विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
महसूस करने की जमीन पर थोड़ी-बहुत नमी अब भी शेष है, लेकिन उस पर चिन्ता/चिन्तन के पत्थर इस तरह लदे हैं कि कुछ कहने या लिख पाने की धारा पूर्व की भांति किसी लघु उत्स्फोट के साथ गेसियर की तरह नहीं फूटती वरन इन पत्थरों के बीच किसी उपेक्षित से दरार से रिसने लगती है। पता नहीं यह विस्फोट है या रिसना ... एक लंबे अरसे बाद कुछ दिनों पूर्व गृहग्राम जाना हुआ। लोगों से मिलते-जुलते और दुकानों से भर गई सड़कों के दोनों किनारों के बीच स्मृतियों की पतली होती जा रही गलियों में से गुजरते हुए चौक के पास एक दृश्य पर निगाह रुकी- कुछ वर्ष पूर्व की प्राकृतिक सुंदरता भरी कन्या, पांवों के उपर टंगी मुचड़ी सी साड़ी और बोसीदा हालत के साथ, यौवन के समक्ष प्रकट संक्रमण काल में प्रवेश करते, अपने सद्य गत-सौंदर्य को संभालने के असफल प्रयास में, अपनी 4-5 वर्षीय वर्नाकुलर कान्वेंटगामिनी कन्या की उंगली थामे, सड़क के किनारे के ठेले से कुछ सौदा-सुलुफ कर रही थी ... कुछ पुराने दृश्य याद आए। 7-8 वर्ष पूर्व जब यह गत सौंदर्या सायकल पर कॉलेज के लिए निकलती तब अपने सौंदर्य का अहसास प्रतिपल, पूरे रास्ते उसे जागृत और सज