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मई, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

कवि गोपाल मिश्र : हिन्‍दी काव्‍य परंपरा की दृष्टि से छत्‍तीसगढ़ के वाल्‍मीकि

हमने अपने पिछले पोस्‍ट में कवि गोपाल मिश्र की कृति खूब तमाशा की पृष्‍टभूमि के संबंध में लिखा है। उस समय भारत में औरंगजेब का शासन काल था एवं देश में औरंगजेब की की दमनकारी नीतियों का दबे स्‍वरो में विरोध भी हो रहा था। खूब तमाशा में कवि की मूल संवेदना स्‍थानीय राजधराने के तथाकथित नियोग की शास्‍त्रीयता से आरंभ हुई है। उन्‍होंनें तत्‍कालीन परिस्थितियों का चित्रण भी उसमें किया, इसी कारण खूब तमाशा में विविध विषयों का प्रतिपादन भी हुआ है। एतिहासिक अन्‍वेषण की दृष्टि से उनका बडा महत्‍व है। स्‍व. श्री लोचनप्रसाद पाण्‍डेय नें अनेक तथ्‍यों की पुष्टि खूब तमाशा के उद्धरणों से की है। इसमें कवि के भौगोलिक ज्ञान का भी परिचय मिलता है। शंका और बतकही की सुगबुगाहट के बीच जब खूब तमाशा से सत्‍य सामने आया तब कवि के राजाश्रय में संकट के बादल घिरने लगे होंगें। इधर राजा अपने आप को अपमानित महसूस करते हुए निराशा के गर्त में जाने लगे होंगें। कवि गोपाल मिश्र नें दरबारियों की कुटिल वक्र दृष्टि से राजा को बचाने एवं राजा के खोए आत्‍म बल को वापस लाने के उद्देश्‍य से खूब तमाशा के तत्‍काल बाद उन्‍होंनें औरंगजेब की अमानवी

कलचुरी काल में राजसत्‍ता का तमाशा : खूब तमाशा

जनवरी 2008 में हमने अपने आरंभ में किस्‍सानुमा छत्‍तीसगढ़ के इतिहास के संबंध में संक्षिप्‍त जानकारी की कड़ी प्रस्‍तुत की थी तब छत्‍तीसगढ़ के इतिहास पर कुछ पुस्‍तकों का अध्‍ययन किया था। हमारी रूचि साहित्‍य में है इस कारण इतिहास के साहित्‍य पक्ष पर हमारा ध्‍यान केन्द्रित रहा। तीन कडियों के सिरीज में हमने एक किस्‍सा सुनाया था उसमें कवि गोपाल मिश्र और ग्रंथ खूब तमाशा का जिक्र आया था। तब से हम कवि गोपाल मिश्र के संबंध में कुछ और जानने और आप लोगों को जनाने के उद्धम में थे। पहले पुन: उस किस्‍से को याद करते हुए आगे बढ़ते हैं। कलचुरी नरेश राजसिंह का कोई औलाद नहीं था राजा एवं उसकी महारानी इसके लिए सदैव चिंतित रहते थे। मॉं बनने की स्‍वाभविक स्त्रियोचित गुण के कारण महारानी राजा की अनुमति के बगैर राज्‍य के विद्वान एवं सौंदर्य से परिपूर्ण ब्राह्मण दीवान से नियोग के द्वारा गर्भवती हो गई और एक पुत्र को जन्‍म दिया, जिसका नामकरण कुंवर विश्‍वनाथ हुआ, समयानुसार कुंवर का विवाह रीवां की राजकुमारी से किया गया। राजा राजसिंह को दासियों के द्वारा बहुत दिनो बाद ज्ञात हुआ कि विश्‍वनाथ नियोग से उत्‍पन्‍न ब्राह्मण द

विलुप्‍त होते लोकगीतों को बचाओ

भरथरी गायिका रेखा देवी जलक्षत्री की मन की व्यथा छत्तीसगढ़ की जानी-मानी लोकगायिका रेखा देवी जलक्षत्री पारम्परिक लोकगीतों की उपेक्षा को लेकर चितिंत हैं। उनका मानना है कि नौसिखीए कलाकारों ने छोटी-छोटी मंडली बनाकर लोकगीतों की जगह फूहड़ गीतों को मंच में परोसना शुरू कर दिया है। सस्ती लोकप्रियता पाने की होड़ में आंचलिक गीतों का स्तर गिराने में कुछ ऐसे लोग भी शामिल हो गये हैं जिनका संगीत से दूर तक रिश्ता नहीं है। एक मुलाकात में भरथरी गायिका रेखादेवी जलक्षत्री ने छत्तीसगढ़ की संस्कृति को जीवंत बनाये रखने की बात कही। ठेठ छत्तीसगढ़ी में उन्होंने कहा कि 'नंदावत हे लोकगीत चेत करव गा'। आगे उन्‍होंनें कहा 'जब तक सांस हे तब तक राजा भरथरी के लोकगाथा सुनाय बर कमी नई करंव।' पांच वर्ष की उम्र से अपने दादा स्व. मेहतर प्रसाद बैद को भरथरी गीत गाते सुनकर उन्हीं की तरह बनने की इच्छा रखने वाली रेखादेवी बताती हैं कि दस वर्ष की उम्र से लोकगीत गा रही हूं। आकाशवाणी रायपुर में विगत वर्षों से लोक कलाकार के रूप में मैंने कई लोकगीत गाये। आज भी मेरे द्वारा गाये जाने वाले गीत श्रोता खूब पसंद करते हैं। खासकर के

ललित शर्मा जी दिल्‍ली में ........

दिल्‍ली से आ रही खबरों के अनुसार ललित शर्मा जी पुरानी दिल्ली रेल्वे स्टेशन पर देखे गए है ......  पाबला जी का मोबाईल आउट आफ कवरेज बता रहा है ....... क्‍या हो रहा है दिल्‍ली में जो दिग्‍गज ब्‍लॉगर दिल्‍ली कूच कर रहे हैं.

मईनखे बर मईनखे के स्वारथ खातिर !

छत्‍तीसगढ़ की वर्तमान परिस्थिति में नक्‍सली हिंसा और इससे निबटने की जुगत लगाते बयानबाज नेताओं की जुगाली ही मुख्‍य मुद्दा है. हर बड़े घटनाओं के बाद समाचार पत्र रंग जाते हैं और बयानबाजी, कमजोरियों, गलतियों का पिटारा खुल जाता है. दो चार दिन दिखावटी मातम मनाने के बाद सत्‍ता फिर उनींदी आंखों में बस्‍तर के विकास के स्‍वप्‍न देखने लगती है, जो सिर्फ स्‍वप्‍न है हकीकत से कोसों  दूर. नक्‍सली जमीनी हकीकत में फिर किसी सड़क को काटकर लैंडमाईन बिछा रहे होते हैं. आदिवासी और जवान जिन्‍दगी के सफर के लिए फिर किसी बस  का इंतजार करते हैं....  स्‍वारथ के गिद्धों की दावत पक्‍की है. नीचे दी गई मेरी छत्‍तीसगढ़ी कविता यद्धपि इस चिंतन से किंचित अलग है किन्‍तु सामयिक है, देखें -    चिनहा कईसे करलाई जथे मोर अंतस हा बारूद के समरथ ले उडाय चारो मुडा छरियाय बोकरा के टूसा कस दिखत मईनखे के लाश ला देख के माछी भिनकत लाश के कूटा मन चारो मुडा सकलाय मईनखे के दुरगति ला देखत मनखे मन ला कहिथे झिन आव झिन आव आज नही त काल तुहूं ला मईनखे बर मईनखे के दुश्मनी के खतिर बनाये बारूद के समरथ ले उडाई जाना हे हाथ मलत अउ सिर

बेकसूरों की हत्याओं पर कलम का मौन दर्ज करेगा इतिहास : कनक तिवारी

बस्तर में सुकमा-दंतेवाड़ा मार्ग पर यात्री बस को बारूदी सुरंग विस्फोट से उड़ाकर नक्सालियों ने निर्दोष नागरिकों सहित 36 लोगों (संख्या परिवर्तनीय है) की निर्मम हत्या कर दी। यह एक माह में तीसरी बड़ी घटना है। राज्य का पुलिस और खुफिया तंत्र सवालों के घेरे में है। पूरी सरकारी मशीनरी बेबस और लाचार तो नहीं लेकिन किंकर्तव्यविमूढ़ ज़रूर नजर आ रही है। केन्द्र सरकार का गृह मंत्रालय भी पसोपेश में नजर आता है। प्रदेश के गृहमंत्री सेना को बुलाने की मांग करते हैं। मुख्यमंत्री और पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) उनसे सहमत नहीं हैं। केद्रीय गृह मंत्री वायु सेना के सीमित उपयोग की बात करते हैं। वायु सेनाध्यक्ष की अपनी ढपली है। म.प्र. के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्वविजय सिंह केद्रीय गृह मंत्री को इस मामले में केवल राज्य सरकार को सहायता देने तक सीमित रहने की सलाह देते हैं। पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी सीमित समय के लिए राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग कर रहे हैं। राज्य कांग्रेस पार्टी विधान सभा का विशेष अधिवेशन बुलाए जाने की मांग कर चुकी है। राज्यपाल अनिर्णय में हैं। प्रधानमंत्री नक्सल वाद को सबसे बड़ा आंतरिक खतर

बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है

कल बस्‍तर में हुए बारूदी विष्‍फोट में क्षत-विक्षत 50 मानव लाशो से टीवी के द्वारा आपका भी सामना हुआ होगा। दिन प्रतिदिन घट रही ऐसी दर्दनाक घटनाओं,  करूणा और आक्रोश के स्‍थानीय हालातों में हिन्‍दी ब्‍लाग जगत में भी रहने का मन नहीं लग रहा है, कुछ दिनों के लिए विदा दोस्‍तों. ....... क्षमा करेंगें, मैं आपसे व्‍यक्तिगत तौर पर मोबाईल वार्ता आदि में व्‍यवहारिकता के कारण कुछ ना बोल पांउ किन्‍तु वर्तमान हालात में मुझे चुप रहने का मन हो रहा है।  आपमें से बहुतों की कुछ ना कुछ अपेक्षाओं को शेष छोड़कर जा रहा हूँ . ...... एक छोटे से अवसादी समय को पार करने के लिए. छत्‍तीसगढ़ के साथियों से पुन: क्षमा सहित ................ अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्यकार, कवि संजीव ठाकुर की कविता में गहरे से डूबता उतराता हुआ - बस्तर की कोयल रोई क्यों ? अपने कोयल होने पर, अपनी कूह-कूह पर बस्तर की कोयल होने पर सनसनाते पेड़ झुरझुराती टहनियां सरसराते पत्ते घने, कुंआरे जंगल, पेड़, वृक्ष, पत्तियां टहनियां सब जड़ हैं, सब शांत हैं, बेहद शर्मसार है | बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है, पत्ति

बस्‍तर के पर्याय : गुलशेर अहमद खॉं ‘शानी’

लेखन की दुनियां में बस्‍तर सदैव लोगों के आर्कषण का केन्‍द्र रहा है। अंग्रेजी और हिन्‍दी में उपलब्‍ध बस्‍तर साहित्‍य के द्वारा संपूर्ण विश्‍व नें बस्‍तर की प्राकृतिक छटा और निच्‍छल आदिवासियों को समझने-बूझने का प्रयास किया है। साठ के दसक में छत्‍तीसगढ़ के इस भूगोल को हिन्‍दी साहित्‍य के क्षितिज पर चर्चित करने वाले अप्रतिम शब्‍द शिल्‍पी गुलशेर अहमद खॉं ‘शानी’ भी ऐसे ही साहित्‍यकार थे। शानी नें तत्‍कालीन बस्‍तर के उपेक्षित यथार्थ को कथा रचनाओं की शक्‍ल दी थी। जवानी की दहलीज में ही शानी के चार उपन्‍यास आठ कथा संग्रह और एक संस्‍मरण का नेशनल बुक ट्रस्‍ट व राजकमल जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशनों से प्रकाशन हुआ था, जिससे शानी की देशव्‍यापी प्रशंसा हुई थी। साहित्‍य के तीनों विधाओं क्रमश: कथा, उपन्‍यास व संस्‍मरण में बस्‍तर का चित्र प्रस्‍तुत करते हुए जो कृतियां उन्‍होंनें लिखीं वे सदैव याद की जायेंगी। शानी की चर्चित कालजयी कृति काला जल शानी के जिन्‍दगी के प्रारंभिक दिनों के और चढ़ती वय के वैयक्तिक दुख दर्द और पारिवारिक गौरव गाथाओं व फजीहतों का किस्‍सा है। शानी का बचपन बहुत तंगी और बेइंतहा अभावो में

छत्‍तीसगढ़ के प्रथम मानवशास्‍त्री - डॉ. इन्‍द्रजीत सिंह

'जनजातीय समुदाय के उत्‍थान और विकास का कार्य ऐसे लोगों के हाथों होना चाहिए, जो उनके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्‍य और सामाजिक व्‍यवस्‍था को पूरी सहानुभूति के साथ समझ सकें.' गोंड जनजाति के आर्थिक जीवन पर शोध करते हुए शोध के गहरे निष्‍कर्ष में डॉ. इन्‍द्रजीत सिंह जी नें अपने शोध ग्रंथ में कहा था। पिछले दिनों पोस्‍ट किए गए मेरे आलेख आनलाईन भारतीय आदिम लोक संसार पोस्‍ट को पढ़ कर पुरातत्‍ववेत्‍ता, संस्‍कृतिविभाग छ.ग.शासन में अधिकारी एवं  सिंहावलोकन  ब्‍लॉग वाले  श्री राहुल सिंह जी  नें हमें जनजातीय जीवन के शोधकर्ता डॉ. श्री  इन्‍द्रजीत सिंह जी के संबंध में महत्‍वपूर्ण जानकारी उपलब्‍ध कराई। यथा - बहुमुखी प्रतिभा और प्रभावशाली व्‍यक्तित्‍व के धनी इन्‍द्रजीत सिंह जी का जन्‍म अकलतरा के सुप्रसिद्ध सिसौदिया परिवार में 28 अप्रैल 1906 को हुआ. अकलतरा में प्रारंभिक शिक्षा के बाद आपने बिलासपुर से 1924 में मैट्रिक की परीक्षा पास की और आगे की शिक्षा इलाहाबाद और कलकत्‍ता के रिपन कालेज से प्राप्‍त की. सन् 1934 में स्‍नातक करने के बाद लखनऊ विश्‍वविद्यालय से अर्थशास्‍त्र में स्‍नातकोत्‍तर उपाधि

क्‍या हमारा यह ब्‍लॉगिंग प्रयास सफल है : अपनो से अपनी बात

हिन्‍दी ब्‍लॉग जगत में जैसे तैसे हमारा चार साल का वक्‍त गुजर रहा है और हम भरसक प्रयत्‍न कर रहे हैं कि इस ब्‍लॉग में छत्‍तीसगढ़ के संबंध में यथेष्‍ठ जानकारी आपको नियमित देते रहें. कुछ मित्रों नें हमारी आलोचना भी की है कि हम अपने इस ब्‍लॉग में अपनी कम दूसरों की लेखनी ज्‍यादा परोसते हैं और अपने आप को ब्‍लॉगर बतलाते हैं। उनका कहना है कि जब अपनी लेखनी नहीं तो काहे का ब्‍लॉगर ऐसे में तो सिर्फ टाईपिस्‍ट ही हुए ना। ठीक है हम टाईपिस्‍ट ही सहीं, हमें मित्रों के इस बात से कोई रंज नहीं क्‍योंकि इस ब्‍लॉग में हमारी समझ के अनुसार छत्‍तीसगढ़ के विषय में दूसरों की लिखी भी प्रकाशित होनी चाहिए इसलिए उसे हम प्रकाशित करते हैं। ब्‍लॉगरी के पीछे मेरा उदेश्‍य स्‍वांत: सुखाय होने के साथ ही भविष्‍य की दस्‍तावेजीकरण भी है, हालांकि इस पर भी मित्रों का कहना है कि गूगल के भरोसे रहकर दस्‍तावेजीकरण की बाते करना एक दिवा स्‍वप्‍न है क्‍योंकि गूगल कभी भी ब्‍लॉगों को बंद कर सकता है, कर दे अपनी बला से, उम्‍मीद पे दुनिया कायम है। जब स्‍काईलेब गिरने वाला था तब भी हमारे किशोर मन में उम्‍मीद थी कि हम जिन्‍दा रहेंगें, और आज त

आनलाईन भारतीय आदिम लोक संसार

हिन्‍दी साहित्‍य की बहुत सी किताबें पीडीएफ फारमेट में पहले से ही उपलब्‍ध हैं जिसके संबंध में समय समय पर साथियों के द्वारा जानकारी प्रदान की जाती रही है. हम सब अब इनका उपयोग भी करने लगे हैं, मेरी रूचि जनजातीय सांस्‍कृति परंपराओं में रही है जिससे संबंधित पुस्‍तकें क्षेत्रीय पुस्‍तकालयों में लगभग दुर्लभ हो गई हैं किन्‍तु डिजिटल लाईब्रेरी योजना नें इस आश को कायम रखने का किंचित प्रयास किया है. पिछले कुछ दिनों से पोस्‍ट लेखन से दूर,  लोककथाओं के आदि संदर्भों की किताबों के नामों की लिस्‍ट मित्रों से जुगाड कर हमने नेट के महासागर में उन्‍हें खंगालने का प्रयास किया तो जो जानकारी हमें उपलब्‍ध हुई वह हम आपके लिये भी प्रस्‍तुत कर रहे हैं. डिजिटल लाईब्रेरी परियोजनाओं के संबंध में लोगों, साहित्‍यकारों व लेखकों की सोंच जैसे भी हो, हमारे जैसे नेटप्रयोक्‍ताओं के लिए यह बडे काम की है. शोध छात्रों के लिए तो यह और भी महत्‍वपूर्ण साधन है, इससे शोध विषय सामाग्री के लिए अलग अलग स्‍थानों के विश्‍वविद्यालयीन व अन्‍य पुस्‍तकालयों में चुनिंदा पुस्‍तकों को पढने के लिए जाकर समय व धन खपाने की अब आवश्‍यकता नहीं रही