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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

क्या वे औसत दर्जे के परिणामों से संतुष्ट रहेंगे या .... ? : वेंकटेश शुक्ल

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सबसे बड़ी महत्ता रोजगार की
किसी भी अर्थ व्यवस्था का मापदंड है रोजगार की बहुलता। जब आम लोगों के पास रोजगार होता है तब वे घर लेते हैं, फर्नीचर खरीदते हैं, यातायात, मनोरंजन और कपड़ों - जूतों में पैसा खर्च करते हैं जिस से इन सब क्षेत्रों में रोजगार बढ़ता है। राज्य स्वयं एक बहुत बड़ा मालिक है किन्तु उसकी भी सीमा होती है अतिरिक्त रोजगार देने की। छत्तीसगढ़ में बहुत से लोग कृषि तथा वन पर निर्भर होकर किसी तरह जीवन-यापन करते हैं और उन्हें कहीं और अधिक आय मिले तो वे उसे सहर्ष स्वीकार करेंगे। छत्तीसगढ़ के सामने सबसे बड़ी चुनौती है रोजगार बढ़ाने की। यह स्थापित तथ्य है कि 80 फीसदी रोजगार लघु एवं मध्यम श्रेणी के उद्यमियों के माध्यम से बनते हैं। बस मालिक, होटल मालिक, खुदरा व्यापारी, ठेकेदार जैसे उद्यमी कम हुनर वाले लोगों को रोजगार देते हैं जबकि कारखाने तथा उद्योग धंधे जैसे मध्यम श्रेणी के उद्यमी थोड़े बहुत हुनर वालों को काम देते हैं।

छत्तीसगढ़ कैसे बने सोने की चिडिय़ा? भाग - 2



वेंकटेश शुक्ल कैलिफोर्निया में एक कम्प्यूटर चिप डिजाईन सॉफ्टवेयर कंपनी के अध्यक्ष हैं।  छत्तीसगढ़ के जांजगीर जिले के अकलतरा में पढ़े, श्री शुक्ल  छत्तीसगढ़  प्रवासी भारतीय पुरस्कार 2007 से सम्मानित हो चुके हैं। 2002-03 में  छत्तीसगढ़ शासन के सलाहकार रह चुके हैं। वे अमरीका में रहते हुए भी  छत्तीसगढ़ के लगातार संपर्क में रहते हैं और इंटरनेट पर 'छत्तीसगढ़’ के  नियमित पाठक भी हैं। वे भारत में प्रतिभाशाली और जरूरतमंद बच्चों को पढ़ाई  में मदद करने वाले एक संगठन में भी सक्रिय हैं। उनका यह लंबा लेख छत्तीसगढ़  जैसे राज्य को एक अंतरराष्ट्रीय खनिज-देशों के साथ जोड़कर देखता है  –संपादक, छत्तीसगढ़.



http://www.dailychhattisgarh.com से साभार

शासन की नीतियां ऐसी होनी चाहिए कि लघु और मध्यम श्रेणी के ज्यादा से ज्यादा उद्यमी छत्तीसगढ़ की ओर आकर्षित हों जो छोटे मोटे कारखाने, व्यापार, उद्योग और संयंत्र स्थापित करें और, जब तक ये कानून को न तोड़ें, उनके काम में कम से कम बाधा आये। टाटा, मित्तल, इनफ़ोसिस ये सब बड़े रोजगारी हैं और इन सबको जरूर बुलाना चाहिए। मगर राज्य तभी सफल होगा जब मेरे भोपाल वाले मित्र जैसे उद्यमी यहाँ आएंगे। जब ऐसे उद्यमी प्रदेश में आते हैं तो अखबारों में सुर्खियाँ नहीं छपतीं जो टाटा के आने में छपती हैं मगर ऐसे लोगों को राज्य में लाना ज्यादा बड़ी उपलब्धि है क्योकि रोजगार समस्या का यही समाधान है कि हजारों लाखों इस तरह के लघु और मध्यम श्रेणी के उद्यमी और व्यापारी आएं।
छत्तीसगढ़ को अगर तेजी से प्रगति करना है तो ऐसे लघु एवं मध्यम श्रेणी के उद्यमियों को आकर्षित करना होगा। यह काफी नहीं है कि बिजली, पानी और रोड की सुविधा बाकि राज्यों के मुकाबले अच्छी है। अगर ये सुविधाएं काफी होतीं तो आज केरल भी अन्य दक्षिण भारतीय राज्यों की तरह सफल होता। शासन की नीतियां ऐसी होनी चाहिये कि प्रदेश को आसपास के प्रदेशों के मुकाबले प्रतिस्पर्धात्मक लाभ मिले और रोजगार सृजन करने वाले दूसरे राज्यों को छोड़कर छत्तीसगढ़ आएं।
विलम्ब कम करें रोजगार बढ़ाने के लिए
छत्तीसगढ़ के पास एक स्वर्णिम अवसर है उद्यमियों एवं व्यापारियों को आकर्षित करके रोजगार बढ़ाने का। रोजगार बढ़ाने की रामबाण दवा है- धंधे लगाने और चलाने में होने वाली देरी को कम से कम करना। हांगकांग में केवल बीस दिनों के भीतर उद्योग लगाने की अनुमति मिल जाती है जबकि भारत में औसतन 89 दिन लगते हैं। कुछ देरी केंद्र शासन के कारण होती है किन्तु ज्यादा से ज्यादा देरी राज्य स्तर की संस्थाओं के कारण होती है। इसे कम करें और देखें इसका परिणाम।
शुरू होने के बाद, उद्यमों और व्यापारों की उन्नति में सबसे बड़ी बाधा है करारों (कांट्रेक्ट) को लागू करने में देरी। सिंगापोर में करार को लागू करने में मात्र 120 दिन लगते हैं जबकि भारत में, वित्त मंत्रालय में सलाहकार कौशिक बासु के अनुसार, 1420 दिन लगते हैं कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाते लगाते। दूसरी बाधा तब होती है जब चेक बाऊंस होते हैं और भुगतान नहीं होता। यद्यपि चेक बाऊंस होने पर कानून बना है किन्तु रोते धोते ये सब मामले पहुंचते हैं न्यायालयों में जहाँ सालों लगे रहेगा केस। दुबई में चेक बाऊंस का मामला एक महीने में निपट जाता है और तीन साल की कैद हो सकती है। विलम्ब को दूर करने में सिंगापोर, दुबई और हांगकांग जग माहिर हैं। दुनिया भर के लोग इन देशों में आते हैं मगर कोई बेरोजगारी नहीं। देरी कम कीजिये छत्तीसगढ़ में और देखिये कैसे देश भर के उद्यमी, निवेशक और व्यापारी यहाँ आने की मारामारी करते हैं।
विलम्ब कम कैसे हो- जहाँ होना चाहिए वहाँ से शासन लापता है-
1. न्यायालयों को और सशक्त करें। न केवल जज और स्टाफ ज्यादा हों बल्कि विशेष न्यायालयों की स्थापना की जाये जो केवल उद्योग / व्यापार सम्बन्धित विवाद पर फोकस करें जैसे कि करारनामे, चेक बाऊंस के विवाद और अन्य आर्थिक अपराध। भारत में न्यायपालिका पर खर्च सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जी एन पी) का मात्र 0.3 फीसदी है जबकी छत्तीसगढ़ 0.4 फीसदी खर्च करता है। इससे भी ज्यादा न्यायपालिका पर खर्च करना प्रदेश के लिए बहुत फायदेमंद होगा। दूसरे राज्य इस तथ्त को या तो नहीं समझते या उनके पास न्यायपालिका पर खर्च बढ़ाने के किये पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। सिंगापोर न्यायपालिका पर 1.2 फीसदी खर्च करता है। यदि छत्तीसगढ़ न्यायपालिका पर अधिक निवेश करे जिससे करारनामे शीघ्रता से लागू हों और चेक बाउंस के मामले जल्दी निपट जाएँ तो पूरे भारतवर्ष में यह राज्य निवेशकों, उद्यमियों और व्यापारियों के लिए स्वर्ग बन जायेगा और रोजगार की बहुलता में देरी नहीं होगी।
2. प्रदेश में निवेश की क्या प्रक्रिया है यह आसान और स्पष्ट होना चाहिए और उस पर अमल होना चाहिए। मेरे एक मित्र अध्यक्ष हैं एक अमेरिकी कंपनी के जिसके हैदराबाद में करीब 1000 इंजीनियर हैं। वे हैदराबाद में आसमान छूती कीमतों तथा यातायात में दिक्कतों से परेशान थे। मैंने उन्हें सलाह दी कि अपने उद्योग बढ़ाने के लिए छत्तीसगढ़ जाएँ और कुछ उच्च अधिकारियों से मिलें। ये वर्ष 2008 के शुरुआत की बात है। उस बिचारे ने मेरी बात मान कर रायपुर की दो यात्राएं कीं, चिलचिलाती धूप में अधिकारियों से मिलने के लिए घंटों बाहर खड़े रहे ताकि उन्हें ऑफिस के लिए एक-दो एकड़ जमीन ऐसी जगह मिल जाए जहाँ इंजीनियर जाने के लिए तैयार हों। मगर किसी ने भी यह नहीं बताया कि काम कैसे होगा। बस यहाँ से वहाँ उन्हें भेजते रहे। तंग आकर वह चले गए तमिलनाडु जहां एक नोडल ऑफिस जमीन, बिजली, पानी, इण्टरनेट, और प्रदूषण जैसे सारे कामों का एक जगह इंतजाम करता है। जहां उद्यमी जाते हैं वहीं रोजगार भी जायेगा।
विलम्ब कम कैसे हो: जहाँ नहीं होना चाहिए वहाँ शासन घुसा बैठा है- 1. यह आवश्यक है की नौकरशाही के निचले स्तर, जिसका सामना आम आदमी से होता है, पर अंकुश रखा जाये। ऐसे नीति नियम न बनाये जाएँ जिसका दुरूपयोग व्यक्तिगत हित के लिए हो सके।उदाहरण के तौर पर हर दवाई की दुकान को कुछ वर्षों में अपना लाइसेंस रिन्यू कराना पड़ता है जिसमें दूकानदार का समय बर्बाद होता है और घूस खिलानी पड़ती है। क्या ऐसा नहीं किया जा सकता है कि लाइसेंस रिन्न्युअल अपने आप हो जब तक दूकान के खिलाफ कोई विश्वसनीय शिकायत न हो? एक बस मालिक की तो और भी परेशानी है। कभी पुलिस वाले, सभी परिवहन विभाग वाले और कभी श्रम विभाग वाले पीछे पड़े रहते हैं।
मुझे बताया गया है कि बस चलाने के सैंकड़ों कायदे कानून हैं और पुलिस चाहे तो किसी को भी कभी भी पकड़ कर चालान कर सकती है क्योकि किसी न किसी कायदे कानून की अवहेलना तो पक्की है। फिल्म कलाकार गोविंदा की एक फिल्म है,'चल चला चल' जिसमें एक मेहनती बस मालिक की नौकरशाही के हाथों की परेशानी का बड़ा मार्मिक प्रदर्शन है। अगर रोजगार बढ़ाना है तो ऐसे सभी नियमों को हटाना होगा जिनसे न तो शासन को फायदा होता है और न ही आम जनता को, बल्कि फायदा होता है केवल बेईमान बाबुओं और इंस्पेक्टरों को। ऐसे नियमों को हटाएँ तो रोजगार द्रुत गति से बढ़ेगा। इन नियमों की लिस्ट बनाना आसान है, सम्बंधित व्यापार संघ बड़ी खुशी से लिस्ट बना देंगीं।
2. शासन को ऐसी सभी जगह से हट जाना चाहिए जहाँ उसकी मौजूदगी से जनता को नुकसान ज्यादा और फायदा कम होता है। एकाधिकार प्राप्त संस्थाएं जैसे हाऊसिंग बोर्ड या डेवेलपमेंट अथॉरिटी जिन्हें नगरीय भूमि पर एकाधिकार है, आर्थिक प्रगति में ब्रेक लगाती हैं। शुरुआत में ये विकास संस्थाएं सक्षम होती हैं, नेक इरादों से इनकी शुरुआत होती है किन्तु पांचेक वर्षों के भीतर ही जब प्रारंभिक प्रबंधन टीम बदलती है, ये संस्थाएं भ्रष्टाचार का गढ़ बन जाती हैं। इन संस्थाओं से न तो शासन को और न ही जनसाधारण को कोई फायदा मिलता है। फायदा रहता है केवल इनमे काम करने वालों का और उनको जिनकी पहुँच है इन कर्मचारियों तक। ऐसी संस्थाएं विकास की गति को रोकती हैं, गलत परियोजनाओं में निवेश करती हैं जिनका कुल मिलाकर बुरा असर रोजगार पर होता है। कोई भी नई एकाधिकार प्राप्त अथॉरिटी शुरू करते समय ही उसकी समाप्ति की तिथि भी निर्धारित होनी चाहिए। जहाँ भी एकाधिकार दिया जाता है उसका दुष्प्रयोग निश्चित है, आर्थिक विकास में बाधा निश्चित है। इसलिए आर्थिक क्षेत्र में जहाँ-जहाँ भी एकाधिकार समाप्त हुआ है, परिणाम अच्छे ही हुए हैं। छत्तीसगढ़ शासन ने राज्य परिवहन निगम को बंद किया और आज केवल एक ही वर्ग इस निर्णय से अप्रसन्न हैं - निगम के पूर्व कर्मचारी। शासन को घाटे के उपक्रम में निवेश नहीं करना पड़ता और आम जनता को विभिन्न दरों पर यातायात की अच्छी सुविधा मिल रही है। जब से मोबाइल फोन और निजी फोन कंपनियां आईं हैं, आम आदमी को फोन विभाग के कर्मचारियों से परेशान नहीं होना पड़ता, फोन कनेक्शन के लिए आठ वर्षों का इंतज़ार नहीं करना पड़ता। हाऊसिंग बोर्ड या डेवेलपमेंट अथॉरिटी के बजाय अगर विकास की प्राथमिकताएं तय हों, स्पष्ट नियम हों जिनका पालन हो तो ज्यादा मकान जल्दी बनेंगे और नए मकान मालिक फर्निचर, सज्जा सामग्री, इत्यादि पर खर्च करेंगे जिससे विकास दर तीव्र होगी और रोजगार बढ़ेगा।
खनिज उत्खनन के लिए विश्व मान्य पद्धतियां अपनाएं बोत्स्वाना का उदाहरण अपनाएं - माइनिंग कंपनियों से लंबी अवधि का अनुबंधन करें और एक समय की लाइसेंस फ़ीस के बजाय मुनाफे में हिस्सा लेते रहें। जिम्बाब्बे, कांगो या झारखण्ड की तर्ज पर खनिज उत्खनन का सौदा नहीं करना चाहिए। जिसमे एक बार की लाइसेंस फ़ीस के एवज में लंबे समय तक उत्खनन का अधिकार दे दिया जाता है। मधु कोड़ा जैसे आज के निर्णयकारी तो अपनी जेब भर लेते हैं लेकिन राज्य को इसका लंबे समय तक नुकसान उठाना पड़ता है। 'ग्लोबल उत्खनन उद्योग ट्रांसपरेंसी पहल' को अपनाएं जो पारदर्शिता का मापदंड रखता है। जिस तरह सूर्य की रोशनी संक्रमण के विरुद्ध वरदान है उसी तरह पारदर्शिता भ्रष्टीकरण के खिलाफ कारगर है।
उपसंहार
छत्तीसगढ़ राज्य के पास देश के संपन्नतम राज्यों में से एक बनने का अवसर है, पर्याप्त संभावनाएं हैं। शासन की नीतियों में आमूलचूल क्रांतिकारी बदलाव की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है सही नीतियों की, लीक से हटकर चलने के राजनैतिक मनोबल की, और निर्णयों को कार्यान्वित करने की क्षमता। क्या छत्तीसगढ़ के शासकों में इस चुनौती को उठाने की सामर्थ्य है? क्या वे औसत दर्जे के परिणामों से संतुष्ट रहेंगे या प्रदेश को सोने की चिडिय़ा बनाने के सुयोग का लाभ उठाएंगे?

वेंकटेश शुक्ल
इस आलेख की पहली कड़ी : छत्‍तीसगढ़ सोने की चिडि़या यहां पढ़ें. 
(इस लेख से सहमति, असहमति या टिप्पणी लेखक को हिन्दी या अंग्रेजी में vnshukla@yahoo.com पर भेजी जा सकती है।)

टिप्पणियाँ

  1. "The best government is that which governs the least".

    The role of governments should be confined to basic law and order functions. Welfare-responsibilities should be left to society, not the state, through greater participation of non-governmental organizations (NGOs), self-help groups (SHGs) etc.

    By Amit jogi

    @ his minekey application on facebook.

    His facebook profile is...

    http://www.facebook.com/amitjogi

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  2. उम्दा सोच पर आधारित प्रस्तुती के लिए धन्यवाद / ऐसे ही सोच की आज देश को जरूरत है / आप ब्लॉग को एक समानांतर मिडिया के रूप में स्थापित करने में अपनी उम्दा सोच और सार्थकता का प्रयोग हमेशा करते रहेंगे,ऐसी हमारी आशा है / आप निचे दिए पोस्ट के पते पर जाकर, १०० शब्दों में देश हित में अपने विचार कृपा कर जरूर व्यक्त करें /उम्दा विचारों को सम्मानित करने की भी व्यवस्था है /
    http://honestyprojectrealdemocracy.blogspot.com/2010/04/blog-post_16.html

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  3. its nice article which stating the real music of growth & prosperety.

    i must say that this is the time to revise government policy.

    Deepak

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  4. Nice article, but only talk about action can be taken by government.
    It would be good if we can share thoughts where a common man can act.
    as we cant rely on government to correct everything.

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आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

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