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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

अंकों का इतिहास

अलग अलग गणना चिन्‍ह
विश्व के विभिन्न स्थानों पर स्वतंत्र रुप से अलग-अलग तरह के गणना-चिन्हों (अंकों) व गणना पद्धतियों का विकास हुआ, जिसमें भारतीय, रोमन, मिस्री व क्रीट द्वीप के जनजातियों की गणना पद्धतियां विशेष रुप से उल्लेखनीय है, पर इन सभी में भारतीय गणना पद्धति सबसे सरल, व्यवहारिक व सटीक थी, जिस कारण उसने अन्य सभी को प्रचलन से बाहर करके सारे विश्व में अपना एकछत्र अधिपत्य कायम किया। दरअसल भारतीय अंक व गणना पद्धति भारतीय मस्तिष्क के उन कुछ महान आविष्कारों में से एक है, जिसके सामने किसी का भी टिकना लगभग असम्भव है।

हम अंकों और उस पर आधारित गणना पद्धति के इतिहास की बात करें तो विश्व के अधिकांश जगहों पर पर गणना पद्धति का प्रारम्भिक आधार दस ही रहा है और भारतीय गणना पद्धति को तो दशमिक गणना पद्धति भी कहा जाता है। इसमें एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि विश्व के अलग-अलग हिस्सों में स्वतंत्र रुप से विकसित इस गणना पद्धतियों में दस का आधार ही क्यों लिया गया? जबकि बारह अंकों वाला आधार वैज्ञानिक रुप से अधिक उपयुक्त होता क्योंकि यह आधे तिहाई व चौथाई हिस्से तक पूर्णांकों में विभक्त हो जाता। इसका जवाब देते हुए नृतत्व शास्त्री कहते हैं कि चूंकि गणना के प्रारंभिक लोग अपनी हाथों की अंगुलियों का इस्तेमाल किया करते थे। (जैसा छोटे बच्चे अब भी करते है) और हाथों में दस अंगुलियां ही होती है इसी से विश्व के अधिकांश गणना पद्धतियों में दस अंकों का आधार विकसित हुआ।

शून्‍य का पहला अभिलेखीय प्रमाण
भारतीय गणना पद्धति में ‘‘शून्य’’ वह अनुपम गणना चिन्ह (अंक) है जो इसे विश्व के अन्य किसी भी गणना पद्धति से अधिक सरल व श्रेष्ठ बनाता है। शून्य के कारण ही इसे सुव्यवस्थित सिद्धांत में पिरोया जा सका, पर शून्य कब और कैसे प्रचलन में आया इस पर एकमत नहीं है। शायद इसका आधार दर्शन रहा होगा, चूंकि भारतीय गणना पद्धति के अनुसार शून्य का मान कुछ नहीं और अनंत दोनों होता है और भारतीय दार्शनिक मान्यता है कि अनंत हमेशा जहां कुछ न हो अर्थात् शून्य में ही प्रगट होता है। इसलिए बहुत सम्भव है कि गणित में शून्य की अवधारणा दर्शन से आयी हो। हां इस बात पर सभी इतिहासकार एकमत है कि शून्य का पहला अभिलेखीय प्रमाण ग्वालियर के विष्णु मंदिर से 870 ई. में मिलता हालांकि शून्य सहित अन्य अंक इससे शताब्दियों पूर्व प्रचलन में आ चुके थे, पर अभिलेखीय प्रमाणों के अभाव में यह सुनिश्चित करना भी बेहद कठिन है कि इनका कब, किसने आविष्कार किया और कैसे इसे एक सुनिश्चित सिद्धांत में पिरोया, इसका कारण शायद भारतीयों की वह विशिष्ट पृवृति है जो विज्ञान व कला का मूल स्त्रोत ब्रह्मा को बताकर अपना कंधा विद्धता के बोझ से मुक्त कर लेते है। फिर भी ज्ञात ऐतिहासिक स्त्रोत हमें आचार्य कुंदकुंद तक लेकर जाते है। इस पद्धति को ईसा के प्रथम शताब्दी के आचार्य वसुमित्र ने भी उपयोग में लाया है जिससे इतना तो तय हो ही जाता है कि यह ईसा के प्रथम शताब्दी में ही पूर्ण विकसित हो चुकी थी, वैसे पौराणिक ग्रन्थ महाभारत के वन-पर्व में भी पद्धति से गणना की बात मिलती है।

महान आर्यभट्ट

भारतीय अंक व गणना-पद्धति की विश्व विजयी यात्रा-पूर्व की ओर उन साहसी व्यापारियों व विजेताओं के साथ शुरु होती है जिन्होंने पूर्वी एशिया में अपने उपनिवेश स्थापित किये थे, कम्बोडिया के मंदिरों के अलावा सम्बौर का श्री विजय स्तम्भ अभिलेख, पलेबंग का मलय अभिलेख (मलेशिया) जावा (इंडोनेशिया) का दिनय संस्कृत अभिलेख के अतिरिक्त इस क्षेत्र के कई अभिलेखों में भारतीय गणना पद्धति का उपयोग किया गया है, ये अभिलेख चूंकि पद्यात्मक शैली में लिखे गये है, इसलिए इसमें अंकों के स्थान पर भूतसंख्यांओं का उपयोग किया गया है। भूत संख्याऐं वे शब्द है जिनसे गणना चिन्हों को व्यक्त किया जाता है। यथा -


0 - निर्वाण
1 - चन्द्रमा (जो अद्वितीय हो)
2 - नेत्र, कर्ण, बाहु (जो जोड़े में हो)
3 - राम (तीन प्रसिद्ध राम- परशुराम, बलराम, दशरथ पुत्र राम)
4 - वेद 
5 - बाण (कामदेव के प्रसिद्ध पांच बाण)
6 - रस
7 - स्वर
8 - सिद्धि
9 - निधि

इसी तरह विभिन्न अंकों के लिए अन्य शब्दों का प्रयोग हुआ है। चीन में भारतीय अंक बौद्ध धर्म के साथ पहुंचे वहां के सम्राटों को भारतीय ज्योतिष में बेहद आस्था थी। जिससे प्रेरित होकर उन्होंने बहुत से भारतीय ज्योतिष-गणित के ग्रन्थों का चीनी में अनुवाद कराया।

पश्चिम की ओर भारतीय अंकों की यात्रा का पहला पड़ाव ईरान था, जहां के पहलवी शासक शापूर ने भारतीय ज्योतिष-गणित के ग्रन्थों का बड़े पैमाने में फारसी अनुवाद कराया था। ऐसे अनेकों संकेत मिलते है कि पांचवी शताब्दी तक भारतीय अंक व्यापारियों के माध्यम से अलेक्जेfन्ड्रया के बाजारों तक पहुंच चूके थे। इसका सबसे विश्वस्त प्रमाण इस बात से मिलता है कि गणित के बहुत से भारतीय विद्वान उस समय यूनानी वाणिज्य दूत सेवरस के अतिथि रहे थे।

इस बीच इस्लाम के उदय ने भारतीयों का यूरोप से सम्पर्क को लगभग खत्म कर दिया। किन्तु इससे भारतीय अंकों की विजय यात्रा में कोई बाधा नहीं आयी, क्योंकि जब अरबों ने ईरान को विजित किया तो उन्हें वहां के खजानों के साथ-साथ फारसी में अनुवादित बहुत सी बहुमूल्य भारतीय पुस्तकें भी मिली जो गणित सहित अन्य कई विषयों से संबंधित थी। अरबों ने इनका यथायोचित सम्मान करते हुए, इनका अरबी में अनुवाद कराया। इस तरह भारतीय अंक अरबों तक पहुंचे जिन्होंने उसे अपने व्यापारिक साझीदार यूरोपियों तक पहुंचाया, यही कारण है कि भारतीय अंकों को यूरोपीय आज भी इन्डों-अरेबिक संख्याऐं कहते है।

अल ख्वारिज्म
इस्लामिक दुनिया के सिरमौर बगदाद के अब्बासी खलीफा ज्ञान के संरक्षक थे, जिन्होंने गणित वाणिज्य सहित अन्य कई विषयों के भारतीय ग्रन्थों को अरबी में अनुवादित कराया, जो उन्हें अब ईरान के अलावा भारत जाने वाले व्यापारियों व fसंध के अरब उपनिवेश के माध्यम से बड़ी संख्या में उपलब्ध हो रहे थे, इसके अतिरिक्त बहुत भारतीय ग्रन्थ बल्ख (उजबेगीस्तान) से होकर भी बागदाद पहुंचे, दरअसल रेशम मार्ग (सिल्क रुट) में स्थित बल्ख में नवसंधाराम नाम का बहुत बड़ा बौद्ध विहार था, जिसमें बड़ी संख्या में भारतीय ग्रन्थ संग्रहित थे। अरब इस नववहार तथा इसके अरहतों को परमक के बजाय बरमक कहा करते थे। सातवीं शताब्दी में उन्होंने इस विहार को नष्ट कर डाला और अरहतों को इस्लाम स्वीकारने को बाध्य किया, इन अरहतों को इनके ग्रन्थों सहित बगदाद ले जाया गया। बाद में इन्हीं अरहतों में से एक का पुत्र जिसका नाम खलिद इब्न बरमक था। खलीफा अल मंसूर का वजीर बना।

कई अरब विद्वानों ने स्वतंत्र रुप से भी भारतीस अंकों व गणना पद्धति पर भी पुस्तकें लिखी, जिनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध हुई सन् 825 ई. में अल ख्वारिज्म की लिखी पुस्तक ‘‘किताब हिसाब अल अद्द् अल हिन्दी’’ इसमें उन्होंने सिद्ध किया कि भारतीय अंक व गणना पद्धति न सिर्फ सर्वश्रेष्ठ है बल्कि सबसे सरल भी है। यह पुस्तक ‘‘लीबेर अलगोरिज्म डिन्युमरों इन्डोरम’’ (भारतीय संख्याओं पर अलगोरिज्म की पुस्तक) नाम से लैटिन में अनुवादित होकर यूरोप पहुंची और यूरोप अंकगणित से परिचित हुआ। यही कारण है कि यूरोपिय आज भी अंकगणित को अलगोरिज्म के नाम से ही पुकारते हैं। इसके अलावा अबु युसुफ अल किन्दी की ‘‘हिसाबुल हिन्दी’’ अलबरुनी की ‘‘अल अर्कम’’ महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं। अल दिनवरी ने व्यापार संबंधी हिसाब में भारतीय पद्धति का प्रतिपादन किया। साहित्य प्रेमी बुखारा के रहने वाले और अपनी रुबाईयों के लिए मशहुर उम्मर खय्याम को जरुर जानते होंगे, दरअसल वो खगोलविद् थे और उन्होंने भी बड़े जतन से भारतीय गणना पद्धति को सीखा था। बुखारा के ही एक अन्य विद्वान इब्नसीना ने अपनी अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उन्होंने भारतीय अंक व गणना पद्धति उन मिस्री उपदेशकों से सीखी थी जो धर्म प्रचार के लिए वहां आते थे। यह कथन इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यदि इब्नसीना इस बात को न लिखते तो कोई स्वप्न में भी यह नहीं सोच सकता कि भारतीय अंक रुस में व्हाया मिस्र (अफ्रीका) दाखिल हुए।

पंचतंत्र का अरबी अनुवाद, एक दृश्‍य
बच्चों के लिए लिखी गयी भारतीय पुस्तक ‘‘पंचतंत्र’’ का भी यूरोप तक का सफर अंकों के सफर जैसा ही रोचक है। छठी शताब्दी में इसे फारसी में अनुवादित किया गया, जब ईरान पर अरबों का कब्जा हुआ तो यह उनके साथ उम्मैयद खलीफाओं की राजधानी दमिश्क चली आयी जहां इसका सिरियन में अनुवाद हुआ। बाद में अब्बासी खलीफाओं के समय हुआ, इसका अरबी अनुवाद बेहद लोकप्रिय हुआ, इसकी लोकप्रियता का अन्दाज आप इस बात से भी लगा सकते है कि इसके अरबी संस्करण में मुख्य पात्र किलील व दिमना (लोमड़िया) सहित कइ कहानियों को सचित्र दर्शाया गया जो किसी भी जीवित वस्तु के चित्रांकन न करने के इस्लामिक नियम के विपरीत है। इसके बाद पंचतंत्र का हिब्रु ग्रीक व लैटिन में अनुवाद हुआ और यह यूरोप जा पहुंची जहां इसको इटेलियन व स्पेनिश में अनुवादित किया गया। अतः इसे 1570 ई. में सर थामस नार्थ ने ‘‘दि मारल फिलासफी आफ डोनी’’ के नाम से ईटेलियन से अंग्रेजी में अनुवादित किया गया। इसी रास्ते यूरोप पहुंचने वाली भारतीय पुस्तकों में ‘‘वृहकत्था’’ व ‘‘सहत्ररजनी’’ चरित्र प्रमुख है। भारत में बच्चों के लिए गणित में भी कई पुस्तकें लिखी गई, जिनमें जैन आचार्य ऋषभदेव द्वारा अपनी पुत्री आनन्दी के लिए गयी ‘‘बाक्षिल पोथी’’ महत्वपूर्ण है। पर अधिक लोकप्रिय हुई भास्कराचार्य कृत ‘‘लीलावती’’ जिसे उन्होंने अपनी इसी नाम की बेटी को गणित सीखाने के लिए लिखी थी। इस पुस्तक की विशेषता यह है कि गणित जैसा शुष्क विषय भी काव्य के सौन्दर्य व वात्सल्य के रस में भीगकर बिलकुल भी बोझिल नहीं लगता और इसमें आप वात्सल्य से भरे पिता के हृदय के स्पन्दन को साफ सुन सकते हैं।

भावों के प्रवाह में बहकर हम अपनी मूल धारा से दूर आ गये, चलिये वापस लौटते है। फ्रांस में जन्मे गेरबर्ट नामक व्यक्ति ने स्पेन जाकर भारतीय अंक व गणना पद्धति संबंधित ज्ञान अर्जित किया। वह इस पद्धति से इतना प्रभावित हुआ कि जब वह ‘‘सिल्वेस्टर द्वितीय’’ के नाम से पोप बना तो उसने पूरे यूरोप में भारतीय अंकों व गणना पद्धति के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

चौदहवी शताब्दी में यूनानी पादरी मैक्समस प्लेनुडेस द्वारा ग्रीक में लिखी पुस्तक ‘‘भारतीय अंक गणित जो महान है’’ इस बात का प्रमाण है कि इस समय तक पूरे ईसाई व मुस्लिम जगत में भारतीय अंक व गणना पद्धति प्रचलित हो चुके थे। यद्यपि इसमें कुछ बाधायें भी आयी। सन् 1299 में फ्लोरेन्स की नगर परिषद ने वाणिज्य लेखों के लिए भारतीय अंकों पर प्रतिबद्ध लगा दिया था पर युरोप के विभिन्न विश्व विद्यालयों जिनमें आक्सफोर्ड, पेरिस, पेदुआ व नेपल्स प्रमुख थे। भारतीय अंकों व गणना पद्धति पर अध्ययन-अध्यापन जारी रहा। अतः युरोप में प्रचलित होने के बाद ये अंक यूरोपियों के साथ अमेरिका पहुंचे और भारतीय अंकों का विश्व विजय अभियान पूर्ण हुआ।

विश्व को भारत की सबसे महान देने में पहला बौद्ध धर्म का एशिया में प्रसार है जबकि दाशमिक अंक प्रणाली को दुनिया भर में स्वीकार्यता मिलना भारतीय मस्तिष्क की दुसरी बड़ी विजय है। इनमें से एक क्षेत्र पारलौकिक ज्ञान है तो दुसरे का क्षेत्र लौकिक विज्ञान।





विवेक राज सिंह 
समाज कल्‍याण में स्‍नातकोत्‍तर शिक्षा प्राप्‍त विवेकराज सिंह जी स्‍वांत: सुखाय लिखते हैं।अकलतरा, छत्‍तीसगढ़ में इनका माईनिंग का व्‍यवसाय है. 

इस ब्‍लॉग में विवेक राज सिंह जी के पूर्व आलेख -

सभी चित्र गूगल खोज से साभार

टिप्पणियाँ

  1. एक मूल, सब अंक वहीं से निकले हैं..

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  2. अंकों के इतिहास पर बहुत ही उपयोगी जानकारी प्रदान करने के लिये आभार.

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  3. बहुत खूब, बढि़या संकलन व संयोजन.

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  4. प्रिय विवेक जी ,
    ब्लॉग जगत में इस श्रेणी की प्रविष्टियाँ कम ही देखने को मिलती हैं अस्तु साधुवाद !

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  5. और हां ८वें ९वे पैरे में टंकण की दो तीन त्रुटियाँ सुधार दीजियेगा !

    बिहार को नष्ट = विहार को नष्ट

    मिश्र = मिस्र
    मिश्री = मिस्री

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  6. एक शोधपूर्ण सार्थक जानकारी युक्त आलेख!!

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  7. अच्छी जानकारी धन्यवाद ..
    kalamdaan.blogspot.in

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  8. बहुत ही अच्‍छी जानकारी दी है आपने ..आभार ।

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  9. शानदार जानकारी एकदम रोचक तरीके से| 'भास्कराचार्य कृत लीलावती' की उपलब्धता स्थिति पर प्रकाश डाल सकेंगे क्या?

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  10. pin pointed post . collectable.waiting for next one nice .

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  11. अच्छा संकलन.बढ़िया जानकारी,

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  12. अंको की उत्पत्ति को ऐसे रहस्यात्मक तरीके से प्रस्तुत किया गया है जो आपके विचार को दर्शाती है की आपकी सोच कहाँ से कहाँ तक विस्तृत है या मै कहूँ तो आपने अंको की सृष्टी ही रच डाली है उपयोगी जानकारी के लिए साधुवाद

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