विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
सुबह-सुबह बंदरों की आवाजों से नींद खुली, मेरी श्रीमती और पुत्र घर से लगे 'कोलाबारी' में बंदरों की टीम को भगाने की कोशिशों में लगे थे। बंदर घर के बाउंड्रीवाल में लाईन से बैठे थे, बाउंड्रीवाल के उस पार सड़क में कुत्ते उन्हें उतरने दे नही रहे थे और इस पार हमारी सेना उन्हें भगाने के लिए डटी थी पर ढीठ बंदर भाग ही नहीं रहे थे। मेरे बाहर आने और हांक लगाने पर ही वे दूसरे घर के छतों से होते हुए भागे। बंदरों की इस टोली में कोई बारह-पंद्रह बंदर होंगें जो पिछले दिसम्बर-जनवरी से हमारे कालोनी में सात-आठ दिनों के अंतराल से लगातार आ रहे हैं। हमारी कालोनी शहर से कुछ दूर है यहां हरियाली ज्यादा है और कालोनी से लगे खेत भी है इस कारण बंदरों की आवाजाही होती रहती है पर लगता है पिछले महीनों से इनकी दखल घरों में बढ़ती जा रही है, हम छतो में या खुले स्थान में खाने का सामान नहीं रख सकते, बड़ी, आम पापड़ आदि सुखाने में ये उसे चट कर जाते हैं। मेरे घर में आम व अमरूद एवं अन्य फलदार पेड़ हैं जो इन बंदरों को ज्यादा ललचाते हैं। मेरी श्रीमती व पुत्र अपनी मेहनत से उगाए फलों को लुटते देखकर इन बंदरों को भगाने