रौशनी में आदिम जिन्दगी : भाग 4 (कहानी : संजीव तिवारी) सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

रौशनी में आदिम जिन्दगी : भाग 4 (कहानी : संजीव तिवारी)

रौशनी में आदिम जिन्दगी : भाग 1
रौशनी में आदिम जिन्दगी : भाग 2
रौशनी में आदिम जिन्दगी : भाग 3

इसके बाद लगभग हर दो तीन दिनों के अंतराल में कतमा अपनी टीम के साथ रात में टोला आता और माडो के साथ रात बिताता और चला जाता था। अब टोले में सभी जानने लगे थे कि माडो कतमा कमांडर की है। पुलिस सालों से इधर नहीं आई थी, कोई बाहरी आदमी भी बरसों से इधर नहीं आया था। टोले के लोग एक अलग ही दुनियां में जी रहे थे जिसे पढे लिखे लोग आदिम दुनिया कहते हैं। पर यह क्रम ज्यादा दिन तक नहीं चल सका, टोले के बाजू टोले वाले कुछ लोगों नें पुलिस तक यह बात पहुचा दी कि दलम अब नदी पार के टोलों में फिर सक्रिय हो गई है और यदि इन्हें नहीं रोका गया तो ट्रेनिंग कैम्प फिर खुल जायेंगें। फिर क्या था पुलिस की टीम आई लोग जानवरों की तरह पीटे गये और टोले की जनसंख्या फिर कम हो गई। अब पुलिस हर तीसरे दिन आने लगी उनके साथ कुछ अपने लोगों के कद काठी वाले लडके भी सादी वर्दी में बंदूक थामे आने लगे और टोले में रूककर मुर्गी भात का दावत उडाने लगे। जब पुलिस जाती तब दलम के लोग आ धमकते और जिसके घर में पुलिस नें दावत उडाई थी उसे धमकाते पीटते। लोगों को दोनों तरफ का खौफ था, एक तरफ कुंआ दूसरी तरफ खाई।
ऐसे ही दुविधा की स्थितियों में कई दिनों तक, माडो टोले में आये दलम के हर सदस्यों से बार बार पूछती कि कतमा कहां है पर कोई उसे संतुष्टिजनक जवाब नहीं मिल पा रहा था। वह कतमा के लिए तड़फ रही थी, एक दिन माडो नें एक महिला दलम सदस्या को कतमा के संबंध में फिर पूछा। बंदूक को कंधे से उतार कर जमीन में टिकाते हुए वह माडो को उपर से नीचे तक देखने लगी। ‘. . . तो तुम ही हो . . .’ माडो महिला दलम के सदस्या की बात को समझ नहीं पाई, प्रश्नवाचक निगाहों से माडो उस महिला को ताकने लगी। ‘तुम्हारी दीवानगी नें कतमा को पागल बना दिया था, रोज रोज बहाना बनाकर यहां आ जाता था और अपने साथियों को भी खतरे में डालता था। मौत से डरने लगा था कतमा ..., जीने का बहाना ढूंढने लगा था, पिछले माह दलम नें एक सभा में मुक्ति दे दी।‘ माडो नें सुना तो उसे काठ मार गया, घंटों वह वहां खडी रही, दलम के लोग आगे बढ गए, जंगल के बीच उनके बूटों से रौंदे गए घांसों में दूर तक एक लकीर सी खिंच गई थी।
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इस बात को महीनों बीत गए हैं, माडो नें कतमा के संबंध में सोंचना नहीं छोडा है। खबर गर्म है कि पास के गांव में सप्ताह में एक दिन लगने वाला हाट पुलिस और दलम के रोज रोज के झूमाझटकी व फायरिंग के कारण बंद करवा दिया गया है। अब न चार-चिरौंजी बिकते हैं न नमक तेल मिलता है, टोले के लोग महीनों में एकाध बार नदी पार करके आंध्र पंदेश की सीमा में जाकर वहां से नमक तेल और अन्य आवश्यक सामाग्री खरीद कर लाते और जंगल से एकत्रित हर्रा बहेरा बेहद कम भाव में बेंचते हैं। बाकी का दैनिक जीवन चिडियों, खरगोशों व मछलियों के शिकार से व कुछेक जमीन में कोदो कुटकी की उपज से चल रहा है। पुलिस की टीम जब टोले में आती है तब टोले के निवासी भागकर जंगल में छुप जाते है यदि वे ऐसा नहीं करते तो बेवजह पुलिस से मार खाते हैं। पुलिस उनसे दलम के लोगों के संबंध में पूछती, नहीं बताने या बताने दोनों पर यातनायें देती जिससे बचने का एकमात्र उपाय जंगल में जाकर छुप जाना था। जल, जंगल और जमीन की यह तथाकथित लडाई व्यक्तिगत लडाई बन रही थी। दलम में या पुलिस के एसपीओ दल में शामिल होने वाले अधिकांश स्थानीय निवासी, पुलिस व दलम के मुडभेडों में या उनसे संबंधित पूछताछ या फिर शक की वजह से मार दिये गये, चारो तरफ अपने परिजनों की मृत्यु का बदला लेने या फिर किसी अत्याचार व बलात्कार का बदला लेने की जीजीविषा लिये लोग ही थे। दोनों तरफ के मनुष्यों में नफरत किसी हिंसक जानवरों की तरह सुलग रही थी।
जंगल में अब दिन बदल रहा है और अब पुलिस उनके ही लोगों में से कुछ युवकों को विशेष पुलिस का दर्जा देकर, बंदूकें देकर जंगल में धीरे-धीरे पैठ बढाने लगी है। ये रंगरूट जंगल और यहां की परम्पराओं से वाकिफ इसी जंगल में पैदा हुए और पले बढे थे। सरकार नें उन्हें सामाजिक दर्जे के साथ ही दो हजार मासिक वेतन भी तय कर लिया था इसलिए अधिकाधिक जवान एसपीओ बन रहे थे और दलम के कब्जे वाले क्षेत्रों को पुलिस इन एसपीओ की मदद से लगातार ध्वस्त करती जा रही थी। पुलिस और दलम के बीच वैमनुष्यता से उपजे खीझ का असर गावों और टोलों के निरीह निवासियों पर पड रहा था। हाट-बाजार बंद होने से इनकी आर्थिक स्थिति चरमरा गई थी, झोपडी में इकत्रित जंगली उत्पाद सड रहे थे और इन्हें सीमित संसाधनों पर गुजारा करना पड रहा था।
माडो नें यह भी सुना था कि दलम के लोगों की सोंच में अब बदलाव आ गया है और वे बेवजह गांव-टोले वालों को मारने लगे हैं। इस हिंसा के विरोध में कुछ गांव टोले अब उठ खडे हुए हैं। दमन के विरोध में गांव टोले के लोग जुडूम का अलख जगा रहे हैं, सब एकजुट होकर किसी एक जगह रहने लगे हैं, गांव के गांव खाली कराए जा रहे हैं। जो नहीं जा रहे हैं उनपर जोर जबरदस्ती की जा रही है। वह सोंचती है, क्यूं नहीं जा रहे हैं लोग या क्यूं जा रहे हैं लोग। एसपीओ बनगए उसके मंद का पुराना ग्राहक बतलाता है कि शिविर में मुफ्त चांवल बंटता है, छप्पर छाने के लिए सामान मिलता है और रोजी मंजूरी भी मिलती है। कभी वह सोंचती क्यूं कोई मुफ्त में ये सब दे रहा है। एसपीओ बतलाता कि शासन दे रही है, कौन है यह शासन, इतने दिनो तक कहां थी यह शासन, आज कहां से आ गई यह, क्यूं आ गई, हम तो जैसे तैसे जी ही रहे थे। बहुत प्रयास करने के बाद भी माडो को ये बातें पल्ले नहीं पडती।
दस घर के उसके टोले में पांच पुरूष और बारह महिलायें व सात बच्चे ही बचे थे। उस एसपीओ नें उस दिन सभी को समझाया उसके साथ आस-पास के टोलों के बहुत से लोग थे। इस टोले को छोडकर शिविर में चले जाओ, पर नदी के किनारे मरने और दफन होने की इच्छा के चलते लोग नहीं जाना चाहते, नदी किनारे उनकी कई पीढियां मृत्यु के बाद कलकल करती नदी के तट में अनंत शांति में विश्राम कर रहे हैं वहीं उनको भी समा जाना है उनकी और कोई अभिलाषा नहीं है। बरसों से कतमा के इंतजार में पथराई माडो की आंखें भी नदी के उस पार ताक रही है, उसे कतमा का यहीं इंतजार करना है, ना जाने कब कतमा आ जाए। ‘... पर वह तो मर चुका है।‘ मांडो के अंदर से आवाज उठती है। ‘नहीं ! मैं नहीं जाने वाली, वह जरूर आयेगा’ माडो पूरे आत्मअविश्वास से चीखती है। टोले वालों के जिद के बावजूद कुछ दिनों बाद उन्हें हांक कर पास के ही जुडुम शिविर में पहुचा दिया जाता है, उनका टोला सदा-सदा के लिए वीरान हो जाता है।
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यहां शिविर में एक नई जिन्दगी बिखरी है जैसे स्वच्छंद उडते परिंदे को पकडकर बडे से पिंजरे में कैद कर दिया गया हो। सहमी सी माडो अपने जीवन में पहली बार इतने सारे लोगों को एक ही जगह रहते देख कर आश्चर्यचकित है। इसके पहले वह हाट-बाजार में लोगों की भीड देखती थी यहां तो कई-कई हाट-बाजार लगा हुआ सा प्रतीत होता है। ऐसे लोगों की भीड जो अपनी झोपडी, खेत, बकरी, गाय-बैल, नांव, जाल सब को छोडकर यहां कीडे मकोडे की तरह सिगबिगा रहे हैं। माडो की सांसें फूल रही है, अजीब सी छटपटाहट और बेचैनी हो रही है उसे। अंधेरा हो चला है और वह आंखें बंद कर बैठी है, कानों में अपने झोपडी के पीछे बहती नदी का कलकल सुनना चाह रही है पर लोगों के शोर शराबे, बच्चों की रोने की आवाजें, अजब कोलाहल में कलकल का स्वर दब सा गया है। कान में सांय-सांय की आवाजे आ रही है। वह अपने कानों को दोनों हाथों से दबा लेती है, सांय-सांय की आवाजें और बढ जाती है। वह फिर से हाथ को कानों से हटाती है, अब दूर से कतमा के अपने दलम के साथियों से बतियाने और फिर उसके अट्टहास की आवाजें उसके कानों में गूंजती है। वह चौंक जाती है, दूर जंगलों की ओर आंखें गडा कर आवाजों की दिशा में देखने का प्रयत्न करती है .... पर वहां तो कुछ भी नहीं है। गहन अंधकार शिविर के तेज हायलोजन की रौशनी से युद्ध करती प्रतीत होती है। यहां कृत्तिम रौशनी में आदिम जिन्दगी चिडियाघरों की भांति नहा रही है और वहां गहन अंधकार में बंदूकें गरज रही हैं, कतमा और पुलिस की। इन दोनों की लडाई में लुप्त प्राय दुर्लभ प्राणी इन शिविरों में कृत्तिम गर्भाधान तरीकों से प्रजाति को बचाने के मानवीय संवेदनाओं के भरोसे जी रही है।
माडो के दिमाग में अजब सी झंझावात चल रही है जिसे वह समझ नहीं पा रही है। वह उठती है अपने पैरों में शक्ति संचित करती है और पूरे वेग से पागलों की तरह अंधकार की दिशा में दौंड पडती है। शायद अंधेरे और उजाले के मेल में शिविर की सुरक्षा के लिए लगाए गए कांटे की बाड को माडो नहीं देख पा रही है। ‘धडाम’ की आवाज के साथ वह पीठ के बल तारों से उलझकर गिरती है। मचान में बैठे पुलिस वालों को लगता है जैसे वहां हमला हुआ है, कोई बाड के इस पार कूद गया है। अगले ही पल दर्जनों बंदूकों से निकली गोलियां माडो के जिस्म पर समा जाती है। खून से लतपथ आदिम जिन्दगी दूधिया रौशनी में पल भर के लिए कसमसाती है और हमेशा हमेशा के लिए शांत हो जाती है।

संजीव तिवारी

टिप्पणियाँ

  1. प्रेम और अप्रेम के बीच झूलती कविता सी कथा ! राजनैतिक यथार्थ को बूझने की कोशिश करती हुई ! दुरभिसंधियों के मुखौटे नोचने के यत्न में गहरे घाव छोड़ जाती है !

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  2. अच्छी प्रस्तुति,
    कृपया अपने बहुमूल्य सुझावों और टिप्पणियों से हमारा मार्गदर्शन करें:-
    अकेला या अकेली

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  3. श्रीकृष्णजन्माष्टमी की बधाई .
    जय श्री कृष्ण

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  4. कहानी है पर असलियत बयां कर रही है। आदिवासी दो पाटों के बीच पिस रहे हैं।

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  5. सबसे पहले तो हतप्रभ हूँ . यह देखकर की कहानी का अंत कितना स्पर्शी, ह्रदय को छूने वाला है लेकिन , छत्तीसगढ़ भाजपा के ही एक नेता ( पता नहीं उन्होंने इस कहानी को पढ़ा भी या नहीं, कमेंट्स देखकर तो यही लग रहा है) ने पोस्ट पर कुछ लिखने की बजाय जन्मास्टमी की बधाई बस देना ज्यादा बेहतर समझा. तो यह हाल है छत्तीसगढ़ में सत्ताधारी पार्टी के नेताओं का इस संवेदनशील मुद्दे पर.
    सब लगे हुए हैं बस निगम मंडल में नियुक्ति के लिए, चाहे ये हों या वो हों. बाकि कहाँ कौन मर रहा है या जी रहा है कोई फर्क नहीं.
    कहानी की सभी किश्तें आज आराम से बैठकर पढ़ा , अंत में आया हूँ तो ऐसा लग रहा है मुझसे पहले कमेन्ट करने वाले अतुल जी से सहमत हूँ .

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