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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

समय की यात्रा

एक थी युवा सुन्दरी
प्रकाश से भी तीव्र थी उसकी गति
कर गयी वह एक दिन सापेक्षता से प्रस्थान
और आयी जब लौटकर वह
जाने से पहले दिन का हुआ था अवसान।
A Brief History of Time (Stephen Hawking)


  H.G. वेल्स
हम अपने संसार को तीन आयामों में देखते और समझते है हैं, जिन्हें हम लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई (गहराई) के नाम से पुकारते है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने समय को भी एक आयाम मान लिया है। अब सवाल ये है कि जिस तरह हम किसी लम्बाई, चौड़ाई व ऊँचाई में एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु तक आ जा सकते हैं क्या वैसा समय के साथ भी सम्भव है यानि क्या वर्तमान से निकलकर भूत या भविष्यकाल में जाना सम्भव है।

यह बड़ा ही दिलचस्प विषय है जो बहुत सी सम्भावनाओं के द्वार भी खोलता है। प्रसिद्ध विज्ञान कथालेखक H.G. वेल्स ने अपनी पुस्तक ‘द टाईम मशीन’ में इसका बहुत ही रोमांचक वर्णन किया, बहुत से अन्य लेखकों व फिल्मकारों ने भी ऐसी मशीन की कल्पना की है जिसके माध्यम से भूत या भविष्य में जाया जा सकता था। वैसे ऐसी बहुत विज्ञान कथायें या फंतासियां हु ब हु हकीकत में बदली भी है जिसमें चन्द्रमा की यात्रा और पनडुब्बी का आविष्कार उल्लेखनीय है। यद्यपि समय की यात्रा थोड़ा जटिल मामला है परन्तु वैज्ञानिक सैद्धांतिक रुप से इस बात पर सहमत है कि समय की यात्रा करना सम्भव है।


अल्वर्ट आईनस्टाईन
इस विषय पर अल्वर्ट आईनस्टाईन के विचारों ने बड़ा क्रांतिकारी बदलाव लाया। सापेक्षता के सिद्धांत की व्याख्या करते हुए उन्होंने समय की तुलना नदी से की है जो न सिर्फ कई जगहों पर तुड़ी-भुड़ी होती है वरन् समय की गति भी नदी की ही तरह अलग-अलग स्थानों पर भिन्न-भिन्न होती है। थियेटर में फिल्म देखते हुए बिताये गये तीन घंटे परीक्षा हाल में बिताये गये तीन घंटों से छोटा होता है। यह सिर्फ एक मानसिक स्थिति नहीं वरन् वैज्ञानिक सच्चाई भी है कि समय की गति स्थान के सापेक्ष कम या अधिक होती है। जैसे समय की गति अंतरिक्ष के मुकाबले पृथ्वी पर धीमी होती है। इसका प्रमाण अंतरिक्ष में घुमते उन 31 उपग्रहों से मिलता है जिनसे हमारे G.P.S. सिस्टम काम करते है। इन उपग्रहों में समय की एकदम सटीक गणना करने वाली एटामिक घड़ियां लगी हुई है और ऐसी ही घड़िया इनके कमांड सेन्टर में भी है। पर रोज उपग्रह में लगी घड़ियां पृथ्वी की घड़ियों के मुकाबले 1 सेकंड के खरबवें हिस्से के बराबर आगे बढ़ जाती है। ये G.P.S. के संदर्भ में काफी बड़ा मामला है क्योंकि इससे पूरे सिस्टम में 10 कि.मी. तक का फर्क आ सकता है और ऐसा होता है पृथ्वी के द्रव्यमान के कारण जो समय की चाल को सुस्त बना देती है।

समय पर बुद्ध की व्याख्या भी बहुत हद तक आईनस्टाईन से मिलती है। पर बुद्ध की व्याख्या दाशनिक है जबकि आईनस्टाईन विज्ञान की ठोस धरातल पर खड़े है, मैं चड्डी पहनकर फूल (कमल) खिलाने वालों में से नहीं हूं, पर प्राचीन कणाद् ऋषि के विचारों का आधुनिक क्वांटम फिजिक्स भी समर्थन करता है। जिसकी नवीनतम खोज है वर्महोल- यह ऐसी महीन सुरंग या रास्ता है जो समय या स्थान के बिन्दुओं को आपस में जोड़ने में सक्षम है यदि इसे बड़ा बना लिया जाय तो एक सिरा वर्तमान में होगा तो दुसरा दसवीं शताब्दी, दुसरी शताब्दी या फिर डायनासोटसों के युग में हो सकता है। बस इससे गुजरिये और वहां पहुंच जाईये। परन्तु वर्महोल स्थायी नहीं रह पाते ये सेकंड के खरबवें हिस्से में बनते व रेडियेन से नष्ट हो जाते है।

समय की यात्रा का एक रास्ता गति भी खोलती है। आईनस्टाईन का सिद्धांत कहता है कि जैसे-जैसे हम प्रकाश की गति के समीप पहुंचने लगते हैं वैसे-वैसे समय अपनी गति धीमी करने लगता है। समझने के लिए आप मान ले कि आप प्रका की गति से कुछ कम गति से चलने वाले यान से अंतरिक्ष यात्रा पर गये और हफ्ते भर की यात्रा कर वापस लौट आये तो आप पायेंगे कि इस बीच पृथ्वी पर पांच साल गुजर गये चूंकि यान की रफ्तार अधिक थी इसलिए वहां समय ने अपनी रफ्तार धीमी कर ली थी। इससे भी आश्‍यचर्यजनक तथ्य यह है कि यदि आपका यान प्रका की गति से अधिक पर उड़ पाता तो समय उल्टा चलने लगता यानि आपकी अतीत की यात्रा प्रारम्भ हो जाती पर ऐसा अब तक सम्भव नहीं हो पाया है क्योंकि मानव निर्मित आज तक का सबसे तेज यान अपोलो-10 था जिसकी अधिकतम गति 40000 कि.मी. प्रति घंटा थी। यानि प्रकाश की गति से 2000 गुनी कम इसके अलावा भौतिकी के नियम भी प्रका की गति से अधिक गति पर जाने पर रोक लगाते है। वैज्ञानिकों ने इसका भी हल खोज निकाला है। यान को प्रकाश की गति पर ले जाने के बजाय उसे ऐसी जगह पर क्यों न उड़ाया जाए जहां पर प्रकाश की ही गति कम हो और ऐसी जगह आपको ब्लैक होल के इर्दगिर्द मिल सकती है। क्योंकि अपने भारी भरकम द्रव्यमान के कारण ब्लैक होल प्रकाश व समय की गति को धीमा कर देते है। यदि कोई अंतरिक्ष यान प्रकाश की वास्तविक गति से कम गति पर भी इनकी परिक्रमा करे तो वह अतीत में प्रवेश पा सकता है। इस तरह शायद ब्लैक होल ही समय की यात्रा के प्रवेश द्वार बने।


स्वीट्जरलैंड में चल रहे महाप्रयोग


स्वीट्जरलैंड में इस समय जो महाप्रयोग चल रहे हैं उनसे अब तक तो यह साबित हो चुका है कि किसी भी कण को अधिकतम प्रकाश की गति के 99.99% तक ही गति दी जा सकती है और ज्यों-ज्यों वह कण प्रकाश की गति के नजदीक पहुंचता है त्यों-त्यों उसके लिए समय की रफ्तार कम होने लगती है। इसी का लाभ लेकर वैज्ञानिक ‘पाई मेशन’ व अन्य ईश्वरीय कणों के रहस्य से पर्दा उठने तथा वर्म होल की जीवन अवधि बढ़ाने का प्रयास में है। इन प्रयासों से छोटे-छोटे ब्लैक होल भी पैदा किये जा सकते है। यह बहुत सम्भव है कि इन्हें नियंत्रित कर आगे टाईम मशीन बनाने में उपयोग किया जाए। इस महाप्रयोग में बहुत सी सम्भावनाएं है। शायद इसके सफल होने पर हमें अपने विज्ञान के बहुत से सिद्धांतों को पुनः समायोजित करना पड़े और इतिहास को भी क्योंकि इतिहासकारों के गप्प की कलाई जो खुलने वाली है। 

गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लालए गुलाबी आँखें हों और हाथों में पिचकारी हो।

उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की॥
नजीर अकबराबादी

होली की शुभकामनाओं सहित।

- विवेकराज सिंह 
अकलतरा
समाज कल्‍याण में स्‍नातकोत्‍तर शिक्षा प्राप्‍त विवेकराज सिंह जी स्‍वांत: सुखाय लिखते हैं।अकलतरा, छत्‍तीसगढ़ में इनका माईनिंग का व्‍यवसाय है. 
इस ब्‍लॉग में विवेक राज सिंह जी के पूर्व आलेख -

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सभी चित्र गूगल खोज से साभार

टिप्पणियाँ

  1. समय को लांघ कर ''दिन में होली रात दीवाली, रोज मनाती...''

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  2. बढिया है, शायद कुम्भकर्ण का दिन और रात इसी परिकल्पना को दर्शाता है.

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  3. हा हा हा राहुल सर के कहने के बाद कुछ नही बचा। बहुत अच्छा लिखा है आपने विवेक जी

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  4. समय की सुरंग में मीलों की दूरी मीटर में रह जाती है।

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  5. (१)
    ईश्वर आपके अंतस में उल्लास के रंग और जीवन में अनंत मुस्कराहटों के अवसर भर दे ! रंग पर्व पर मेरी शुभकामनायें स्वीकारने की कृपा करें !
    (२)
    आपका आलेख पढते हुए समय की रफ़्तार धीमी हुई सी लगी और वहां से निकलते ही प्रकाश की गति से पहली टिप्पणी चिपका दी है :)
    (३)
    आप अच्छा और सार्थक लेखन कर रहे हैं !

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  6. आपका आरम्भ पर आ कर समय की यात्रा पढने और कमेन्ट करने के लिए धन्यवाद ......... विवेक राज सिंह, अकलतरा

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  7. बहुत ही रोचक लगा, धन्यवाद

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  8. बहुत ही रोचक लगा, धन्यवाद

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