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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

सद्भावना के शिल्पी भाई गिरीश पंकज : डॉ. परदेशीराम वर्मा

जनवादी कवि नासिर अहमद सिकंदर पन्द्रह वर्ष पूर्व कवियों पर एक स्तंभ लिखते थे । नवभारत में वे प्रति सप्ताह एक कवि से साक्षात्कार लेते थे । यह लोकप्रिय स्तंभ था । नासिर का सीना वैसे भी चौड़ा है मगर उन दिनों इस स्तंभ के कारण उसके सीने की चौड़ाई में कुछ और इजाफा सा हुआ दिखता था । एक दिन उसने मुझे भी रायपुर चलकर नवभारत में कार्यरत अपने मित्र से मिलने का न्यौता दिया । हम तेलघानी नाका के पास तब के नवभारत में पहुंचे । नवभारत में कार्यरत आशा शुक्ला जी भर को मैं पहचानता था । वे रायपुर के समाचार पत्र जगत में धमाके से आई एक मात्र युवती थी । इसलिए भी उन्हें हम सब आदर देते थे । कुछ विस्मय भी होता था कि पुरूषों से भरे समाचार पत्र के दफ्तर में वे अकेली महिला होकर भी किस तरह सफलतापूर्वक और सम्मानजनक ढंग से काम कर लेती हैं । सोचा उनसे भी भेंट हो जायेगी । नासिर ने मुझे पान ठेले पर ही रोक दिया । 
कुछ देर बाद वह एक खूबसूरत गोरे चिट्टे नौजवान के साथ चहकता हुआ लौटा । अभी वह परिचय करा ही रहा था कि मेरे मुंह से निकल गया, अरे पंकज भाई आप । नासिर को यह जानकर कि मैं गिरीश पंकज से पूर्व परिचित हूं थोड़ा झटका लगा । मैंने बताया कि पंडरी में स्थित युगधर्म में बरसों पहले गिरीश पंकज काम करते थे । वहां मेरे अग्रज भूषण वर्मा भी मुलाजिम थे । इसलिए मैं गिरीश भाई से पूर्व से ही खूब परिचित हूं ।
गिरिश पंकज तेजी से लिखने और प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में छपने वालों की टीम के सदस्य शुरू से ही रहे । राष्ट्रीय ख्याति की तमाम पत्रिकाओं में उनकी भिन्न भिन्न विधाओं की रचनायें आये दिन छपती थीं । कुछ उसी तरह का कारोबार मेरा भी था इसलिए हम एक दूसरे से घनिष्ट होते चले गए । काफी दिनों बाद मुझे पंचशील नगर स्थित उनके शासकीय र्क्वाटर में जाने का अवसर लगा । कुर्सी में बैठने के बाद मैंने सरसरी तौर पर उनकी किताबों के रैक पर नजर डालते हुए जो दरवाजे के ऊपर देखा तो देखता ही रह गया । वहां भिन्न भिन्न मुद्राओं में छ: बड़े बड़े फोटोग्राफस एक साथ फ्रेम कर सज्जित किया गया था । वे सभी चित्र भाई गिरीश पंकज के थे । मुझे जिज्ञासा हुई कि भाई कहीं फिल्मी दुनिया में ट्राई तो नहीं मार रहे । पता लगा कि ऐसी कोई बात नहीं है । मुझे बेशाख्ता यह चलताऊ शेर याद हो आया ....
"खुदा जब हुश्न देता है,
नजाकत आ ही जाती है ।"
साक्षरता अभियान से छत्तीसगढ़ के कुछ चुनिंदा साहित्यकार ही जुड़े । प्रारंभिक दौर में प्रतिष्ठित या प्रतिष्ठा प्रेमी साहित्यकार साक्षरता अभियान से जुड़ने में महसूस करते थे । इस दौर में रायपुर के श्री गिरीश पंकज इस अभियान से जुड़े । उन्होने नवसाक्षरों के लिए एक किताब लिखी - "भानसोज की चैती" ! चैती रायपुर के पास भानसोज गांव की लड़ाका स्त्री थी । चैती ने मद्यनिषेध के लिए गांधीगीरी किया था । वह सफल रही । और सफल रही उस पर लिखी किताब "भानसोज की चैती"
गिरीश भाई १९९५ से सदभावना दर्पण निकाल रहे हैं । इस पत्रिका के सफल संपादन के लिए वे पुरस्कृत हो चुके हैं । उपन्यास, कहानी, गीत, गजल, व्यंग्य, निबंध, सभी विधाओं में मस्त रहने वाले रचनाकार हैं भाई गिरीश पंकज । किताब घर, नेशनल पब्लिकेशन हाउस, वाणी प्रकाशन, एन.बी.टी. जैसी प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थाओं से गिरीश पंकज की किताबें प्रकाशित हुई हैं । कुल लगभग ३० किताबें उनकी प्रकाशित हुई हैं । वे दक्षिण अमेरिका, ब्रिटेन, बहरीन, ओमान, मारिशस, श्रीलंका, थाइलैंड की यात्रा कर चुके हैं । उनकी कुण्डली को जांचकर एक पंडित ने कह दिया है कि वे विदेश में ही बसेंगे । अट्टहास सम्मान, सदभावना सम्मान तथा लीलारानी स्मृति सम्मान से विभूषित श्री गिरीश कई समाचार पत्रों के उपसंपादक एवं ब्यूरो प्रमुख रहे ।
छत्तीसगढ़ी राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के कार्यकारी अध्यक्ष, छत्तीसगढ़ व्यंग्यापन के महासचिव, छत्तीसगढ़ सर्वोदय मंडल के प्रदेश मंत्री, छत्तीसगढ़ बाल कल्याण परिषद के सदस्य तथा बालहित पत्रिका के संपादक मण्डल के सदस्य गिरीश पंकज ने जयप्रकाश नारायण से प्रभावित होकर जनेऊ हटा दिया । जनेऊ हटने पर भी गिरीश पंकज के भीतर बैठा ब्राम्हण अक्सर चमक कर सामने आ जाता है । लेकिन वे मनु महाराज से लगातार तर्क वितर्क करते चलते हैं।
गिरीश पंकज सदभावना शुचिता, ईमानदारी, जैसे शब्दों के प्रति बेहद संवेदनशील हैं मगर आत्म-मुग्धता के चलते वे इन शब्दों को पूरी तरह हृदयंगम कर लेने का मुगालता भी पाल लेते हैं । अभी वे मात्र पचास वर्ष के हैं । हम आशा कर सकते हैं कि धीरे धीरे वे अपने निर्धारित आदर्शो के अनुसार जीवन को ढाल भी पायेंगे । वे खादी पहनते हैं, शराब नहीं पीते । विसंगतियों पर प्रहार करते हैं । मगर विसंगतियों को जन्म देने वालों के कृपा-पात्र बनने की ललक अभी उनमें बाकी है । इस टेढ़ी दुनिया को टेढे पन के बगैर साध लेने का भ्रम हमारे गिरीश भाई को है । वे स्वयं को सीधे तने हुए पाते हैं मगर देखने वाले अदृश्य से खम को भी देखकर मुस्कुराते हैं और सदभावना के इस घोषित सिपाही को बधाई भी देते हैं।
गरीश ने उपाध्याय सरनेम को हटाकर भी आदर्शवादी कदम उठाया लेकिन मेरे गुरूदेव राजनारायण ने मिश्रा सरनेम हटाये बिना जाति तोड़ो समाज जोड़ो सिद्धांत को अमली जामा पहनाकर दिखा दिया, मुझे वह ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है । हां, गिरीश ने उपनाम पंकज चुनकर बुद्धिमता का परिचय जरूर दिया । वे कीचड़ में नहीं जन्मे इसलिए यह पंकज उपनाम उपयुक्त नहीं लगता मगर रूप उनका पंकज की तरह है इसलिए इस उपनाम को धारण करने के सच्चे अधिकारी वे सिद्ध होते हैं ।
अतिथि कलम में डॉ.परदेशीराम वर्मा जी का आलेख उनकी पत्रिका अगासदिया 32 जगमग छत्तीसगढ अंक से साभार.

टिप्पणियाँ

  1. आपका ब्लॉग बहुत अच्छा है. आशा है हमारे चर्चा स्तम्भ से आपका हौसला बढेगा.

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  2. गिरीश जी का नाम मेरे लिए भी अपरिचित नहीं है, जबलपुर में रहकर भी उनके बारे में सुनता रहता हूँ.
    आप की इस पोस्ट से उनके और करीब आने का अवसर मिला. आपको आभार.

    - विजय तिवारी ' किसलय '

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  3. कुशल कथाशिल्पी, वरिष्ठ साहित्यकार, सामाजिक योद्धा डा. परदेसीरम वर्मा जी के बारे में क्या कहूं. उन्होंने अपने इस अनुज की कुछ ज़्यादा ही तारीफ कर दी. यह स्नेह है उनका. खुद इतने बड़े लेखक है, और सबसे बड़ी बात, अच्छे मनुष्य भी है. उन्होंने उदारता के साथ मुझ पर कलम चलाई. ऐसे लेख जब आते है, तो कुछ विचलित-सा भी हो जाता हूँ. लगता है, कि मेरी जिम्मेदारी कुछ और बढ़ गयी है. मुझे संभल कर चलना चाहिए. और बेहतर बनाने की कोशिश करनी चाहिए. मै किसी का विश्वास, किसी का दिल न तोड़ सकूं. मेरा एक शेर है- ''मै अँधेरे में दिया बन कर यहाँ जलता रहूँ/ रास्ता थक जाये लेकिन मै सदा चलता रहूँ/ जो मुझे दुश्मन समझते हैं, उन्हें मैं प्यार दू/ हो ना ऐसा मैं भी उनकी रूह में ढलता रहू''. एक गीत भी कभी लिखा था, कि '' जो भी मुझको शूल चुभोये, उसको दूं मैं फूल/ बना रहे यह ऊपरवाले, हरदम मेरा उसूल''. तो...कोशिश यही है कि जीवन में कुछ ऐसा करुँ कि परदेसीरामजी जैसे अग्रजों को कभी शर्मिन्दा न होना पड़े. और भाई संजीव...तुमने भी कमाल कर दिया. मेरे प्रति अद्भुत सद्भावना दिखाई? कहाँ से खोज कर निकाल लाए यह लेख..? संकोच में हूँ. क्या कहूं..बस, यही सोचता हूँ कि मेरे प्रति अनुजों-अग्रजों के मन में जो प्यार है,वह बना रहे. मैं उस लायक बने रहने की कोशिश भी करता रहूँ. सच बात तो यह है,कि कुछ भी नहीं हूँ, लेकिन लोगों का प्रेम देख कर यही लगता है,कि सब चाहते है,कि मै कुछ बेहतर करुँ.कोशिश करूंगा कि अपने चाहने वालों के विश्वास को बनाए रखूँ.

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  4. नासिर भाई के उस कालम का नाम अभी बिल्‍कुल अभी था, उस कालम ने बहुत से नवोदित कवियों को सामने लाया, परदेशी जी की कलम से गिरीश पकंज जी के बारे पढकर अच्‍छा लगा, आपने इसे प्रकाशित कर 15 साल पहले के भिलाई के हिंदी जगत की याद दिला दी, आपको साधुवाद,,,,

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  5. बात नासिर व पंकज जी की हो तो टांग अडाने की इच्‍छा जाग गई ,दोनो का पिछले बीस सालो से आकार प्रकार विचार और व्‍यवहार का न बदलना भी खूब हैं , खाकी निकर के दौर में ऐसी लोगो की चर्चा , कुछ तो बात है,
    सतीश कुमार चौहान ,भिलाई

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  6. कवि नासिर अहमद सिकन्दर का वह कालम " आमने सामने " बहुत चर्चित रहा है । इस पोस्ट में मुझे चार अपने लोग दिखाई दे रहे हैं .. नासिर अहमद सिकन्दर , परदेशी राम वर्मा , गिरीश पंकज और संजीव तिवारी .. सभी से मिलकर अच्छा लगा ।

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