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सितंबर, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

साथियों मिलते हैं एक लम्‍बे ब्रेक के बाद : इस बीच संपर्क का साधन जीमेल होगा.

राम मंदिर मामले का फैसला 30 सितम्‍बर को आ रहा है, इस फैसले के बाद भारत में महाप्रलय आ जायेगा ऐसा टीवी वाले चीख चीख कर प्रचारित कर रहे हैं। हम कल गोरखपुर एक्‍सप्रेस से इलाहाबाद और वहां से गया जाने वाले थे जहां पांच अक्‍टूबर तक रूककर सनातन आस्‍था के अनुसार हमारे मॉं-पिताजी एवं पुरखों का श्राद्ध कर्म करना था किन्‍तु इन टीवी वालों नें हमारे बरसों के परिश्रम को पल भर में ध्‍वस्‍त कर दिया, वे गला फाड-फाड कर कह रहे हैं कि युगों के बाद आ रहा है यह दिन, फलां दिन ये हुआ फलां दिन वो हुआ और कल ये होगा ... टीवी देख-देख कर आज दोपहर से जनकपुरी और अजोध्‍या (स्‍वसुराल और मेरेगांव) से फोन पे फोन आ रहे हैं ... परिवार वालों की जिद है कि टिकट कैंसल करा कर कार्यक्रम रद्द कर दिया जाए और विवश होकर मुझे उनकी जिद माननी पड़ी है. ... .... पूरे देश की उत्‍सुकता हो उस विवाद के फैसले में ..... मेरी तो कतई नहीं ... क्‍योंकि मुझे विश्‍वास है न्‍याय भाईयों के बीच बंटवारा भले करा दे वैमनुष्‍यता नहीं कराती ..... खैर यह तो सामयिक है ... और भी गम है जमाने में, मेरे ढेरों काम पेंडि़ग पड़े हैं. साथियों मिलते हैं एक लम्‍बे

बस्‍तर बैंड : आदिम संगीत के साथ प्रकृति की अनुगूंज

पिछले दिनों इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मानव संग्रहालय द्वारा इंटरनेशनल इंडीजिनस डे के अवसर पर  कर्नाटक के शहर मैसूर में स्थित देश के प्रख्‍यात प्रेक्षागृह एवं आर्ट गैलरी जगमोहन पैलेस में 10 व 11 अगस्‍त को आयोजित इंटरनेशनल इंडीजिनस फेस्टिवल में छत्‍तीसगढ़ के पारंपरिक जनजातीय नृत्‍यों की श्रृंखला जब बस्तर बैंड के रूप में भव्‍य नागरी मंच में प्रस्‍तुत हुआ तो संपूर्ण विश्‍व से आये कला प्रेमी उस प्रदर्शन को देखकर भावविभोर हो उठे। मैसूर के जगमोहन पैलेस के प्रेक्षागृह में बस्‍तर बैंड के कलाकारों ने लगातार दो दिनों तक ऐसा समां बांधा कि रंगायन एवं निरंतर फाउंडेशन जैसे प्रसिद्ध कला केंद्र ने उन्हें 13 अगस्‍त को पुन: प्रस्तुति के लिए बुलाया। इनकी प्रस्तुति की शिखर सम्मान प्राप्त बेलगूर मंडावी ने भी जमकर सराहना की और इस आयोजन के समाचार अंग्रेजी समाचार पत्रों के पन्‍नो पर भी छाए रहे।। तीन साल पहले सिक्किम के जोरथांग माघी मेले में पहली बार किसी बड़े मंच पर बस्तर बैंड को मौका मिला था। तब किसी ने नहीं सोचा था कि इतनी जल्दी इसके कलाकार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर धाक जमाएंगे। इस प्रस्

कठफोडवा और ठेठरी खुरमी : कुछ चित्र

पिछले कुछ दिनों से मेरे घर के बागवानी के लिए सुरक्षित रखे गए स्‍थान में एक सूखी लकड़ी पर एक चिडि़या लगातार चोंच मार रही थी, मेरा पुत्र उसको उत्‍सुकता से देखता था और  उत्‍सुकता के कारण मुझसे उसके संबंध में जानकारी मांगता था। वह सुन्‍दर चिडि़या लकड़ी में छेद करने का प्रयास कर रही थी जिसके कारण यह माना जा सकता था कि वह कठफोड़वा ही होगी किन्‍तु छत्‍तीसगढ़ के गांवों में देखे मेरे आंखों और स्‍मृतियों में समाये कठफोड़वा से उसकी छवि कुछ अलग थी जिसके कारण मैं फैसला नहीं कर पा रहा था कि यह वही चिडि़या है। .. किन्‍तु यह दो-तीन दिनों में ही उसने उस लकड़ी में अपने घुसने लायक जगह बना ली तो यह विश्‍वास पक्‍का हो गया कि यह कठफोड़वा ही है। ... हालांकि उस लकड़ी के सहारे मेरी श्रीमती नें कपड़ा सुखाने का तार बांध रखा है जो अब कमजोर हो चला है फिर भी चिडि़या के लगातार मेहनत और सूखी लकड़ी को चोंच में अपने आकार से बड़ा छेद करने की लगन को देखकर मन प्रसन्‍न हुआ। क्रमिक रूप से उस चिडि़या के प्रयासों को हमारी श्रीमती जी नें कैमरे में कैद किया जिसे हम अपने ब्‍लॉग एल्‍बम में सुरक्षित रख रहे हैं ताकि सनत रहे वक्‍त प

रविवार की छुट्टी और गांव की खुशबू के साथ 'फरा' का स्‍वाद, अहा !

आज रविवार छुट्टी का दिन, वैसे तो हमारे जैसे निजी संस्‍थानों में सेवा दे रहे लोगों के लिए महीने के चार रविवार में से एक दो रविवार को ही पूरी तरह से छुट्टी मिल पाती है नहीं तो 'अर्हनिशं सेवामहे (टेलीफोन विभाग का ध्‍योय वाक्‍य)' मंत्र पढ़ते हुए सेवा देना होता है। पूरे सप्‍ताह लगभग सुबह 9 से रात 9 तक कार्यालयीन कार्यो में व्‍यस्‍त होने के बाद घर का कोई भी काम करने का मन नहीं होता, ऐसे समय में मैं तो 'गृह कारज नाना जंजाला' कह कर अपने आप को झूठी दिलासा दिलाता हूं और रविवार को चाहता हूं कि पूरा समय अपने घर परिवार को दू, ताकि इस दिन इस नाना जंजालों को पूरा कर सकूं। इस दिन मित्रों के फोन भी नहीं अटेंड करता क्‍योंकि 'नहीं' ना कहने के कारण मैं अधिकतम बार रविवार को अपने घर की खुशी बर्बाद कर बैठता हूं। .... पर आज मुझे छुट्टी मिली सुबह कुछ घंटो के लिये और शाम को कुछ घंटो के लिये, शुक्र है, छुट्टी तो मिली, बहुत खुशी की बात है। ............. सुबह इसी खुशी के समय में श्रीमती जी नें छत्‍तीसगढ़ के पारंम्‍परिक व्‍यंजन फरा बनाने की घोषणा कर दी। मेरा छत्‍तीसगढि़या मन प्रफुल्लित हो उठ

निवेदक : ऐसे भी

चित्र श्री हसन जावेद जी के फेसबुक एल्‍बम ' लाल आतंक पर लगे लगाम ' से साभार

ब्‍लॉग पोस्‍टों में दिव्‍यास्‍त्रों का प्रयोग और लक्ष्‍य के बीच नारी विमर्श टाईप कुछ-कुछ

दो दिन पहले की बात है, मैं अपने प्रथम तल में स्थित कार्यालय से नीचे उतरा तो मुझे होटल के स्‍वागतकक्ष में एक लड़की सफेद गमछे में मुह बांधे बैठे दिखी। मैंनें स्‍वाभाविक रूप से उससे संबोधित होते हुए कहा कि 'मैडम यहॉं तो नकाब उतार दीजिए' संभवत: अचानक मेरा अनपेक्षित कथन उसे अटपटा सा लगा किन्‍तु वह मुह में बांधे हुए गमछे को हटा लिया। तब तक मेरे मोबाईल की घंटी बजनी शुरू हो गई थी और मैं स्‍वागतकक्ष से होते हुए बाहर निकल गया। फोन अग्रज ब्‍लॉगर की थी, मेरे द्वारा लगातार दो पोस्‍ट एक ही दिन में पब्लिश कर देने के संबंध में। बात उनके ताजा पोस्‍ट के संबंध में भी हुई और मैं अग्रज के श्रीमुख से हल्‍दी लगे पत्र का वाकया का आनंद स्‍वानुभूति के साथ लेते हुए बाहर बरांडे में घूमता रहा। इस बीच स्‍वागताध्‍यक्ष द्वार के बाहर मेरे फोन बंद होने का इंतजार करता रहा, शायद उसे मुझसे कोई बात करनी रही होगी सो मैने हाथ के इशारे से अंदर जाने को कहा कि फोन के बाद मैं आकर चर्चा करता हूं। इस बीच स्‍वगातकक्ष में बैठी लड़की (वह लड़की नहीं थी लगभग 34-36 साल की महिला थी) चक्‍के लगे लगेज के साथ एक नये स्‍कापियो के पास