कठफोडवा और ठेठरी खुरमी : कुछ चित्र सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

कठफोडवा और ठेठरी खुरमी : कुछ चित्र

पिछले कुछ दिनों से मेरे घर के बागवानी के लिए सुरक्षित रखे गए स्‍थान में एक सूखी लकड़ी पर एक चिडि़या लगातार चोंच मार रही थी, मेरा पुत्र उसको उत्‍सुकता से देखता था और  उत्‍सुकता के कारण मुझसे उसके संबंध में जानकारी मांगता था। वह सुन्‍दर चिडि़या लकड़ी में छेद करने का प्रयास कर रही थी जिसके कारण यह माना जा सकता था कि वह कठफोड़वा ही होगी किन्‍तु छत्‍तीसगढ़ के गांवों में देखे मेरे आंखों और स्‍मृतियों में समाये कठफोड़वा से उसकी छवि कुछ अलग थी जिसके कारण मैं फैसला नहीं कर पा रहा था कि यह वही चिडि़या है। .. किन्‍तु यह दो-तीन दिनों में ही उसने उस लकड़ी में अपने घुसने लायक जगह बना ली तो यह विश्‍वास पक्‍का हो गया कि यह कठफोड़वा ही है। ... हालांकि उस लकड़ी के सहारे मेरी श्रीमती नें कपड़ा सुखाने का तार बांध रखा है जो अब कमजोर हो चला है फिर भी चिडि़या के लगातार मेहनत और सूखी लकड़ी को चोंच में अपने आकार से बड़ा छेद करने की लगन को देखकर मन प्रसन्‍न हुआ। क्रमिक रूप से उस चिडि़या के प्रयासों को हमारी श्रीमती जी नें कैमरे में कैद किया जिसे हम अपने ब्‍लॉग एल्‍बम में सुरक्षित रख रहे हैं ताकि सनत रहे वक्‍त पर काम आवे .......





हमारी श्रीमती ने इन चित्रों के साथ हमारे लिए छत्‍तीसगढ़ के पारंपरिक व्‍यंजन ठेठरी-खुरमी भी पेश किया, जिसे पाठकों और तिजहारिनों को ललचाने के लिए हम यहां लगा रहे हैं.
आप सभी का स्‍वागत है, ठेठरी-खुरमी मिलने की गारंटी ... टिल स्‍टाक.

टिप्पणियाँ

  1. कई नमूना, कई जात के कठफोड़वा होथे. बेरा उगत ले सांझ तक ठक्‍-ठक सुनात रथे, खासकर गरमी चालू होत दिन मं, ते हर अयी चिराई के आय. ए हर दखथिे कम, सुनाथे जादा. अउ एकर माथा म तिलक, सेंदुर बुकाए कस लाल रथे. e-thethari, khurami भी मजेदार हय.

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत अच्छी प्रस्तुति।

    हिन्दी, भाषा के रूप में एक सामाजिक संस्था है, संस्कृति के रूप में सामाजिक प्रतीक और साहित्य के रूप में एक जातीय परंपरा है।

    हिन्दी का विस्तार-मशीनी अनुवाद प्रक्रिया, राजभाषा हिन्दी पर रेखा श्रीवास्तव की प्रस्तुति, पधारें

    जवाब देंहटाएं
  3. बने हे ठेठरी-खुरमी हां। बने सवाद ले भैया।
    भौजी तीजा नई गे हे का? अइसने लगत हे मोला

    जोहार

    जवाब देंहटाएं
  4. इस पक्षी के कृत्य देखकर तो साफ़ लगता है की ये कठफोड़वा ही है. सुन्दर चित्र. हाँ आपकी ठेठरी देख कर बिहार के छट पर्व पर बनाने वाले ठेकुआ की याद आ गयी.

    जवाब देंहटाएं
  5. तस्वीरें बहुत अच्छी हैं मगर ये ठेठरी-खुरमी की पाक विधी भी भाभी जी से पूछ कर लिखते तो अच्छा था। धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  6. कतका बढ़िया पोस्ट डारे हस भईया. मेहनत हा रंग लानबेच करथे. चिरई अउ भौजी दूनू के मेहनत के रंग हा छिटके हवे ए पोस्ट म. बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  7. सुंदर चित्र : बहुत दिनों बाद कठफोड़वा दिखा. धन्यवाद्

    जवाब देंहटाएं
  8. ham hu ha abhicche Thethri kkhurmi khaa ke bas aapke ye post la padhat han...

    bane laagis jhammo photo

    जवाब देंहटाएं
  9. शुक्र है कि पानी मुंह में ही आता है हाथों में नहीं वर्ना टिप्पणी करना मुश्किल होता :)

    वर्षों बाद कठफोडवा देखा है ! सोच रहा हूं कि उसे आपका घर क्यों भाया ?

    जवाब देंहटाएं
  10. ठेठरी-खुरमी का स्वाद आ गया......


    तस्वीरें बढ़िया रहीं.

    जवाब देंहटाएं
  11. .
    पहली बार देखा कठफोड़वा । और स्वादिष्ट व्यंजन ने तो मज़ा ला दिया। कभी आपके घर आना हुआ तो भाभी जी के हाथ के फरे खाऊँगी ।

    इस सुस्वादु पोस्ट के लिए आपका आभार।
    .

    जवाब देंहटाएं
  12. ये दे खवईया आगे
    ले अब रांध-बने जेवन खवा।

    हा हा हा

    जोहार ले

    जवाब देंहटाएं
  13. donon hi vynjanon ke leye bhabhi ko badhai...hamari or se bhabhee jee ko teez kee badhayon ke saath charn sprsh karna..

    जवाब देंहटाएं
  14. जय हो महराज अउ महराजिन के । गजानन महराज ए बछर ल सुघर राखे । गाड़ा-गाड़ा बधई ।

    जवाब देंहटाएं
  15. भगवान श्री गणेश आपको एवं आपके परिवार को सुख-स्मृद्धि प्रदान करें! गणेश चतुर्थी की शुभकामनायें!
    बहुत सुन्दर तस्वीरें है! इतना स्वादिष्ट खाना देखकर मुँह में पानी आ गया!

    जवाब देंहटाएं
  16. भैया परनाम,
    आप मन हा पाछु के पोस्ट में फरा देखा के ललचा दे रहेव अउ ऐ खानी ठेठरी खुरमी.......कठफोड़वा के बिसे माँ भी आप मन ले बने जानकारी मिलिस हवे फोटू माँ ही सही फेर कठफोड़वा देखे बर त मिलिस............आप मन ला गणेश चतुर्थी के बधाई अउ गाडा गाडा जोहार !!

    जवाब देंहटाएं
  17. एक साल तक छत्तीसगढ़ में रहा हूँ बचपन में। उम्र थी लगभग 9-10 वर्ष की। पर इन व्यंजनों की याद नहीं है। लेकिन हैं ये ललचाने वाले।
    यहाँ इन्दौर में तो पक्षी, इंसानों के डर से गायब हो गए हैं।

    जवाब देंहटाएं
  18. देर से देखा ..अब तक तो स्टॉक समाप्त हो गया होगा । अगली बार कब बनेगा फोन करके बताना ।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भट्ट ब्राह्मण कैसे

यह आलेख प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट जी नें इस ब्‍लॉग में प्रकाशित आलेख ' चारण भाटों की परम्परा और छत्तीसगढ़ के बसदेवा ' की टिप्‍पणी के रूप में लिखा है। इस आलेख में वे विभिन्‍न भ्रांतियों को सप्रमाण एवं तथ्‍यात्‍मक रूप से दूर किया है। सुधी पाठकों के लिए प्रस्‍तुत है टिप्‍पणी के रूप में प्रमोद जी का यह आलेख - लोगों ने फिल्म बाजीराव मस्तानी और जी टीवी का प्रसिद्ध धारावाहिक झांसी की रानी जरूर देखा होगा जो भट्ट ब्राह्मण राजवंश की कहानियों पर आधारित है। फिल्म में बाजीराव पेशवा गर्व से डायलाग मारता है कि मैं जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय हूं। उसी तरह झांसी की रानी में मणिकर्णिका ( रानी के बचपन का नाम) को काशी में गंगा घाट पर पंड़ितों से शास्त्रार्थ करते दिखाया गया है। देखने पर ऐसा नहीं लगता कि यह कैसा राजवंश है जो क्षत्रियों की तरह राज करता है तलवार चलता है और खुद को ब्राह्मण भी कहता है। अचानक यह बात भी मन में उठती होगी कि क्या राजा होना ही गौरव के लिए काफी नहीं था, जो यह राजवंश याचक ब्राह्मणों से सम्मान भी छीनना चाहता है। पर ऊपर की आशंकाएं निराधार हैं वास्तव में यह राजव

क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?

8 . हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास? - पंकज अवधिया प्रस्तावना यहाँ पढे इस सप्ताह का विषय क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है? बैगनी फूलो वाले कंटकारी या भटकटैया को हम सभी अपने घरो के आस-पास या बेकार जमीन मे उगते देखते है पर सफेद फूलो वाले भटकटैया को हम सबने कभी ही देखा हो। मै अपने छात्र जीवन से इस दुर्लभ वनस्पति के विषय मे तरह-तरह की बात सुनता आ रहा हूँ। बाद मे वनस्पतियो पर शोध आरम्भ करने पर मैने पहले इसके अस्तित्व की पुष्टि के लिये पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की। यह पता चला कि ऐसी वनस्पति है पर बहुत मुश्किल से मिलती है। तंत्र क्रियाओ से सम्बन्धित साहित्यो मे भी इसके विषय मे पढा। सभी जगह इसे बहुत महत्व का बताया गया है। सबसे रोचक बात यह लगी कि बहुत से लोग इसके नीचे खजाना गडे होने की बात पर यकीन करते है। आमतौर पर भटकटैया को खरपतवार का दर्जा दिया जाता है पर प्राचीन ग्रंथो मे इसके सभी भागो मे औषधीय गुणो का विस्तार से वर्णन मिलता है। आधुनिक विज्ञ

दे दे बुलउवा राधे को : छत्तीसगढ में फाग 1

दे दे बुलउवा राधे को : छत्‍तीसगढ में फाग संजीव तिवारी छत्तीसगढ में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा लोक मानस के कंठ कठ में तरंगित है । यहां के लोकगीतों में फाग का विशेष महत्व है । भोजली, गौरा व जस गीत जैसे त्यौहारों पर गाये जाने लोक गीतों का अपना अपना महत्व है । समयानुसार यहां की वार्षिक दिनचर्या की झलक इन लोकगीतों में मुखरित होती है जिससे यहां की सामाजिक जीवन को परखा व समझा जा सकता है । वाचिक परंपरा के रूप में सदियों से यहां के किसान-मजदूर फागुन में फाग गीतों को गाते आ रहे हैं जिसमें प्यार है, चुहलबाजी है, शिक्षा है और समसामयिक जीवन का प्रतिबिम्ब भी । उत्साह और उमंग का प्रतीक नगाडा फाग का मुख्य वाद्य है इसके साथ मांदर, टिमकी व मंजीरे का ताल फाग को मादक बनाता है । ऋतुराज बसंत के आते ही छत्‍तीसगढ के गली गली में नगाडे की थाप के साथ राधा कृष्ण के प्रेम प्रसंग भरे गीत जन-जन के मुह से बरबस फूटने लगते हैं । बसंत पंचमी को गांव के बईगा द्वारा होलवार में कुकरी के अंडें को पूज कर कुंआरी बंबूल की लकडी में झंडा बांधकर गडाने से शुरू फाग गीत प्रथम पूज्य गणेश के आवाहन से साथ स्फुटित होता है - गनपति को म