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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन

प्रकृति के चितेरे कवि महाकवि कालिदास नें एक पक्षी को एकाधिक बार 'विहंगेषु पंडित' लिखा और अँगरेजी के प्रसिद्ध कवि वर्ड्‌सवर्थ ने भी इसी पक्षी की आवाज से मोहित होकर कहा ', कुक्कु शेल आई कॉल दी बर्ड, ऑर, बट अ वान्डरिंग वॉयस? हॉं.. कोयल ही है यह पक्षी।  कोयल, कोकिल या कुक्कू इसका वैज्ञानिक नाम 'यूडाइनेमिस स्कोलोपेकस स्कोलोपेकस' है। गांव में और यहॉं शहर में भी रोज इससे दो-चार होते इसके शारिरिक बनावट से वाकिफ़ हूं। नर कोयल का रंग नीलापन लिए काला होता है, इसकी आंखें लाल व पंख पीछे की ओर लंबे होते हैं और मादा तीतर की तरह धब्बेदार चितकबरी भूरी चितली होती है। 


मेरे घर के आम पेड पर यह रोज कूकती है पर तब ये दिखाई नहीं देती, और मैं अंतर नहीं कर पाता मादा और नर कोयल के आवाज में। इनके आवाज में अंतर को स्‍पष्‍ट करने की लालसा इसलिये भी रही है कि सुभद्रा कुमारी चौहान कहती है कि 'कोयल यह मिठास क्या तुमने/ अपनी मां से पाई है? / मां ने ही क्या तुमको मीठी / बोली यह सिखलाई है?' छत्‍तीसगढ़ के कुछ लोकगीतों में कहा जाता है कि 'कोयली के गरतुर बोली ....'

कोयल पर अनेक कवियों नें कवितायें लिखी, गद्यकारों नें कोयल को अपने प्रकृति चित्रण में शामिल किया और कोयल हमारे साहित्‍य में गहरे से पैठ गई। नीड़ परजीविता के कारण कोयल के व्‍यवहार को अच्‍छा नहीं समझा जाता कहते हैं कि ये अपना घोसला नहीं बनाती और कौओं के घोंसले के अंडों को गिरा कर अपना अंडा दे देती है, कौंए कोयल के बच्चों को अपना बच्‍चा समझकर पालते हैं।  जब कोयल का बच्‍चा उड़ने योग्य हो जाता हैं तो अचानक चकमा उड़ जाता है। कोयल के बच्‍चे के साथ उस घोंसले में यदि कौए के बच्‍चे रहे तो यह सामर्थ होते ही उसे घोंसले के नीचे गिरा डालते हैं। 

अभिज्ञान शाकुंतलम में दुष्यंत के द्वारा नारियों के बुद्वि विवेक के संबंध में चर्चा करते हुए कोयल की इस प्रवृत्ति का कवि के द्वारा उल्‍लेख करना भी हमेशा समझ से परे रहा है। सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता कोयल नें मुझे और दिग्‍भ्रमित कर दिया है 'डाल-डाल पर उड़ना गाना/ जिसने तुम्हें सिखाया है/ सबसे मीठे-मीठे बोलो/ यह भी तुम्हें बताया है।/ बहुत भली हो तुमने मां की/ बात सदा ही है मानी/ इसीलिए तो तुम कहलाती/ हो सब चिड़ियों की रानी।' दुष्‍यंत और सुभ्रदा कुमारी चौहान नें इसकी बोली से परे प्रवृत्ति पर ऐसा कहा है पर लोक मानस में बैठी कोयल के बच्‍चे की धूर्त प्रवृत्ति और साथ वाले बच्‍चों के प्रति विद्वेष की भावना के संबंध में पढ़ते हुए कभी सोंचा नहीं था कि ऐसा भी हो जायेगा कि कोयल का अपरिपक्‍व बच्‍चा ही किसी घोंसले से गिर जायेगा।

पिछले दिनों तेज अंधड़ के साथ बारिश के शांत होने पर भिलाई स्थित मेरे जनकपुरी के एक बड़े जामुन के पेंड के नीचे तीन पक्षी का बच्‍चा दिखा। घर में किसी नें भी इसे विशेष नहीं लिया दूसरे दिन सुबह तीन में से दो बच्‍चे गायब थे और एक बच्‍चा बरसात में भींगा कांपता हुआ टूटे डंगालों बीच दिखा। अपनी दया और व्‍यस्‍तता को देखते हुए चिडि़ये का यह बच्‍चा मुझे दुर्ग स्‍थानांतरित तर दिया गया। जब यह घर में आया तब इसके आकार को देखते हुए हम अनुमान नहीं लगा पा रहे थे कि यह किस पक्षी का बच्‍चा होगा, कभी हमें लगता कि यह चील का बच्‍चा होगा, कभी लगा नीलकंठ का बच्‍चा होगा और कभी कौंआ तो कभी कोयल। अब यह बच्‍चा किसी का भी हो, हमारे आश्रय में आ गया था इस कारण इसकी देखभाल आरंभ हो गई।

ड्रापर में दूध पिलाने पर यह मजे से उसी प्रकार दूध पीने लगा जैसे इसकी मॉं चोंच से दाना खिला रही हो। दो चार दिन के बाद इसे कुछ गाढ़ा खाद्य पदार्थ दाल चांवल और दलिया दिया जाने लगा। हम लोगों के इसके पास जाने पर यह तीखी आवाज में चीं-चूीं करते हुए मुह खोलता और हम इसे एक ड्रापर दूध पिला देते। धीरे-धीरे इसके पंख आने लगे और यह स्‍पष्‍ट हो गया कि यह कोयल है। अब रोज सुबह इसे घर में उपस्थित पेंडों पर एक-आध घंटे पर चढ़ा दिया जाता है और इसे प्रकृति से संबंध बनाने का अभ्‍यास डाला जाता है किन्‍तु पता नहीं क्‍यों यह पेंड में बैठे हुए एक कदम भी नहीं चलता। घर में भी यह कुछ भी चहलकदमी नहीं करता जबकि अब इसके पंख भी पूरे आ गए हैं। हम इसे उडा़ने के लिए लकड़ी में बैठाकर अभ्‍यास भी कराते हैं फिर भी यह उड़ता नहीं बल्कि डरपोक जैसे जोर से लकड़ी को पकड़े रहता है।
रश्मि प्रभाजी सुबह आँख खुलते ही कोयल की आवाज सुनकर गुनगुना उठती हैं, कोयल उनकी स्‍मृतियों में कविता बन के उतरती है और वे कहती हैं - सुनती हूँ कोयल की कूक/ मुझे कोई अपना याद नहीं आता/ मैं तो बस कोयल की मिठास/ और उसके बदलते अंदाज में खो जाती हूँ. उनकी अगली पंक्तियों में कोयल की मीठी आवाज और एक डाली से दूसरे डाली के सफर से रश्मि जी का पूरा दिन मीठा हो जाता है। मैं भी इंतजार कर रहा हूं कि कब यह एक डाली से दूसरे डाली में फुदके और अपने कोयलपन को सिद्ध करते हुए कूके। और मैं गुनगुनाउं ''कोयल बोली दुनिया डोली समझो दिल की बोली.... ' पर कविवर  केदारनाथ अग्रवाल जी 'कुहकी कोयल खड़े पेड़ की देह/ पंचम स्वर में चढ़कर बोला सन्नाटे में नेह' कहते हुए हुए हमें देह, नेह और कोयल के कूक को आपस में मिला देती है। 

मैं सोंच रहा हूँ मेरे घर में बैठे इस कोयल का भी एक ब्‍लॉग बना दूं ताकि इसकी आवाजों को प्रतिदिन रिकार्ड कर पोस्‍ट किया करूंगा पर बार बार रहीम अंकल मना कर रहे हैं, उनका कहना है कि बना भले लो पर पब्लिश अभी मत करना। कारण पूछने पर वे कहते हैं कि परिस्थितियां ऐसी है कि - पावस देखि रहीम मनकोइल साधे मौन। अब दादुर वक्ता भएहम को पूछत कौन। कविवर रहीम नें कहा कि वर्षा ऋतु में कोयल मौन धारण कर लेती है क्योंकि उस समय मेंढक बोलते हैं, और टर्र टर्र की आवाज में कोयल की सुरीली आवाज को कौन सुनेगा?

चलो मान लेते हैं रहीम अंकल की बात को, तब तक इंतजार करें मेरे 1808 वें नये ब्‍लॉग का ......



टिप्पणियाँ

  1. आनंददायक...
    कोयल की मधुर कूक तो शायद नर की ही होती है.

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  2. सुन्दर लेख.... कोयल की प्रवृत्ति पर सार्थक विमर्श भी...
    और बढ़िया विडिओ...
    सादर बधाई...

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  3. मीठी बोली बोलने वालों को बचाना बहुत आवश्यक है।

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  4. वसंतसमये प्राप्त: काक: काक: पिक: पिक:!!

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  5. संजीव जी, आप इस पक्षी को कृपया उड़ाना नहीं क्योंकि उड़ा देने पर यह प्रकृति से सामंजस्य तो बना नहीं पाएगा, उल्टे अन्य पक्षी इसे नोच नोच कर मार डालेंगे। अब यह आपके परिवार का सदस्य बन गया है इसलिए इसे अपने परिवार के साथ ही रखिए।

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  6. आप तो खुशकिस्मत हैं ही. आज की पोस्ट पढ्कर हमें अपनी खुशकिस्मती पर भी कोई शक नहीं रहा। विवरण, चित्र, विसियो, सभी लाजवाब। शुक्रिया!

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  7. मस्त कोयलिया पोसे हस गा। नर होए चाहे मादा, कोयल त कोयले होथे :)

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  8. कोयल पर शरद कोकास की भी एक कविता है

    कोयल चुप है

    गाँव की अमराई में कूकती है कोयल
    चुप हो जाती है अचानक कूकते हुए

    कोयल की चुप्पी में आती है सुनाई
    बंजर खेतों की मिट्टी की सूखी सरसराहट
    किसी किसान की आखरी चीख
    खलिहानों के खालीपन का सन्नाटा
    चरागाहों के पीलेपन का बेबस उजाड़

    बहुत देर की नहीं है यह चुप्पी फिरभी
    इसमें किसी मज़दूर के अपमान का सूनापन है
    एक आवाज़ है यातना की
    घुटन है इतिहास की गुफाओं से आती हुई

    पेड़ के नीचे बैठा है एक बच्चा
    कोरी स्लेट पर लिखते हुए
    आम का “ आ “
    वह जानता है
    अभी कुछ देर में उसका लिखा मिटा दिया जायेगा
    उसके हाथों से जो भाग्य के लिखे को
    अमिट समझता है ।
    - शरद कोकास

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