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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

इप्टा के साथ तीन दिन - विनोद साव


शाम को चार बजे नेहरु हाउस पहुंचा तो सन्नाटा था। जयप्रकाश दिखे, बताए कि ‘सब लोग रैली में शामिल हैं, चलो हम लोग भी चलते हैं।’ इतने में ही विनोद कुमार शुक्ल और सुभाष मिश्र भी आ गए। हम सब रैली में जाने के लिए सुभाषजी की कार में बैठ गए। जयप्रकाश आलोचक हैं और सुभाष मिश्र एक संगठनकर्ता। वहॉं हम दोनों ही विनोद विशुद्ध लेखक थे। बहुधा इस तरह के लेखकों के बीच मुलाकात होने पर एक दूसरे की रचना पढ़े जाने से बात आरंभ होती है। एक विनोद (शुक्ल) ने दूसरे विनोद (साव) को देखते ही लपक कर कहा कि ‘‘अभी अभी ‘वसुधा’ में आपका यात्रा वृत्तांत देखा है। बर्दवान पर है। आप बंगाल कैसे चले गए थे?’’ विनोदजी अपने आसपास के प्रति बड़े जिज्ञासु हो उठते हैं। वे मंचों पर बोलने से बचते हैं। वे मंच के उपर नहीं मंच के नीचे मुखरित होते हैं। उनकी बातें सुनने में रोचक लगती हैं उनकी कहानियों की तरह।

हम आकाश गंगा पहुंच गए थे जहॉं से रैली आरंभ हुई थी। लगभग एक़ किलोमीटर लम्बी रैली थी ‘इप्टा’ यानी भारतीय जन नाट्य संघ की। देश भर के अलग अलग राज्यों से आई हुई इप्टा की नाट्य एवं लोक मंडलियॉं थीं और उनके झूमते, नाचते, गाते कलाकार थे। पुरुष, महिला और बच्चों के समूह थे जो जन-धर्मी गीतों से समां बांध रहे थे। ये सब भिलाई में आयोजित इप्टा के तेरहवें राष्ट्रीय अधिवेशन में आए हुए थे। रैली को लगभग पॉंच किलोमीटर चलकर आकाशगंगा से नेहरु सांस्कृतिक सदन तक पहुंचना था। हम कार से उतरकर रैली के साथ लग गए थे।

रैली में जयप्रकाश का युवकोचित उत्साह देखते बना ‘मैं पूरी रैली को पीछे से आगे तक देख आया हूँ।’ उन्होंने जब कहा तब रैली और उसके जन-धर्मी रुप के प्रति उनका प्रेम दिखा था। रैली में रंग-बिरंगे बैनर और झण्डे थे जो ज्यादातर लाल थे। माक्स और लेनिन जैसी दाढ़ियों वाले बुजुर्ग एक लम्बे अंतराल के बाद भिलाई में दिखे थे। कुल मिलाकर लाल सलाम के जोश से सड़कों और आकाश में गूंज थी। मैंने शुक्ल जी से कहा कि ‘आपको पॉंच किलोमीटर तक चलना पड़ सकता है।’ प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा कि ‘मैं बीस किलोमीटर तक पैदल चल सकता हूँ।’ नेहरु हाउस के करीब आते आते रैली में शामिल लोगों का जोश और बढ़ चुका था। आयोजन स्थल का प्रवेश द्वार सुसज्जित था और चारों ओर रोशनी फेली हुई थी।

प्रवेश द्वार से अंदर पहुंचकर भी लोग नाच रहे थे। इनमें पंजाब से आया समूह था जिन्हें नाचने में महारत हासिल होती है। अचानक एक बड़ी मशाल प्रज्वलित हो उठी जो रिमोट से जलाई गई थी। यह अग्नि-शिखा वाम विचारों की क्रान्ति से जनमी लग रही थी इसके साथ ही लोगों का उत्साह और बढ़ गया था और लोग गगन भेदी नारे लगा रहे थे। नगाड़ों की गूंज थी।

उद्घाटन सत्र आरंभ हो चुका था। सबसे पहले इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ए.के.हंगल का संदेश था। परदे पर अभिनेता हंगल बोल रहे थे। आदमी नहीं आया पर उनके विचारों को आने से कौन रोक सकता है? बढ़ती उम्र और गिरते स्वास्थ्य के बाद भी उनका कामरेडी जोश बरकरार था ‘ये दुनियॉं कभी खत्म नहीं होती। मेरे पहले भी दुनियॉं थी और मेरे बाद भी दुनियॉं होगी - जीवन होगा, मनुष्य होंगे और एक बेहतर दुनियॉं के लिए हमारी लड़ाई होगी।’


दूसरे दिन रमाकांत श्रीवास्तव का मोबाइल आया ‘राजेन्द्र शर्मा आए हैं उनसे मिलो।’ राजेन्द्र शर्मा और महेश कटारे से मुलाकात हुई। राजेन्द्रजी भिलाई कमला प्रसाद के साथ अक्सर आया करते थे। इस बार उन्हें अकेले देखने से कुछ अलग अनुभूति हुई। अब ‘वसुधा’ का भार उन पर और स्वयंप्रकाश पर है। वे अपने साथ ‘वसुधा-89’ के अंक लाए थे। मुझे मेरी लेखकीय प्रति के अतिरिक्त कुछ और प्रतियॉं उन्होंने स्नेह से दीं।’ इसी में छपी है ‘शस्य श्यामला धरती’ जिसके बारे में विनोदकुमार शुक्ल ने बताया था।

मैंने औपचारिकता वश पूछ ही लिया कि ‘चलिये हम सब काफी पीयें।’ काफी नहीं बियर पीयेंगे का संयुक्त नारा सुनाई दिया था और हम कहीं बैठ गए थे एक ऐसी बैठक में जहॉं लेखक मित्र ज्यादा जीवन्तता महसूस करते हैं। मैं बोल पड़ता हूं कि ‘हम कार्यक्रमों में जाते भी इसलिए हैं कि अपने किसी अंतरंग के साथ सुकुन के दो पल बिता सकें और किसी वैचारिक धरातल पर आ सकें।’ राजेन्द्र और महेश ने एक साथ हामी भरी।

भोपाल में ‘मुल्ला रमूजी भवन’ जिनके नाम से है, उनके बारे में कुछ बताइये?’ मैं पूछ पड़ता हूँ। राजेन्द्र बताते हैं कि ‘वे बहुत पुराने शायर थे जिनकी उर्दू आज की उर्दू से भिन्न थी, और उसे गुलाबी उर्दू कहते थे। यह गुलाबी उर्दू आज नहीं है।’ हॅसी और कहकहों के गुलाबीपन के बीच हमारी बातचीत घंटे भर चली। कथाकार महेश कटारे अपनी कद काठी के अनुरुप हॅसते हैं ‘मुझसे पूछ पड़ते हैं कि आपके उपन्यास भोंगपुर-30 कि.मी.में ऐसी ही मजेदार भाषा है क्या?’ राजेन्द्र याद करते हैं कि ‘यहॉं गिलौरी अच्छी मिलती है किसी कोने वाले पान ठेले में।’ हम सिविक सेंटर आते हैं और पान-गिलौरी खाते हैं।’ पान ठेले में लिखा है ‘वेडिंग पान-51 रुपये’। हम सब देखकर हॅसते हैं। राजेन्द्र कहते हैं ‘अब ये पान खाने की उमर नहीं रही।’ वे और महेश दोनों खजूर से बना पान घर ले जाने के लिए रख लेते हैं।’ शाम को सिंघई विला में आमंत्रण है.. पर मैं नहीं पहुंच पाता हूँ।

इप्टा के अधिवेशन का तीसरा और अंतिम दिन कला मंदिर में बीता। ज्यादातर कार्यक्रम नेहरु हाउस में थे। नाटक सब वहीं खेले गए थे। एक नाटक फिल्मों में हास्य व चरित्र अभिनेता के रुप में स्थापित हो चुके कलाकार अंजन श्रीवास्तव का भी था। इंदौर इप्टा के नाटक को भी लोगों ने सराहा था। नेहरु हाउस में चित्र, वाद्ययंत्रों और काष्ठ-शिल्पों व फिल्मों की प्रदर्शनी थी। लेकिन आज अंतिम कार्यक्रम शाम को कलामंदिर में रखा गया था। यहॉं इप्टा के साथ आई हुई लोक मंडलियों की प्रस्तुतियॉं थीं। उनके गीत, संगीत और नृत्यों ने माहौल को रंगीन बना दिया था। विशेषकर छत्तीसगढ़, कश्मीर और असम के कलाकारों ने सबको मोह लिया था। कश्मीर के पश्तो नृत्य को प्रस्तुत करने वाली लड़कियॉं तो हूर की परियॉं लग रही थीं। मानों सीधे जन्नत से उतरकर आई हों।

नव-वर्ष के आगमन की खुशी में किए जाने वाले असम के बीहू नृत्य ने सबको विभोर कर दिया था। झुकी हुई कमर पर हाथ रखकर, अपनी सुराहीदार गर्दन को दॉंयीं ओर से पीछे मोड़कर, मुस्कुराती हुई कमनीय सुन्दर काया वाली नर्तकियों और नर्तकों के समूह ने लगभग चालीस मिनट तक बीहू नृत्य की ऐसी प्रस्तुति दी जैसे लोक संस्कृति की कोई अमर गाथा काव्य-मय हो उठी हो। ऐसा मोहक नृत्य कि वहॉं उपस्थित सभी नृत्य मंडलियॉं उनके साथ कूद पड़ीं और नाचने लगीं। फिर कार्यक्रम उद्घोषिका भी फुदकने लग गईं। मीडियाकर्मी भी मंच पर चढ़ कर कंधे उचकाने लग गए। नव वर्ष 2012 सामने था और उसके स्वागत में बीहू नृत्य का यह मंजर था। उल्लास और उमंग से भरे लोगों का बाहर खड़े आयोजनों के मुख्य संयोजक राजेश श्रीवास्तव और मणिमय मुखर्जी से हाथ मिलाना जारी था। यह कुछ मीन-मेखों के बाद भी एक भव्य आयोजन को संपन्न कर देने की उन्हें बधाई थी।

विनोद साव
20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।

संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
ई मेल -vinod.sao1955@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. अरे विनोद भैया इतना ही लिख देते कि वहाँ शरद कोकस भी थे जो हम लोगों की तस्वीरें ले रहे थे ..। बहरहाल आपके यात्रावृतांत की ही तरह बढ़िया रपट । धन्यवाद ।

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  2. vahan mai tha nahi, lekin aapke is reportaz ne aisa mehsus karaa diya mano mai pratyaksha darshi hun...
    shukriya...

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  3. वाह ..अच्छा आयोजन था ,विस्तारपूर्वक बताने के लिए आभार आपका

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  4. संजीव जी,...सुंदर अच्छे आयोजन को विस्तार से जानकारी देने के लिए आभार,मेरे पोस्ट पर आने के लिए शुक्रिया,स्नेह बनाए रखे,...
    धन्यवाद,....बहुत सुंदर प्रस्तुति,....
    new post--काव्यान्जलि --हमदर्द-

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  5. IPTA;s National Confluence was really a National Confluence of several Indian Cultural Disciplines. Bhilai's intellectual prosperity is gtateful to all guests, took tremendous pains to visit this marvellous steel township and gathered all over the country to rejuvenate. Vinod;s writting proves it. Thanks Dear Vinod Saoji. Ashok Singhai, Bhilai

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  6. लो हम भी शरीक हो लिए इस रेली में कसाव दार वृत्तांत बड़ा ही सजीव प्रस्तुत किया है चित्रों से मेल खाता .

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आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

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