फिल्मों को भेड़ चाल से बचाएं : रामेश्वर वैष्‍णव सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

फिल्मों को भेड़ चाल से बचाएं : रामेश्वर वैष्‍णव

धारदार व्‍यंग्‍य कविताओं और सरस गीतों से कवि सम्‍मेलन के मंचों पर छत्‍तीसगढ़ी भाषा में अपनी दमदार उपस्थिति सतत रूप से दर्ज कराने वाले एवं चंदैनी गोंदा, सोनहा विहान, दौनापान, अरण्य गाथा, गोड़ के धुर्रा, छत्तीसगढ़ी मेघदूत, मयारू भौजी, लेड़गा नं. 1, झन भूलौ मां बाप ला जैसे लोकप्रिय छत्‍तीसगढ़ी फिल्‍मों में गीतों के जरिये अपनी अलग पहचान बनाने वाले गीतकार, कवि रामेश्वर वैष्णव का मानना है कि छालीवुड में सुलझे निर्देशकों की कमी है। भेड़ चाल से बन रही फिल्मों में ज्यादातर फिल्मों में न तो गीत में स्थायी भाव होते हैं न धुन का ठिकाना। चुटकुलेबाजी और जोड़तोड़ से की जा रही रचनाओं का असर श्रोताओं पर स्थायी रूप से नहीं पड़ता। एक छत्तीसगढ़ी फिल्म 'मया' क्या हिट हो गई। कई निर्माता निर्देशक फिल्म बनाने बिना किसी तैयारी के फिल्म निर्माण में जुटे हैं। जिनमें मसालेदार फिल्मों को छत्तीसगढ़ के दर्शकों में परोसने की तैयारी है। ऐसे लोग फिल्म निर्माता के रूप में उभरे हैं जिनका साहित्य, कला व संस्कृति से दूर-दूर तक का संबंध नहीं है। उन्हें व्यवसाय करना है संगीत भले ही न जाने पर रिटर्न चाहते हैं। श्री वैष्णव ने 'देशबन्धु' के कला प्रतिनिधि से खास मुलाकात में ये बातें कहीं थी। हम अपने सुधी पाठकों के लिए उस कतरन की टाईप्‍ड कापी यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं - 

नये गीतकारों के बारे में आपकी राय दें?
सच कहूं तो गीतकार बनने और तुकबंदी करने की ख्वाइश रखने वाले कई मिल जायेंगे। पर गीत लिखना कठिन विधा है। इसमें धुन भी चाहिए, शिल्प, भाव का समावेश रचना में होना चाहिए। नये लोग मेहनत करने से कतराते हैं। एक अच्छा गीतकार वहीं होता है जो अपने संस्कृति की समझ रखता हो। मौलिक रचना को लोग पसंद करते हैं। गीतकार लक्ष्मण मस्तुरिहा से मैं प्रभावित रहा। उनकी सोच से औरों को प्रेरणा लेना चाहिए। पहले जब लोग कविता लिख लेते थे तब मंच खोजते थे। आज का कवि मंच पहले खोजता है बाद में कविता खोजने की बारी आती है। सफलता का सूत्र है गंभीर रचनात्मक लेखन। इसके लिए खूब पढ़ें और लिखने का अभ्यास भी किया जाये।

छालीवुड में आपके हिसाब से सुलझे निर्देशक कौन है?
मैं सतीश जैन को ही सुलझे निर्देशक के रूप में पाता हूं। पर उनके साथ दिक्कत ये है कि वे सारा ध्यान सफलता पर देते हैं। छत्तीसगढ़ की भाषा, संस्कृति के प्रति वे सावधान नहीं है। जबकि मेरे विचार से ऐसा होना चाहिए।

आपने मंच पर कविताएं पढ़ी, व्यंग्य लेखन, फिल्मों के लिए गीत लिखे क्या फिल्म बनाने की इच्छा रखते हैं?
सवाल अच्छा है पर अभी तक किसी ने आफर नहीं दिया। बुध्दि है पर पैसा नहीं। मौका मिले तो जरूर छत्तीसगढ़ी फिल्म बनाऊंगा।

आपने वर्तमान में कौन सी किताबें लिखी है? क्या छत्तीसगढ़ी फिल्मों के लिए गीत लिखे हैं?
छत्तीसगढ़ी फिल्म भांवर के लिए मैंने चार गीत लिखे हैं। क्षमानिधि मिश्रा की ये फिल्म जल्द ही प्रदर्शित होगी। इसके अलावा मयारू भौजी, नयना, झन भूलौ मां बाप ला, लेड़गा नं. 1, गजब दिन भइगे, सीता फिल्म के लिए मैंने गीत तैयार किये हैं। 13 स्क्रिप्ट तैयार है। दस पुस्तकें पाठकों के बीच पहुंचने वाली है। इनमें नमन छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ी में अमरनाथ मरगे हास्य व्यंग्य संग्रह, गजल संकलन 'भुइंया या अकारू' शामिल है। तथा सूर्य नगर की चांदनी, उत्ता धुर्रा, उबुक चुबुक, उजले गीतों की यात्रा, भीड़ की तन्हाई, सबले बढ़िया छत्तीसगढ़िया जल्द प्रकाशित होगी।
 मेरे फाईल से समाचार पत्र का पुराना कतरन ... देशबंधु से साभार सहित 

टिप्पणियाँ

  1. भेड़ का तो नाम चल गया, अधिकतर यही मानव आचरण होता है.

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  2. एक अच्छा गीतकार वह होता है जो अपनी संस्कृति की समझ रखता हो.वास्तव में ऐसे ही गीत अमर हुए हैं जिनमें संस्कृति की महक रही है.हिट होना क्षणिक है,अमर होना दीर्घकालिक.छत्तीसगढ़ी में अमर गीतों के गीतकार आज भी उँगलियों पर गिने जा सकते हैं.श्री रामेश्वर वैष्णव को मैंने कई बार कविसम्मेलन के मंच पर सुना है.इनके गीतों में सरलता और सहजता के साथ संस्कृति की झलक, सुनने वालों को भाव विभोर कर देती है.उत्कृष्ट प्रस्तुति के लिए संजीव जी ,बधाई.

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  3. फिल्में सार्थक हों तभी गुणवत्ता बढ़ेगी। सटीक अवलोकन।

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  4. आज दिनांक ३० अप्रैल को साहित्य निकेतन कार्यशाला ,नई दिल्ली द्वारा वर्ष के श्रेष्ठ क्षेत्रीय लेखन के लिए "सारस्वत-सम्मान"से नवाजे जाने पर संजीव जी को बधाई.

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आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

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