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दिसंबर, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

भाई, बिनायक सेन कौन है ?

पिछले कुछ महीनों से लगातार और पिछले दिनों से बार बार पूछ रहा हूँ मैं छत्‍तीसगढ़ के गांवों से , गांवों में रहने वाले रोग ग्रस्‍त, गरीब ग्रामीणों से , बस्‍तर के जंगलों से , जंगल में रहने वाले लंगोटी पहने आदिवासियों से रायपुर के एमजी रोड से , वहॉं के दुकानों में बारह-सोलह घंटे जिल्‍लत से काम करते नौकरों से और भी कई ऐसे लोगों से जिनका सचमुच में सीधा वास्‍ता है जल जंगल और जमीन से कि भाई , बिनायक सेन कौन है ? मुझे किसी नें भी नहीं बतलाया. हैरान हूँ मैं , पूरी दुनिया जानती है उन्‍हें छत्‍तीसगढ़ के शोषित पीडि़त जन-जन के दधीचि के रूप में किन्‍तु दुख है  ? छत्‍तीसगढ़ का जन उसे पहचानता नहीं है फिर क्‍यूं पिछले कुछ महीनों से लगातार और पिछले दिनों से बार बार पूछ रहा हूँ मैं कि भाई , बिनायक सेन कौन है कितने बिनायक हैं यहॉं जिन्‍हें नहीं मिल पाया विदेशी अवार्ड जिन्‍हें नहीं मिल पाया नामी वकील जिन्‍हें नहीं मिल पाया विरोध का मुखर स्‍वर जो आज भी न्‍याय के आश में बंद हैं छत्‍तीसगढ़ व बस्‍तर के जेलों में. मन , मत पूछ किसी से भी कुछ क्‍योंकि कुछ लोग कुछ भी कह देते हैं और कुछ लोग कुछ भी समझ लेते है

'मीराबाई' ममता अहार द्वारा एक पात्रीय संगीत नाटक का मंचन माउन्‍ट आबू में

'नाटय विधा बहुत ही सरल माध्यम है अपनी बात को जन जन तक पहुंचने का । चाहे वह किसी समस्या की बात हो या सामाजिक जन जागरण की बात हो।  सामाजिक विसंगतियां लोगों की पीड़ा को लेखन में ढ़ाल कर हास्य व्यंग्य के माध्यम से अपनी बातों को सहजता से लोगों में हास्य रस का संचार करते हुये विषयों के प्रति हृदय में सुप्त उन संवेदनाओं को जागृत करती है जो समाज को एक अच्छी दिशा दे सकते हों।  'यह विचार  ममता आहार का है जो एक पात्रीय संगीतमय नाटिका 'मीराबाई' की सफल प्रस्‍तुतियों से क्षेत्र में चर्चित हैं।  रायपुर की ममता  बच्चों में छिपी प्रतिभा को सामने लाने उन्हें नृत्य अभिनय की बारीकिया सिखाने का कार्य कर उन्हें मंच प्रदान कर रही हैं ।  ममता की संस्‍था श्रीया आर्ट हर साल नये प्रयोग कर किसी न किसी समस्या पर केंन्द्रित नाटय लेखन कर बच्चों को अभिनय के साथ सामाजिक संचेतना सिखाती है जिसमें बच्चे केवल अभिनय व नृत्य ही नहीं सीखते बल्कि उनमें आपसी भाईचारे की भावना का विकास होता है।  शिविर में आंगिक ,  वाचिक नाटय सिद्वांत ,  रंगमंच का सौन्दर्यशास्त्र ,  स्वर का उपयोग ,  नाट्य सामग्री का निर्माण ,  उनक

बिनायक सेन पर पहला फैसला : सुनील कुमार

डॉ. बिनायक सेन पर छत्‍तीसगढ़ के रायपुर ट्रायल कोर्ट का सौ पृष्‍टीय फैसला आ गया है इसके बाद से देश-विदेश के पत्र-पत्रिकाओं व इंटरनेट पर इस फैसले के संबंध में एवं  डॉ. बिनायक सेन के मानवता के क्षेत्र में योगदान के संबंध में लगातार आलेख प्रकाशित हो रहे हैं, स्‍थानीय समाचार पत्रों में भी विशेष संपादकीय लिखे गए हैं। इसी क्रम में दैनिक छत्‍तीसगढ़ के संपादक श्री सुनील कुमार जी का आलेख  आज के  छत्‍तीसगढ़ में पढ़ने को मिला  जिसे हम अपने पाठकों के लिए यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं। श्री सुनील कुमार जी इन दिनों देश से बाहर गाजा की राह पर है, सहमति-असहमति के बीच प्रस्‍तुत है उनका आलेख बिनायक सेन पर पहला फैसला :-   डॉ. बिनायक सेन को मिली उम्र कैद ने देश और दुनिया के बहुत से सामाजिक आंदोलनकारियों को हिला कर रख दिया है और छत्‍तीसगढ़ के एक जिले की अदालत के इस फैसले को बहुत से कानूनी जानकार खारिज ही कर दे रहे हैं कि यह एक कमजोर फैसला है। करीब सौ पेज के इस फैसले को बुलवाकर पढऩे में वक्‍त लगा , और इसलिए मैं इन दिनों देश से बाहर रहते हुए इस पर आनन-फानन कुछ लिख नहीं पाया। एशिया से गाजा जा रहे कारवां में पिछ

बया में प्रकाशित कैलाश वानखेड़े की कहानी - घंटी

घंटी काका थकते नही कभी. थकान को काका के चेहरे पर कभी सवार होते हुए नहीं देखा. किसी ने भी. बरसों बीत गए इस तरह हंसता मुस्कुराता चेहरा देखते हुए. मान लिया गया कि तकलीफ नहीं है काका को. भरा - पूरा परिवार और बच्चों की नौकरी के बाद बचता क्या है जीवन में. सुन सुनकर सच ही मान लिया इसे काका ने. लेकिन जीवन में सुबह आज उस वक्त नहीं आई जिस वक्त रोज आती है. नींद खुलती है और सुबह खड़ी दिखती है. आज रोशनी नहीं दिखी , दिखा अंधियारा. आज 26 जनवरी है. झण्डा फहराने का दिन. आज काका को पूरी नींद चाहिए लेकिन नहीं मिली. सुबह मिले नी मिले , नौकरी तो करनी है के साथ ही बिस्तर छोड़ा और सफेद कपडों पर इस्तरी करवाने धोबी के घर चल पडे़ , मुंह धोये बिना. कपड़ों की इस्तरी करवाने के इरादे पर थकान सवार होने लगी. सचमुच आज थक गये काका लेकिन मानने को तैयार नहीं. इस तरह तो काका हमेशा ही काम करते है , हॅंसते हुए , बतियाते हुए लेकिन कल हंसी नहीं थी. काम था. बोझ भरे बोल थे जो पूरे शरीर को छलनी कर गये. थकान भरे मन से उसी शरीर को घर से लेकर दफ्तर आये. सफाई की और पानी हैण्डपम्प से निकालते-निकालते आखिरकर चेहरे की रौनक निकल गई. आज