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अप्रैल, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

अंकों का इतिहास

अलग अलग गणना चिन्‍ह विश्व के विभिन्न स्थानों पर स्वतंत्र रुप से अलग-अलग तरह के गणना-चिन्हों (अंकों) व गणना पद्धतियों का विकास हुआ, जिसमें भारतीय, रोमन, मिस्री व क्रीट द्वीप के जनजातियों की गणना पद्धतियां विशेष रुप से उल्लेखनीय है, पर इन सभी में भारतीय गणना पद्धति सबसे सरल, व्यवहारिक व सटीक थी, जिस कारण उसने अन्य सभी को प्रचलन से बाहर करके सारे विश्व में अपना एकछत्र अधिपत्य कायम किया। दरअसल भारतीय अंक व गणना पद्धति भारतीय मस्तिष्क के उन कुछ महान आविष्कारों में से एक है, जिसके सामने किसी का भी टिकना लगभग असम्भव है। हम अंकों और उस पर आधारित गणना पद्धति के इतिहास की बात करें तो विश्व के अधिकांश जगहों पर पर गणना पद्धति का प्रारम्भिक आधार दस ही रहा है और भारतीय गणना पद्धति को तो दशमिक गणना पद्धति भी कहा जाता है। इसमें एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि विश्व के अलग-अलग हिस्सों में स्वतंत्र रुप से विकसित इस गणना पद्धतियों में दस का आधार ही क्यों लिया गया? जबकि बारह अंकों वाला आधार वैज्ञानिक रुप से अधिक उपयुक्त होता क्योंकि यह आधे तिहाई व चौथाई हिस्से तक पूर्णांकों में विभक्त हो जाता। इसका

हमनाम तुझे सलाम!

ब्लाॅग जगत में अगस्त २००६ से एवं नियिमत हिन्दी ब्लॉगिंग में अप्रैल २००७ से हूं, हिन्दी ब्लॉगिंग के आरंभिक स्पंदनों से हुंकार तक के सफर में साथ हूं. जैसा कि आप सभी जानते हैं कि मेरे ब्लॉग 'आरंभ' का यूआरएल http://www.aarambha.blogspot.in है. मेरे ब्लॉग में मुख्यत: छत्तीसगढ से संबंधी जानकारी होती है. आज कई साथियों की शिकायत रही कि मेरे ब्लॉग में पोर्न सामाग्री है एवं पोस्ट दूसरी भाषा में है. देखने पर ज्ञात हुआ कि मेरे ब्लॉग 'आरंभ' से मिलता जुलता नेपाली भाषा का एक ब्लॉग है, उसका नाम भी अंग्रेजी में आरंभ http://arambha.blogspot.in है, उसके संचालक हैं नेपाल के पत्रकार प्रकाश गिरी जी. प्रकाश जी के इस ब्लॉग के ताजा पोस्ट में स्त्री वक्ष से संबंधित कुछ लिखा गया है और चित्र लगाए गए हैं.  मेरा ब्लॉग आपके सामने है ... 

जतिन दास की मांग जायज है

लगभग 17 वर्ष पूर्व भिलाई स्पात संयंत्र द्वारा अपने चौकों के सौदर्यीकरण के तहत प्रसिद्व कलाकार जतिन दास के द्वारा निर्मित कलाकृतियॉं भिलाई के सेक्टर 1 स्थित संयंत्र प्रवेश द्वार के पूर्व चौंक पर लगाई गई थी. कहते हैं कि इस कलाकृति को लगाने में संयत्र का लगभग 40 लाख रूपया खर्च हुआ था जिसमें लगभग 10 लाख रूपया जतिन दास को भुगतान किया गया था. हालांकि उस समय स्थानीय स्तर पर इसका जमकर विरोध भी हुआ था कि स्थानीय कलाकारों की उपेक्षा कर बडी राशि खर्च करने का कोई औचित्य नहीं है किन्तु तत्कालीन प्रबंध निदेशक नें विरोध के बावजूद जतिन दास की कृतियों को यहॉं ससम्मान स्थापित किया. आडे—तिरछे व उडते पक्षियों की लौह आकृतियॉं गोलाई में आकार लेकर संयत्र आने वालों का स्वागत करने लगी. वहां स्थापित कला को भिलाई के या छत्तीसगढ के कितने लोगों नें समझा यह कहा नहीं जा सकता किन्तु प्रसिद्व कलाकर की इस कृति के प्रति स्थानीय जनता की आस्था आरंभ से ही नहीं जाग पाई. जनता इस चौक को चिडियों की आकृतियों के कारण 'मुर्गा चौक' का नाम दे दिया. जतिन दास स्थापना के समय के विवाद और स्थापना के दिनों के बाद सभी के स्मृति