छत्तीसगढ़ का नाम रौशन किया है। दूसरा कारण नारी जागरण भी है।' मेरी दृष्टि में छत्तीसगढ़ी कथागायन के क्षेत्र में स्त्री की भागीदारी के दो महत्वपूर्ण कारक हैं पहला छत्तीसगढ़ी स्त्री का गायन के प्रति सहज रुझान और पर्दाप्रथा का न होना। दूसरा कारण स्त्री की सहज प्रतिभा है जिसका विकास अनुकूल वातावरण पाकर तेजी से होता है। जहां तक कथा कथन का प्रश्न है मैं इसे पहले ही रेखांकित कर चुका हूं कि यह स्त्री का प्राकृतिक और पारंपरिक गुण है। लोक कथाओं और लोकगीतों में स्त्री की सहभागिता पुरुष से कम नहीं रही है। यह एक ऐतिहासिक सत्य है।

लोक संस्कृति और जन संस्कृति:-
कथागायन की परंपरा और उसके आशयों का विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि वह हमारे समाज के सांस्कृतिक प्रवाह को गतिमय बनाने में मदद करते रहे हैं। साथ ही सांस्कृतिक तत्व के रुप में वह हमारी राष्ट्रीय एकता के सूत्रों की ओर भी संकेत करते हैं। कई कथागीत विशेष जातियों की पहचान बनने के साथ ही वृहत समाज के कलाबोध को तृप्त करते हैं। हमारा वर्तमान परिदृश्य एक ओर विश्व ग्राम की धुंधली और भ्रामक तस्वीर पेश करता है तो दूसरी ओर जातिप्रथा की जकड़बंदी को बढ़ावा देता है। जातिगत अस्मिताओं को स्थूल रुप से विकसित करने का दुष्परिणाम यह है कि हमारे समाज के चिंतन को उदार और गतिशील बनाने वाले महापुरुष जातियों के आईकान बनाये जा रहे है। भारतीय राजनीति वोट की राजनीति के जाल में इतनी उलझ चुकी है कि वह जातिप्रथा को बढ़ावा देती है। इस प्रक्रिया में जाति आधारित संगठन अपनी रुढ़ मान्यताओं के प्रति अत्यंत संवेदनशील होते जा रहे है। रचनाधर्मिता और कला की स्वाधीनता पर कट्टरता का शिकंजा कसता जा रहा है। वस्तुत: लोक संस्कृति के उदार और धर्म निरपेक्ष विचारों के आधार पर जन संस्कृति की अधिरचना का रुपाकार खड़ा करने की आवश्यकता है। लोक जीवन के व्यावहारिक ज्ञान को आत्मसात करके जो दार्शनिक, समाज सुधारक और संघर्षशील जननेता उभरे उनके जीवन मूल्य केवल उनकी जाति के सदस्यों के लिये नहीं है। कबीर, डॉ. अम्बेडकर या संत घासीदास से प्रेरणा लेने वाले उनके अपने सम्प्रदाय से बाहर के लोग भी हैं। उनका महत्व भी इसी बात में है कि उन्हें संकीर्ण सीमा रेखाओं में बांधने की चेष्टा न की जाए। लोक संस्कृति को इस्तेमाल की वस्तु बनाने के प्रयास जारी है। वहां ऐसे रचनाकार गायक, रंगकर्मी कलाकार भी हैं जो उसके उजले पक्ष को विराट जनता की चेतना को विकसित करने के लिए प्रयत्नशील हैं। बदलाव हो रहे हैं और होते रहेंगे किन्तु संक्रमण के इस दौर में लोक और लोकवार्ता की संतुलित और उदार व्याख्या तथा प्रयोग जरुरी है।

रमाकांत श्रीवास्तव


संदर्भ 1. ग्राम कुर्सीपार (तहसील: डोंगरगढ़) में हुई बातचीत 2. श्रीमती ऊषा बारले से साक्षात्कार 3. श्रीमती ऋतु वर्मा से भिलाई में लिया गया साक्षात्कार 4.पी.सी. जोशी - बदलते संदर्भ उजड़ते लोक - 'लोक' : पृष्ठ 366 5.श्री रामहृदय तिवारी से दुर्ग में लिया गया साक्षात्कार 6. डॉ. जयप्रकाश-नव औपनिवेशिक शक्तियां और नया यर्थाथ - मड़ई 2008: पृष्ठ 179 7. डॉ.कालीचरण यादव- मड़ई 2008 8. डा.पीसीलाल यादव के अप्रकाशित शोध ग्रंथ से साभार 9. पद्मश्री पूनाराम निषाद से ग्राम रिंगनी में साक्षात्कार 10. डॉ.पीसीलाल यादव द्वारा लिया गया साक्षात्कार 11. वही -दाऊ चौरा, खैरागढ़, जिला राजनांदगांव (छ.ग.) 

टिप्पणियाँ

  1. बड़े ही जीवन्त प्रश्न हैं, परम्परा और आधुनिकता, संतुलन बनाये रखना ही होगा।

    जवाब देंहटाएं
  2. छत्तीसगढ़ बर पोट्ठ गियान आखर छापे हावव।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भट्ट ब्राह्मण कैसे

यह आलेख प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट जी नें इस ब्‍लॉग में प्रकाशित आलेख ' चारण भाटों की परम्परा और छत्तीसगढ़ के बसदेवा ' की टिप्‍पणी के रूप में लिखा है। इस आलेख में वे विभिन्‍न भ्रांतियों को सप्रमाण एवं तथ्‍यात्‍मक रूप से दूर किया है। सुधी पाठकों के लिए प्रस्‍तुत है टिप्‍पणी के रूप में प्रमोद जी का यह आलेख - लोगों ने फिल्म बाजीराव मस्तानी और जी टीवी का प्रसिद्ध धारावाहिक झांसी की रानी जरूर देखा होगा जो भट्ट ब्राह्मण राजवंश की कहानियों पर आधारित है। फिल्म में बाजीराव पेशवा गर्व से डायलाग मारता है कि मैं जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय हूं। उसी तरह झांसी की रानी में मणिकर्णिका ( रानी के बचपन का नाम) को काशी में गंगा घाट पर पंड़ितों से शास्त्रार्थ करते दिखाया गया है। देखने पर ऐसा नहीं लगता कि यह कैसा राजवंश है जो क्षत्रियों की तरह राज करता है तलवार चलता है और खुद को ब्राह्मण भी कहता है। अचानक यह बात भी मन में उठती होगी कि क्या राजा होना ही गौरव के लिए काफी नहीं था, जो यह राजवंश याचक ब्राह्मणों से सम्मान भी छीनना चाहता है। पर ऊपर की आशंकाएं निराधार हैं वास्तव में यह राजव

क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?

8 . हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास? - पंकज अवधिया प्रस्तावना यहाँ पढे इस सप्ताह का विषय क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है? बैगनी फूलो वाले कंटकारी या भटकटैया को हम सभी अपने घरो के आस-पास या बेकार जमीन मे उगते देखते है पर सफेद फूलो वाले भटकटैया को हम सबने कभी ही देखा हो। मै अपने छात्र जीवन से इस दुर्लभ वनस्पति के विषय मे तरह-तरह की बात सुनता आ रहा हूँ। बाद मे वनस्पतियो पर शोध आरम्भ करने पर मैने पहले इसके अस्तित्व की पुष्टि के लिये पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की। यह पता चला कि ऐसी वनस्पति है पर बहुत मुश्किल से मिलती है। तंत्र क्रियाओ से सम्बन्धित साहित्यो मे भी इसके विषय मे पढा। सभी जगह इसे बहुत महत्व का बताया गया है। सबसे रोचक बात यह लगी कि बहुत से लोग इसके नीचे खजाना गडे होने की बात पर यकीन करते है। आमतौर पर भटकटैया को खरपतवार का दर्जा दिया जाता है पर प्राचीन ग्रंथो मे इसके सभी भागो मे औषधीय गुणो का विस्तार से वर्णन मिलता है। आधुनिक विज्ञ

दे दे बुलउवा राधे को : छत्तीसगढ में फाग 1

दे दे बुलउवा राधे को : छत्‍तीसगढ में फाग संजीव तिवारी छत्तीसगढ में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा लोक मानस के कंठ कठ में तरंगित है । यहां के लोकगीतों में फाग का विशेष महत्व है । भोजली, गौरा व जस गीत जैसे त्यौहारों पर गाये जाने लोक गीतों का अपना अपना महत्व है । समयानुसार यहां की वार्षिक दिनचर्या की झलक इन लोकगीतों में मुखरित होती है जिससे यहां की सामाजिक जीवन को परखा व समझा जा सकता है । वाचिक परंपरा के रूप में सदियों से यहां के किसान-मजदूर फागुन में फाग गीतों को गाते आ रहे हैं जिसमें प्यार है, चुहलबाजी है, शिक्षा है और समसामयिक जीवन का प्रतिबिम्ब भी । उत्साह और उमंग का प्रतीक नगाडा फाग का मुख्य वाद्य है इसके साथ मांदर, टिमकी व मंजीरे का ताल फाग को मादक बनाता है । ऋतुराज बसंत के आते ही छत्‍तीसगढ के गली गली में नगाडे की थाप के साथ राधा कृष्ण के प्रेम प्रसंग भरे गीत जन-जन के मुह से बरबस फूटने लगते हैं । बसंत पंचमी को गांव के बईगा द्वारा होलवार में कुकरी के अंडें को पूज कर कुंआरी बंबूल की लकडी में झंडा बांधकर गडाने से शुरू फाग गीत प्रथम पूज्य गणेश के आवाहन से साथ स्फुटित होता है - गनपति को म