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अक्तूबर, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

श्रीलाल शुक्‍ल की यादें ....

पिछले दिनों हमने यहॉं छत्‍तीसगढ़ के चर्चित साहित्‍यकार श्री विनोद साव जी का एक आलेख प्रकाशित किया था, जब श्रीलाल शुक्‍ल जी एवं अमरकांत जी को ज्ञानपीठ पुरस्‍कार देने की घोषणा हुई थी। उपन्‍यासकार, व्‍यंग्‍यकार व कथाकार श्री विनोद साव जी के श्रीलाल शुक्‍ल जी से अंतरंग संबंध रहे हैं, उन्‍होंनें श्रीलाल जी से अपनी पहली मुलाकात और पहला पड़ाव से संबंधित कुछ जानकारी उस आलेख में लिखा था। आज श्रीलाल शुक्‍ल जी के निधन के समाचार प्राप्‍त होने पर मन द्रवित हो गया, विगत दिनों श्री विनोद साव जी नें हमें श्रीलाल शुक्‍ल जी के घर में खींची गई तीन तस्‍वीर भी भेजी थी किन्‍तु हम उन्‍हें प्रकाशित नहीं कर पाए थे, आज हम श्रीलाल शुक्‍ल जी को श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए कृतज्ञ छत्‍तीसगढ़ की ओर से तीनों चित्र एवं श्री विनोद साव जी के आलेख का वह अंश पुन: प्रकाशित कर रहे हैं-  यह वर्ष 1994 की बात है जब लखनऊ में ‘रागदरबारी’ जैसे कालयजी उपन्यास के लेखक श्रीलाल शुक्ल जी से भेंट हुई। मुझे उन्हीं के हाथों लखनऊ में व्यंग्य के लिए दिया जाने वाला अट्टहास सम्मान भी प्राप्त हुआ था। आयोजन के बाद मैंने उनसे कहा था ‘मैं आपस

कातिक महीना धरम के माया मोर

धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ प्रदेश के लोक जीवन में परम्परा और उत्सवधर्मिता का सीधा संबंध कृषि से है। कृषि प्रधान इस राज्य की जनता सदियों से, धान की बुवाई से लेकर मिजाई तक काम के साथ ही उत्साह व उमंग के बहाने स्वमेव ही ढूंढते रही है, जिसे परम्पराओं नें त्यौहार का नाम दिया है। हम हरेली तिहार से आरंभ करते हुए फसलचक्र के अनुसार खेतों में काम से किंचित विश्राम की अवधि को अपनी सुविधानुसार आठे कन्हैंया, तीजा-पोरा, जस-जेंवारा आदि त्यौहार के रूप में मनाते रहे हैं। ऐसे ही कार्तिक माह में धान के फसल के पकने की अवधि में छत्तीसगढि़या अच्छा और ज्यादा फसल की कामना करता हैं और संपूर्ण कार्तिक मास में पूजा आराधना करते हुए माता लक्ष्मी से अपनी परिश्रम का फल मांगता हैं। छत्तीसगढ में कातिक महीने का महत्व महिलाओं के लिए विशेष होता है पूरे कार्तिक माह भर यहां की महिलायें सूर्योदय के पूर्व नदी नहाने जाती हैं एवं मंदिरों में पूजन करती हैं जिसे कातिक नहाना कहा जाता है। मान्यता है कि कार्तिक माह में प्रात: स्नान के बाद शिवजी में जल चढ़ाने से कुवारी कन्याओं को मनपसंद वर मिलता है। पारंपरिक छत्तीसगढ़ी ब

कविता संग्रह : समुद्र, चॉंद और मैं

गूगल बुक्‍स में छत्‍तीसगढ़ के रचनाकारों के उपलब्‍ध पुस्‍तकों को मित्रों के नजर में लाने के उद्देश्‍य से  हमने पूर्व में   'खुला पुस्‍तकालय' के नाम से ब्‍लॉग बनाया था। जिसमें दर्जनों कहानी संग्रह, आदिम लोक जीवन, थियेटर व नाटक प्रस्‍तुत किया गया है। लेखकों में  मुक्तिबोध, प.प.ला.बख्‍शी, विनोद कुमार शुक्‍ल सहित छत्‍तीसगढ़ के अन्‍य रचनाकारों की कृतियां गूगल बुक से साभार यहां प्रस्‍तुत है।  पिछले दिनों हमने छत्‍तीसगढ़ के वरिष्‍ठ साहित्‍यकार डॉ.परदेशीराम वर्मा जी के छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास आवा को ब्‍लॉग के रूप में प्रस्‍तुत किया और उसके संबंध में यहॉं एक परिचय पोस्‍ट लिखा। पाठकों में श्री रविशंकर श्रीवास्‍तव जी की टिप्‍पणी आई कि छत्‍तीसगढ़ के साहित्‍यकारों की रचनाओं को आनलाईन प्रस्‍तुत करने के लिए अलग-अलग ब्‍लॉग बनाने के बजाए किसी एक ही जगह पर इन्‍हे प्रस्‍तुत किया जाए ताकि पाठकों को एक ही जगह पर छत्‍तीसगढ़ के रचनाकारों की रचनांए सुलभ हो सके। हमने 'खुला पुस्‍तकालय' ब्‍लॉग को गूगल बुक्‍स में उपलब्‍ध छत्‍तीसगढ़ के रचनाकारों की पुस्‍तकों को एक जगह प्रस्‍तुत करने के उद्द

कापी टू अन्‍ना हजारे, रालेगन सिद्धी

आज दोपहर बाद नगर पालिक निगम, भिलाई के भवन अनुज्ञा शाखा कुछ काम से जाना हुआ। कार्यपालन अभियंता सह भवन अधिकारी महोदय के पास बैठा ही था कि एक व्‍यक्ति अंदर आया और अपना परिचय भवन अधिकारी को दिया। भवन अधिकारी और आगंतुक के बीच हो रही चर्चा से यह ज्ञात हुआ कि आगंतुक के भवन में अवैध निर्माण के संबंध में तीन शिकायत निगम को मिला था। आगंतुक नें अधिकारी से कहा कि उसके भवन में कुछ भी अवैध निर्माण नहीं हो रहा है, जो निर्माण हो रहा है उसकी अनुज्ञा प्राप्‍त है जिसे मैं साथ लाया हूँ। आगंतुक नें आगे कहा कि फिर भी आप अपने अभियंता से जांच करवा लीजिये, मेरे भवन में चार किरायेदार हैं जो मेरे दुकान पर कब्‍जा कर लिये हैं ना किराया दे रहे हैं ना दुकान खाली कर रहे हैं और समय बेसमय सूचना के अधिकार के तहत कभी इनकम टैक्‍स से तो कभी सेल्‍स टैक्‍स से और कभी निगम से मेरे व्‍यवसाय की फाईल की कापी मांगते रहते हैं, मैं छोटा सा व्‍यवसायी हूँ साहब परेशान हो गया हूं, मेहनत के पैसे से छ: दुकान बनवाया हूं। भवन अधिकारी उसके अनुरोध पर एक अभियंता को आगंतुक के साथ उस भवन में भेज दिया। मेरे बैठे-बैठे ही लगभग पंद्रह मिनट में अभि

रविशंकर विश्‍वविद्यालय के पाठ्यक्रम में सम्मिलित छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास आवा अब नेट में उपलब्‍ध

पिछले वर्षों से मेरे ब्‍लॉग साथियों की लगातार शिकायत रही है कि मैं इस ब्‍लॉग में नियमित नहीं लिख रहा हॅूं। कई पुराने ब्‍लॉगर साथियों का ये कहना था कि आपने अभी तक अपने पोस्‍टों के अर्धशतक, शतक, पंचशतक आदि इत्‍यादि पुर जाने पर धमाकेदार पोस्‍ट भी नहीं ठेला है। मित्रों के इन बातों से मैं थोड़ा उत्‍साहित होता हूं, क्‍यूंकि मैं पोस्‍ट ठेलने के आंकड़ों का रोकड़-बही रखूं तो लगभग दो महीने में पांच सौ पोस्‍टों का आंकड़ा यूंही पूरा हो जाता है,  किन्‍तु इस आंकड़े में अधिक संख्‍या मेरे द्वारा छत्‍तीसगढ़ के लेखकों के लिए उनके नाम से बनाए गए ब्‍लॉगपोस्‍टों में पब्लिश पोस्‍टों के ही होते हैं, इसी कारण मैं आंकड़ों की मार्केटिंग नहीं कर पाता।  मेरे अजीज़ इस बिना ब्‍लॉग हलचल के किये जा रहे कार्यों को जानते हैं, और मुझे इसके लिये निरंतर प्रोत्‍साहन देते रहते हैं, इसी कारण मैं अपना समय व श्रम इसमें लगा पाता हॅूं। अब्‍लॉगी लोगों का कहना होता है यदि रचना की सीड़ी दे दी है तो ब्‍लॉग में पब्लिश करने में क्‍या समय व श्रम लगेगा, किन्‍तु यह तो ब्‍लॉगर से ही पूछो कितना समय लगता है। अब्‍लॉगर भाईयों के लिये मै

अंग्रेजी विज्ञान उपन्यास “ब्रेव मनटोरा” का हिन्‍दी अनुवाद

हमारे पाठकों को याद होगा कि वर्ष 2008 में छत्‍तीसगढ़ के प्रसिद्ध वनस्‍पति विज्ञानी डॉ.पंकज अवधिया जी के आलेखों को हम नियमित रूप से अपने इस ब्‍लॉग में प्रकाशित कर रहे थे। पंकज जी 'आस्‍था परम्‍परा विश्‍वास और अंधविश्‍वास' पर प्रत्‍येक सप्‍ताह एक आलेख आरंभ में प्रस्‍तुत करते थे, 'आस्‍था परम्‍परा विश्‍वास और अंधविश्‍वास' की 19 कडिंया आप इस ब्‍लॉग में देख सकते हैं। पंकज जी, शोध आलेखों के साथ ही उपन्‍यास भी लिखते हैं यह हमें विगत दिनो ज्ञात हुआ जब इनके अप्रकाशित अंग्रेजी उपन्‍यास ब्रेब मनटोरा (Brave Mantora) का हिन्‍दी अनुवाद इतवारी अखबार में क्रमश: प्रकाशित हुआ है। हमारे अनुरोध पर पंकज जी नें इस उपन्‍यास के कुछ अंशों को आरंभ में प्रकाशित करने की सहमति दी है। ब्रेव मनटोरा के पॉंचवे अध्‍याय के कुछ अंश क्रमश: प्रस्‍तुत हैं :- जैसे ही हेलीकाप्टर का शोर गाँव मे सुनायी दिया बच्चे बाहर भागे। कुछ देर मे उन्होने एक बडे से हेलीकाप्टर को गाँव के ऊपर मँडराते देखा। गाँव वाले समझ गये कि कोई बडी मुसीबत आ गयी है। वे भी बाहर आ गये। गाँव के बाहर एक खाली जगह पर हेलीक

उड़ने को बेताब है यह नया मेहमान

पिछले दिनों मैंनें एक पक्षी के संबंध में एक पोस्‍ट लिखा था और उसके चित्र व वीडियो पब्लिश किया था। वह पक्षी तब छोटा था, धीरे धीरे उसका विकास होता गया और वह अब उड़ने की तैयार कर रहा है। उस पोस्‍ट के पब्लिश करने के बाद टिप्‍पणी में इंडियन विलेज़ नें कहा कि यह कोयल नहीं 'महोक' है, जबकि अभय तिवारी जी नें बज में कहा कि ' इसके भूरे पंख देखकर ऐसा लग रहा है कि कहीं यह ग्रेटर कोकल का बच्चा तो नहीं?' उन्‍होंनें आगे कहा 'आँख उनकी भी लाल ही होती है.. किन्‍तु इसकी आंख काली है, लाल नहीं है।  अभय भाई नें आगे कहा कि यह लिंक देखें: फ्लिकर , एक सज्जन के अनुसार कोयल का बच्चे की तस्वीर यहाँ देखें: ब्‍ लाग पोस्‍ट , फोटो ,   और यहाँ: जे बर्ड्स  । जो भी हो, हम इसके अभी के चित्र यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं, आप देखें और बतावें कि यह कौन सा पक्षी है। साथ ही यह भी बतावें कि क्‍या हम इसे इसके प्राकृतिक वातावरण में पुन: छोड़ सकेंगें या इसे इसी तरह अपने 'कोला बारी' में शरण देना पड़ेगा, किन्‍तु यदि यह अपने प्रकृतिक वातावरण में नहीं गया तो कालोनी में कुत्‍ते व बिल्लिया

अंग्रेजी उपन्‍यास ब्रेब मनटोरा (Brave Mantora) का हिन्‍दी अनुवाद

हमारे पाठकों को याद होगा कि वर्ष 2008 में छत्‍तीसगढ़ के प्रसिद्ध वनस्‍पति विज्ञानी डॉ.पंकज अवधिया जी के आलेखों को हम नियमित रूप से अपने इस ब्‍लॉग में प्रकाशित कर रहे थे। पंकज जी 'आस्‍था परम्‍परा विश्‍वास और अंधविश्‍वास' पर प्रत्‍येक सप्‍ताह एक आलेख आरंभ में प्रस्‍तुत करते थे, 'आस्‍था परम्‍परा विश्‍वास और अंधविश्‍वास' की 19 कडिंया आप इस ब्‍लॉग में देख सकते हैं।  पंकज जी वनस्‍पति विज्ञानी है और पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान के खोज में देशभर में एवं छत्‍तीसगढ़ के वन ग्रामों में लगातार शोध यात्राएं करते रहते है और वहां से प्राप्‍त ज्ञान को इंटरनेट में दस्‍तावेजीकरण करने के लिए अपलोड भी करते रहते हैं। मधुमेह पर वैज्ञानिक रिपोर्ट लिखने के संबंध में पंकज जी का एक साक्षात्‍कार हिन्‍दी वेबसाईट पर यहां उपलब्‍ध है। वर्तमान में पंकज जी मधुमेह से संबंधित रपट अपने साईट में अपलोड कर रहे है वे पारंम्‍परिक चिकित्‍सा के संबंध में अपने वेबसाईट में १५ जीबी की सामग्री डाल चुके हैं, और अब एक दूसरी वेबसाईट में डायबीटीज की रपट अपलोड कर रहे हैं। इस साईट में अभी तक ३६ लाख से अधिक पन्ने

पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन

प्रकृति के चितेरे कवि  महाकवि कालिदास  नें एक पक्षी को एकाधिक बार ' विहंगेषु पंडित ' लिखा और अँगरेजी के प्रसिद्ध कवि वर्ड्‌सवर्थ ने भी इसी पक्षी की आवाज से मोहित होकर कहा ' ओ , कुक्कु शेल आई कॉल दी बर्ड , ऑर , बट अ वान्डरिंग वॉयस ? हॉं.. कोयल ही है यह पक्षी।  कोयल , कोकिल या कुक्कू इसका वैज्ञानिक नाम ' यूडाइनेमिस स्कोलोपेकस स्कोलोपेकस ' है। गांव में और यहॉं शहर में भी रोज इससे दो-चार होते इसके शारिरिक बनावट से वाकिफ़ हूं। नर कोयल का रंग नीलापन लिए काला होता है , इसकी आंखें लाल व पंख पीछे की ओर लंबे होते हैं और मादा तीतर की तरह धब्बेदार चितकबरी भूरी चितली होती है।  मेरे घर के आम पेड पर यह रोज कूकती है पर तब ये दिखाई नहीं देती, और मैं अंतर नहीं कर पाता मादा और नर कोयल के आवाज में। इनके आवाज में अंतर को स्‍पष्‍ट करने की लालसा इसलिये भी रही है कि सुभद्रा कुमारी चौहान कहती है कि ' कोयल यह मिठास क्या तुमने/ अपनी मां से पाई है ? / मां ने ही क्या तुमको मीठी / बोली यह सिखलाई है ?' छत्‍तीसगढ़ के कुछ लोकगीतों में कहा जाता है कि ' कोयली के गरतुर बोली .... '