रौशनी में आदिम जिन्दगी : भाग 3 (कहानी : संजीव तिवारी) सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

रौशनी में आदिम जिन्दगी : भाग 3 (कहानी : संजीव तिवारी)

रौशनी में आदिम जिन्दगी : भाग 1
रौशनी में आदिम जिन्दगी : भाग 2

अपनी जिन्दगी की अधिकाश राते वह अपनी झोपडी में अकेले ही गुजारती थी, छोटे से तुम्बी में अपने हाथों से उतारे मंद को भरकर पिया, रूखी-सूखी खाया और लम्बी तान कर सो जाती थी। उसकी जिन्दगी में दिन और रात के मायने मंद उतारना-बेंचना और सो जाना था। उसका दिन नदी के किनारे से निकलते सूरज के साथ शुरू होता और डोंगरी पहाड में उसके छिपने तक भागदौड में बीतता था, महुआ के दिनों में वह सुबह मरसूल पकडकर महुआ बीनने जाती, वापस आकर उन्हें सुखाती फिर सडे महुओं को हाथों से मसल कर आग जलाती और मंद की भट्ठी तैयार करती। मंद आसवित होकर मिट्टी के बरतन में इकट्ठा होते रहता और वह चिनता नदी से नहा कर बडे तूम्बे में पानी भरकर आती। खाना बनाती और खा कर बाहर परछी में मचिया डाल कर बैठ जाती। तब तक आस-पास के गांव-टोलों से मंदहा लोगों का आना शुरू हो जाता था और उसका धंधा चल पडता था। बीच-बीच में सूखे महुए को बेंचने आये महिलाओं से वह महुआ खरीदती और पियक्कड पुरूषों को ले जाने उनकी पत्नियों के बडबडाते आने पर उनसे रार करती। ‘अपने पति को पल्लू में बांध कर रखो, मैंने नहीं बुलाया है, ये खुद आये हैं।‘ बातें कभी कभी काफी बढ जाती पर वह सब पर भारी पडती थी।
युवाओं की भीड माडो की झोपडी पर लगती रही, इन्हीं दिनों नदी के उस पार से कुछ अनजान चेहरों की आमद भी टोले में होने लगी थी। वे टोले के युवकों से मिलते, घंटो कुछ फुसफुसाते और नदी पार कर वापस चले जाते। इनके आने जाने के बाद से टोले और आस-पास के टोलों से युवकों का उसके झोपडी में आना कम होने लगा। उन्हीं युवा लडकों में से कुछ युवा लडके हरी वर्दी और बंदूकों के साथ कभी-कभी नदी पार कर दल के दल आते टोलों में रहने वाले सभी को बुलाते और उनका सुख-दुख पूछते। माडो से मंद का धंधा बंद करने को कहते, टोले में जंगली उत्पाद खरीदने आने वाले कोचिया को उचित भाव पर सामान बेंचने व उसके द्वारा लोगों को ठगने या टोले के किसी व्यक्ति के अन्याय करने के विरूद्ध शिकायत मिलने पर उसे डंडे व लात से सब के सामने बेदम पीटते। सरकार के द्वारा षडयंत्रपूर्वक खदानों के लिए गांव टोलों को उजाडने के किस्से सुनाते। शहर हो आए लोगों को वे शक की निगाह से देखते थे, वे सभी को शहर जाने और किसी अजनबी से मेल-मिलाप बढाने पर भी दंड देते थे। उनके मित्रवत व्यवहारों नें सबका मन मोह लिया था, धीरे-धीरे सारा टोला उनकी उंगलियों पर नाचने लगा था।
इसके साथ ही दो-दो चार-चार करते-करते उनके दस-बारह झोपडियों के टोले में चालीस-पचास झोपडियां तन गई थी और दलम के लोगों का ट्रेनिंग कैम्प नदी के उस पार से इस पार चालू हो गया था। गबरू जंगल के जवानों के साथ-साथ बारह-पंद्रह साल के किशोर और मोटियारी लडकियां भी हरे ड्रेस के साथ यहां आने लगी थी जो लाल सलाम, इंकलाब जिन्दाबाद के नारों के साथ कदम ताल करते और कंधों में टंगे बंदूकों से निशाना लगाना सीखते थे। यह स्थान प्राकृतिक रूप से दलम के लिए एकदम सुरक्षित था, तीन तरफ पहाड और एक तरफ नदी के बीच लगभग दो किलोमीटर के व्यास वाले कुछ पठारी जगह में यह टोला स्थित था जिसके कारण पुलिस का यहां पहुंच पाना आसान नहीं था।
माडो और टोले वालों की जिन्दगी पटरी पर थी, वे दिन भर अपने लिये मछली मारते, शिकार करते एवं छोटी-छोटी डोलियों में खेती से कुटकी आदि लगाकर उसमें मेहनत करते थे। ऐसे समय में ही एक रात माडो के घर में पिंडली में गोली का चोट लिए कतमा नें प्रवेश किया था और माडो को झकझोरते हुए सुबह सुकुवा के उगते ही चिनता नदी के पार खो गया था। वह कई दिनों तक स्मृतियों में कतमा के चेहरे को चिमनी की रोशनी में दमकते हुए देखती रही, फिर वह एक रात पुन: आ धमका था ... स्‍वप्‍न की ही तरह। जब भी कतमा, माडो के स्वप्नों में आता एक अपूर्व आनंद उसके हृदय में छा जाता था। माडो बार-बार इसे महसूस करती और अपने अंतरतम से बातें करती, कि क्या वह फिर कभी आयेगा? क्यों वह बार-बार उसकी स्मृतियों में आता है? माडो के जीवन में किसी पुरूष का स्थाई महत्व नहीं था, किसी की भी याद में उसका दिल इस तरह नहीं धडकता था जिस तरह कतमा के याद में धडकता है। माडो अपने मन को कतमा की ओर से ध्यान हटाने को कहती पर उसका मन बार बार कतमा की याद में खो जाता।
उस दिन टोले में उत्स‍व सा माहौल था, सांगा देव को सजाया जा रहा था, दियारी मंत्र बुदबुदा रहा था। टोले के लोग नये कपडे पहन कर सांगा देव का गुणगान गा रहे थे। देवता दियारी के कंधे में पहुच कर मचल रहा था, कारी भंवारी और कारी कुकरी का रक्त चढाया जा रहा था। उसी समय गुडदुम के धुनों में थिरकते पुरूषों के बीच कतमा और उसके दस साथी कंधे में बंदूक लटकाये आकर खडे हो गए। दूर से ही पहचान गई माडो, कतमा को। वही सूरत जो उसने चिमनी के लाल रौशनी में देखा था, वही चेहरा जो पिछले दो माह से उसके स्वप्नों में लगातार छाया हुआ था। कतमा ने अपने साथ लाए सात मुडी चोंखी कुकरी को कटारी से पूज कर देव की पूजा अर्चना की और अपने नेतृत्व में टोले के लोगों के साथ सांगा देव को मडकम मडई तक ले गया। सभी लोग उसके पीछे चलते हुए मडकम मडई पहुच गये जहां आस-पास के गांव-टोलों से विभिन्न देवताओं को लाया गया था। मडई में अच्छी खासी भीड थी साथ ही कतमा जैसे कमांडर और हजारों वर्दी वाले बंदूक थामें दलम के लोग भी थे। सभी देवताओं की पूजा अर्चना पारंपरिक रिवाजों के अनुसार किया गया। पारंपरिक नृत्यों की प्रस्तुति होती रही। कतमा दलम और देवताओं व दियारी लोगों की सेवा में ही लगा रहा पर माडो हर पल उसे दूर से निहारती रही।
रात होते होते सांगा देव को सकुशल टोला ले आया गया, टोले की महिलायें एवं पुरूष आनंद उत्सव में छककर ताडी और मंद पी चुके थे, मडई में तुतनी बधिया और बकरा-मुर्गा भात मुफ्त में बट रहा था जिसकी व्यवस्था संभवत: दलम वालों नें की थी। सभी नशे में चूर थे, कतमा के साथ आये लोग भी नशे में थे वे टोले के पास ही एक महुआ पेड के नीचे ओट में जाकर सो गये पर कतमा उठ कर लडखडाते कदमों से माडो की झोपडी की ओर बढ गया। दरवाजे पर पहुंच कर उसने दरवाजा थपथपाया, माडो भी मंद के नशे एवं मडई घूमने की थकावट के कारण जल्दी ही अपनी माची में लुडक गई थी। थपथपाहट सुनकर उसने लडखडाते हुए फैरका को खोला। ढिबरी की रौशनी दरवाजे पर खडे कतमा के चेहरे पर पडी, खुशी के अतिरेक में माडो का सारा नशा काफूर हो गया। सामने वही चेहरा दमक रहा था। कतमा बिना कुछ बोले अंदर आकर माची में बैठ गया, माडो नें फैरका भेड दिया। लोटे में पानी लाकर उसके सामने रखा, कतमा कंधे में टंगे बंदूक को उतारकर झोपडी में लकडी से बनाये गये खूंटी में टांगा और जूता खोलकर बाहर हाथ-मुह धोने चला गया। उसके वापस आते तक माडो नें मडई से लाये पेपर में बंधे जलेबी को खोलकर जर्मन के प्लेटनुमा थाली में रख दिया, कतमा के आते ही उसे उसकी ओर सरका दिया।
‘आखिर तुम्हें मेरी याद आई?’ माडो नें अपने चितपरिचित अंदाज में कहा। वह अक्सर पुरूषों से ऐसा प्रश्न करती थी जिसका उत्तर वे दे नहीं पाते थे और इधर उधर की बातें करते थे फलत: माडो के सामने कमजोर साबित होते थे। माडो ऐसे प्रश्नों को किसी हथियार की भांति प्रयोग करती थी। ‘सांगा देव की कृपा से इसी टोले में मेरे टांग के चोट पर उचित समय में ही दवा लग पाई थी, इसलिए बदना था, सांगा देव के बुलावे में आया था। तुमसे भी मिलकर धन्यवाद कहना था।‘ कतमा नें कहा था। माडो की आंखों से खुशी छलक रही थी। ‘लो जलेबी खाओ, माडो के घर में मंद के सिवा और क्या मिल सकता है।‘ माडो नें जलेबी का प्लेट उसकी ओर सरकाते हुए कहा। ‘बहुत नाम सुने हैं तेरा, तेरे मंद के दो-चार चहेते नदी उस पार के कैम्पों में हैं वे तेरी बहुत गुन गाते हैं। उस दिन तो चोट के दर्द में रात गुजर गई थी और सुबह जल्दी जाना था क्योंकि हमें पता था कि पुलिस जल्दी ही हमारे पीछे-पीछे आ जायेगी इसलिए चला गया था। तेरा मंद नहीं पी पाया था।‘ कतमा ने अर्थपूर्ण निगाहों से माडो की ओर देखते हुए कहा, माडो शरमा गई थी।
‘तो आज पीने आ ही गए ?’ माडो नें भी अर्थपूर्ण भाव से कतमा को देखते हुए कहा। माडो नें उस रात कतमा को छककर मंद पिलाया, तम्बाकू खिलाया और उसके विशाल बाहों में सुबह होते तक लिपटे रही। उस रात उसका स्वप्न साकार हो चला था, वह कतमा के बाहों में थी और ढिबरी के मद्धिम रौशनी में वह बार बार उसका दमकता चेहरा निहारती थी। वह आश्वस्त होती थी कि यह स्वप्न नहीं हकीकत है। सुबह होने के पहले ही कतमा उठकर चला गया, माडो देर तक सोती रही। जब उठी तब कतमा को न पाकर वहां तक बदहवास दौड गई जहां उसके साथी रात में सोये थे। किन्तु सब जा चुके थे। वह दिन माडो के लिए उमंगों का दिन था, वह अपने आप को हवा में उडते हुए, लहरों में खेलते हुए महसूस कर रही थी। उसकी सांसों में कतमा का नशा था, एतराब के सबसे ताकतवर व्यक्ति का नशा।

टिप्पणियाँ

  1. संजीव भाई खैरियत तो है ? कथा का आखिरी पैरा एकांतिक लम्हों से भीगा हुआ कह रहा है कि कुछ तो गडबड है :)

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  2. कतमा अड़बड़ दिन ले अगोरिस
    मिलिस त पिरीत उमड़गे।

    बने कहिने हे-बधई

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  3. ali saa ke sawal ka javab diyaa jaye.

    dusri baat, bhaiya aisa lag raha hai ki jaise aapne in ilaakon mein lambaa hi nahi balki ek lambaa arsaa gujaraa ho, aisi yatharthparak rachna ko padhkar to aise hi lag rahaa hai, to bhaai sahab, kab gujaar liya aapne itnaa lambaa samay is ilaake mein....?

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