विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
सात साल की उम्र में ‘मोहब्बत के फूल’ नाटक को देखकर एक बालक के मन में अभिनय की ललक जो जागृत हुई वह निरंतर रही, बालक नाचते गाते अपनी तोतली जुबान में नाटकों के डायलागों को हकलाते दुहराते बढते रहा। उसके बाल मन में पुष्पित अभिनय का स्वप्न शेक्शपीयर की नाटक ‘किंगजान’ में प्रिंस का आंशिक अभिनय से साकार हुआ। असल मायनें में उसी दिन महान नाट्य शिल्पी हबीब तनवीर का नाटकों की दुनिया में आगाज हो गया।
आज से ठीक एक साल पहले आज के ही दिन हबीब जी के निधन का समाचार मित्रों से प्राप्त हुआ, नाटकों व लोकनाट्यों से हमारा लगाव हमें हबीब जी एवं उनके कलाकारों के करीब ले आया था. सुनकर गहरा दुख हुआ पिछले वर्ष हबीब जी के अस्वस्थ होने के समाचार मिलने पर आवारा बंजारा वाले संजीत त्रिपाठी नें कई बार आग्रह किया कि मैं उनपर कोई आलेख लिखूं किन्तु व्यस्तता के कारण मैं कुछ भी नहीं लिख पाया. पिछले वर्ष ही उन्हें श्रद्धांजली स्वरूप मैंनें यह आलेख लिखा था तब बमुश्कल पांच कमेंट आये थे, आज उनकी प्रथम पुण्यतिथि पर मुझे कुछ पोस्ट नजर आये जिसमें साथियों नें अपना उत्साह एवं स्नेह हबीब जी के प्रति प्रस्तुत किया है जिसे पढ़कर दिल को सुकून मिल रहा है. हबीब जी को श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए मैं साथियों से आग्रह करता हूं कि एक बार पुन: मेरे एक वर्ष पहले लिखे गए इस आलेख को अवश्य पढें . हबीब जी की यादें तो बहुत हैं, समय पर हम आपसे शेयर करेंगें.
देखें रंग ए हबीबचरन दास चोर
हबीब साहब पर आपने बेशकीमती पोस्ट डाली है। इसके लिए साधुवाद
जवाब देंहटाएंसन्जीव भाई जरूर पढ्ते हैं। भले ही हम इस क्षेत्र मे ज्यादा रुचि नही रखे, किन्तु रन्ग मन्च के प्रख्यात कलाकार से नावाकिफ़ भी नही हैं। ईश्वर से प्रार्थना करते हैं ऐसे शख्सियत बार बार इस धरती पर जनम ले।
जवाब देंहटाएंसाधुवाद
जवाब देंहटाएंhamai bhi shraddhajali ..bahut achchhi post lagayi hai aapne .
जवाब देंहटाएंjo tab kaha tha ve hi shabd aaj bhi mann me goonjte hai mere apne hi
जवाब देंहटाएं"shraddhanjali unhe. chhattisgarh ne vakai ek anmol ratn kho diya. ek aisa ratn jiski purti shayad ab ek lambe samay tak na ho."
हबीब साहब की यद् दिला दिए ना आप
जवाब देंहटाएंबेशकीमती पोस्ट
जवाब देंहटाएंकजरी सिरियल में हबीब तनवीर का "तहसीलदार" के पात्र का अभिनय आज भी जीवंत हो उठता है।
जवाब देंहटाएंरंगमंच के मंजे हुए कलाकार थे।
एक दिन उनसे मेरी मुलाकात MMI में हुयी थी जब वे बीमार थे और चेकअप के लिए आए थे। उनसे थोड़ी ही चर्चा हुयी थी।
आपने अच्छी पोस्ट लिखी है।
आभार
डॉ.महावीर अग्रवाल जी नें हबीब जी पर केन्द्रित सापेक्ष का अंक 47 हबीब जी के जीवनकाल में ही प्रकाशित करवाया था. इसमें हबीब तनवीर के सभी नाटकों का मूल्यांकन करते हुए उनके अवदान को रेखांकित करने की कोशिश है । श्वेत श्याम एवं रंगीन 64 छायाचित्रों के साथ यह विशेषांक 400 पृष्टों में अपना कलेवर समेटे हुए है । जानकारी यहां से जी जा सकती है http://www.mahaveeragrawal.blogspot.com/
जवाब देंहटाएंश्रद्धांजलि!
जवाब देंहटाएंहबीब तनवीर के बारे में जो पढ़ा करता था, उसे ले कर बहुत वैचारिक मतभेद हुआ करते थे। पर अब देखता हूं कि जिनसे वैचारिक साम्य था, वे कितने फेक निकल रहे हैं।
जवाब देंहटाएंलिहाजा वैचारिक साम्य खास मायने नहीं रखता। अब शायद उन्हे नये कोण से देखूं!
श्रद्धांजलि!
बहुत ही सार्थक आलेख...इस अज़ीम शख्सियत की कमी शायद कभी पूरी ना हो...उनका स्थान हमेशा
जवाब देंहटाएंअपने प्रशंसकों के दिलों में सुरक्षित रहेगा..