रंगकर्मी संतोष जैन से देशबन्धु के कला प्रतिनिधि की खास बातचीत सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

रंगकर्मी संतोष जैन से देशबन्धु के कला प्रतिनिधि की खास बातचीत

छत्तीसगढ़ी फिल्मों के निर्माता व वरिष्ठ रंगकर्मी संतोष जैन का मानना है छत्तीसगढ़ी फिल्मों को प्रोत्साहित करने राज्य सरकार सब्सिडी दे। तथा महाराष्ट्र की तर्ज पर छत्तीसगढ़ में भी स्थानीय भाषा की फिल्मों को अनिवार्य रूप से प्रदर्शित करने छबिगृह संचालकों को निर्देशित किया जाये। जिस तरह महाराष्ट्र में मराठी फिल्मों को नहीं दिखाने पर टॉकीज के लायसेंस रद्द करने की कार्रवाई की जाती है। छत्तीसगढ़ में भी छत्तीसगढ़ी फिल्मों को बढ़ावा देने अंचल के छबिगृहों में यह व्यवस्था लागू की जाये। श्री जैन ने 'देशबन्धु' के कला प्रतिनिधि से बातचीत में ये बातें कही। उन्होंने ये भी सुझाव दिया कि छालीवुड में बनने वाली फिल्मों का प्रदर्शन दिल्ली दूरदर्शन से किया जाये। क्योंकि छत्तीसगढ़ में सात-आठ जिले ही ऐसे हैं जहां छत्तीसगढ़ी फिल्मों को प्रदर्शित किया जाता है। पूरे भारत में छत्तीसगढ़ी में बनने वाली फिल्मों का प्रचार प्रसार हो इसके लिए दिल्ली दूरदर्शन से यहां की फिल्में प्रसारित हो ऐसा प्रयास किया जाये। इस मुद्दे को छत्तीसगढ़ सिने एवं टीवी एसोसिएशन द्वारा प्रमुखता से उठाया जायेगा।

- छालीवुड में ढर्रे पर बन रही फिल्मों में बदलाव लाने क्या गाइड लाइन बनाने की जरूरत है?
देखिए हमारे यहां छत्तीसगढ़ी फिल्मों का मार्केट छोटा है। इसलिए फिल्म निर्माता जोखिम उठाने से घबराते हैं। फिल्मों में लगा पैसा वापस हो पायेगा कि नहीं ये ज्वलंत प्रश् है। इसलिए ज्यादातर लोग एक ही तरह की फिल्म बनाने की सोचते हैं। पर जैसे-जैसे विस्तार होगा नये-नये विषयों पर छत्तीसगढ़ी फिल्में देखने को मिलेगी। वैसे छत्त्तीसगढ़ी फिल्मों में 'मया' के बाद एक बार फिर निर्माता उत्साहित हैं। कई नई फिल्में आने वाले समय में प्रदर्शित होगी। तीन वर्षों में 50 फिल्में छत्तीसगढ़ी में बनी जिनमें 46 फिल्मों को सेंसर बोर्ड ने पास किया। हमारे छालीवुड में सुलझे हुए फिल्म निर्माताओं की कमी नहीं है। बस थोड़ा प्रोत्साहन चाहिए।

आपने कॅरियर की शुरूआत के बारे में बताएं? रंग कर्म में आपकी दिलचस्पी कब से हैं?
मैंने अपने कॅरियर की शुरूआत रंगकर्मी के रूप में की। नाटकों से लगाव रहा। मैंने 'मुर्गीवाला' नाटक तैयार किया। महाराष्ट्र मंडल में उन दिनों जब मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाटय समारोह का आयोजन होता तब हमारी टीम ने इस नाटक का मंचन किया। जिसे दर्शकों ने काफी सराहा। भिलाई, दुर्ग, राजनांदगांव, रायपुर सहित अन्य स्थानों पर नाटक मंचन करने का मौका मिला। अब तक 25 से 30 नाटकों में हिस्सा ले चुका हूं। फिर दूरदर्शन से जुड़ा और इसके लिए छत्तीसगढ़ी में पहला धारावाहिक 'भोर के तारा' मैंने बनाया। दिल्ली दूरदर्शन से डीडी भारती पर 'पैजानिया' धारावाहिक शीघ्र ही प्रसारित होगा। छत्तीसगढी फ़िल्म 'बंधना' का निर्देशन मैंने किया है जो कि स्थानीय ग्रामीण परिवेश पर आधारित फिल्म है। जल्द ही इसे प्रदर्शित करने की तैयारी की जा रही है। ईरा फिल्म के बैनर तले 'जय बम्लेश्वरी मइया' छत्तीसगढ़ी फिल्म बनी थी। जिसे दर्शकों ने काफी सराहा। कई वृत्त चित्र, टेलीफिल्म का निर्माण भी किया। कोशिश यही रहती है नयेपन के साथ संदेश परक फिल्में दर्शकों तक पहुंचाया जाये। जिसमें छत्तीसगढ़ की कला, संस्कृति समाहित हो तथा स्थानीय लोक कलाकारों की प्रतिभा का भरपूर दोहन हो।

- छत्तीसगढ़ में बेहतर फिल्म निर्माण के लिए किस तरह के प्रयास हो रहे हैं?
इसमें कोई दो मत नहीं है कि छत्तीसगढ़ में फिल्म निर्माण की काफी संभावनाएं हैं। पहले भी फिल्म निर्माण से जुड़े लोगों ने प्रयास किया कि हमारे यहां बेहतर फिल्मों का निर्माण हो। जोगी के शासनकाल में फिल्म विकास निगम का गठन किया गया। परेश बागबाहरा इसके अध्यक्ष रहे। संगठित होकर फिल्म निर्माण से जुड़े कई पहलुओं को जानने की कोशिश हुई। पर दो तीन साल बाद गतिविधियां थम सी गई। एक बार फिर हम संगठित हुए हैं। और ये बड़ी खुशी की बात है कि सिनेमा व टेलीविजन से जुड़े फिल्म निर्माता, कलाकार व तकनीकी सहयोगी, रंगकर्मियों ने मिलकर हाल ही में छत्तीसगढ़ सिने एवं टीवी एसोसिएशन का गठन किया। प्रेम चंद्राकर अध्यक्ष, मनोज वर्मा सचिव बनाये गये। छालीवुड से जुड़े फिल्म निर्माता सतीश जैन के अलावा हमारे एसोसियेशन में कई समर्पित कलाकार भी शामिल हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि अब एक बार फिर हम संगठित होकर अपनी बात शासन तक पहुंचायेंगे। तथा छालीवुड में बेहतर काम हो यह प्रयास होगा। मेरा ये भी मानना है कि छत्तीसगढ़ी को राजभाषा बनाने के साथ ही यहां के साहित्य और फिल्मों को भी पर्याप्त प्रोत्साहन देने की जरूरत है। अभी तक जो प्रोफेशनल काम नहीं हो पाया अब इस इंडस्ट्री में होने की उम्मीद है। हमारे यहां प्रतिभाओं की कमी नहीं बस उन्हें मौका देने की जरूरत है।
मेरे फाईल से समाचार पत्र का पुराना कतरन ... देशबंधु से साभार सहित 

टिप्पणियाँ

  1. आंचलिक फिल्‍मों को सच्‍चा प्रोत्‍साहन दर्शकों से ही मिलेगा.

    जवाब देंहटाएं
  2. आर्थिक नींव पर सांस्कृतिक विरासत स्थापित करना कहीं अनर्थ न कर बैठे।

    जवाब देंहटाएं
  3. Jahaan Rahul Singh jii kii baat mein dam hai wahin Praveen Pandey jii kii aashankaa ki aarthik neenw par saanskritik wiraasat sthaapit karnaa kahin anarth na kar baithe, nirmuul nahin hai. Saawdhaanii baratane kii aawashyakataa hogii.

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भट्ट ब्राह्मण कैसे

यह आलेख प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट जी नें इस ब्‍लॉग में प्रकाशित आलेख ' चारण भाटों की परम्परा और छत्तीसगढ़ के बसदेवा ' की टिप्‍पणी के रूप में लिखा है। इस आलेख में वे विभिन्‍न भ्रांतियों को सप्रमाण एवं तथ्‍यात्‍मक रूप से दूर किया है। सुधी पाठकों के लिए प्रस्‍तुत है टिप्‍पणी के रूप में प्रमोद जी का यह आलेख - लोगों ने फिल्म बाजीराव मस्तानी और जी टीवी का प्रसिद्ध धारावाहिक झांसी की रानी जरूर देखा होगा जो भट्ट ब्राह्मण राजवंश की कहानियों पर आधारित है। फिल्म में बाजीराव पेशवा गर्व से डायलाग मारता है कि मैं जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय हूं। उसी तरह झांसी की रानी में मणिकर्णिका ( रानी के बचपन का नाम) को काशी में गंगा घाट पर पंड़ितों से शास्त्रार्थ करते दिखाया गया है। देखने पर ऐसा नहीं लगता कि यह कैसा राजवंश है जो क्षत्रियों की तरह राज करता है तलवार चलता है और खुद को ब्राह्मण भी कहता है। अचानक यह बात भी मन में उठती होगी कि क्या राजा होना ही गौरव के लिए काफी नहीं था, जो यह राजवंश याचक ब्राह्मणों से सम्मान भी छीनना चाहता है। पर ऊपर की आशंकाएं निराधार हैं वास्तव में यह राजव

क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?

8 . हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास? - पंकज अवधिया प्रस्तावना यहाँ पढे इस सप्ताह का विषय क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है? बैगनी फूलो वाले कंटकारी या भटकटैया को हम सभी अपने घरो के आस-पास या बेकार जमीन मे उगते देखते है पर सफेद फूलो वाले भटकटैया को हम सबने कभी ही देखा हो। मै अपने छात्र जीवन से इस दुर्लभ वनस्पति के विषय मे तरह-तरह की बात सुनता आ रहा हूँ। बाद मे वनस्पतियो पर शोध आरम्भ करने पर मैने पहले इसके अस्तित्व की पुष्टि के लिये पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की। यह पता चला कि ऐसी वनस्पति है पर बहुत मुश्किल से मिलती है। तंत्र क्रियाओ से सम्बन्धित साहित्यो मे भी इसके विषय मे पढा। सभी जगह इसे बहुत महत्व का बताया गया है। सबसे रोचक बात यह लगी कि बहुत से लोग इसके नीचे खजाना गडे होने की बात पर यकीन करते है। आमतौर पर भटकटैया को खरपतवार का दर्जा दिया जाता है पर प्राचीन ग्रंथो मे इसके सभी भागो मे औषधीय गुणो का विस्तार से वर्णन मिलता है। आधुनिक विज्ञ

दे दे बुलउवा राधे को : छत्तीसगढ में फाग 1

दे दे बुलउवा राधे को : छत्‍तीसगढ में फाग संजीव तिवारी छत्तीसगढ में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा लोक मानस के कंठ कठ में तरंगित है । यहां के लोकगीतों में फाग का विशेष महत्व है । भोजली, गौरा व जस गीत जैसे त्यौहारों पर गाये जाने लोक गीतों का अपना अपना महत्व है । समयानुसार यहां की वार्षिक दिनचर्या की झलक इन लोकगीतों में मुखरित होती है जिससे यहां की सामाजिक जीवन को परखा व समझा जा सकता है । वाचिक परंपरा के रूप में सदियों से यहां के किसान-मजदूर फागुन में फाग गीतों को गाते आ रहे हैं जिसमें प्यार है, चुहलबाजी है, शिक्षा है और समसामयिक जीवन का प्रतिबिम्ब भी । उत्साह और उमंग का प्रतीक नगाडा फाग का मुख्य वाद्य है इसके साथ मांदर, टिमकी व मंजीरे का ताल फाग को मादक बनाता है । ऋतुराज बसंत के आते ही छत्‍तीसगढ के गली गली में नगाडे की थाप के साथ राधा कृष्ण के प्रेम प्रसंग भरे गीत जन-जन के मुह से बरबस फूटने लगते हैं । बसंत पंचमी को गांव के बईगा द्वारा होलवार में कुकरी के अंडें को पूज कर कुंआरी बंबूल की लकडी में झंडा बांधकर गडाने से शुरू फाग गीत प्रथम पूज्य गणेश के आवाहन से साथ स्फुटित होता है - गनपति को म