मंच नहीं, भूमि होती है बस्तरिया नाट में : योगेंद्र ठाकुर सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

मंच नहीं, भूमि होती है बस्तरिया नाट में : योगेंद्र ठाकुर

हर समाज, देश और प्रांत में अपना नाट्य रंग है। बस्तर के उड़ीसा सीमाई क्षेत्र में "नाट" का अपना अलग जलवा है। यही वजह है कि ऋतु परिवर्तन के साथ ग्रामीण नाट करने टोली के साथ निकल पड़ते हैं और दर्शक सारी रात खुले आसमान के नीचे बैठकर इसका आनंद लेते हैं। बस्तर के ग्रामीणों को नाट देखने या दिखाने के लिए किसी दिवस विशेष की जरूरत नहीं होती। नाट को ये जन्म से लेकर मृत्यु तक के हर संस्कार और समारोह का हिस्सा मानते और आमंत्रित करते हैं। जन्मोत्सव पर जहाँ श्रीकृष्ण और श्रीराम जन्म का पाठ करते हैं,वहीं मृत्यु भोज के दौरान राजा हरिश्चंद व मुंदरा माँझी को कलाकार जीते है। विवाह के दौरान शिव-पार्वती, राम-सीता विवाह का प्रसंग होता है। इसके अलावा अब शासकीय योजनाओं के संदेशों का भी नाट में कमर्शियल ब्रेक की तरह उपयोग होने लगा है। यहाँ कलाकार और दर्शक के बीच दूरी नहीं होती। क्योंकि नाट में नृत्य, गीत, संगीत, संवाद, साज-सज्जा, सहजता और सरल बोली होती है। जिसे दर्शक अपने आसपास के कलाकारों से पाता है और सारी रात खुले मैदान में गुजार देता है। रंगकर्मी और बस्तर नाट पर कार्य कर रहे रुद्रनारायण पाणिग्राही का कहना है कि उड़िया-भतरी नाट को राज्य सरकार संरक्षण और उचित मंच दे तो यह भी राज्य व विश्व में अपनी अलग छवि बना पाएगा अन्य आधुनिकता की होड़ में फिल्मी संगीत में खो जाएगा।
नाट कलाकार भी जमीन से जुड़े होते हैं और उनके गाँव की पहचान भी नाट पार्टी और कलाकारों से की जाती है। वे व्यावसायिक कलाकार न होकर शौकिया और अपनी व गाँव की पहचान बनाए रखने नाट खेलते हैं। अलबत्ता स्पर्धाओं में भाग लेकर अपनी विशेषता दर्शाते हैं। नाट में एक गुरु होता है, जो कथा पाठ के साथ सभी पात्रों के संवाद भी बोलता है। जबकि कलाकार केवल भाव भंगिमा प्रस्तुत कर लोगों को बाँधे रखते हैं। इनकी वेशभूषा भी तड़क-भड़क और रंगबिरंगी होती है। इसमें लहँगा, चोली, झापा, माला, साड़ी, टोपी और लकड़ी से तैयार हाथी-घोड़े और हथियार होते है। जबकि वाद्य यंत्रों में हारमोनियम के साथ मृदंग, मंजीरा, करताल, झाप, तुड़बुड़ी, मोहरी जैसे पारंपरिक यंत्र होते है।
बस्तरिया नाट में महिला पात्र को जीने के लिए महिला कलाकार नहीं होती। इसे पुरुष ही बड़ी सहजता के साथ निभाता है और दुर्गा के रौद्र रूप के साथ सीता क सहज रूप का श्रृंगार पुरुष ही धरता है. बस्तर के लोक नाट्य की सबसे बड़ी परंपरा यह होती है कि उसका कोई रंगमंच नहीं होता। यदि होता भी है तो वह है रंगभूमि, जो बस्तरिया नाट में मिलता है। यह मंच खुले आसमान और खुले मैदान में होता है जहाँ दर्शक तीन तरफ से बैठकर नाट का आनंद लेते हैं।

योगेंद्र ठाकुर

टिप्पणियाँ

  1. हां रात रात भर दर्शकों से मैदान अटा पड़ा रहता है ! सारे सम्मोहन सही हैं पर यह मूलतः ओड़िया संस्कृतिकर्म है , भतरी बोली का जुडाव कालांतर में हुआ ! मेरे विचार से इसे इसी रूप में स्वीकार किया जाना चाहिये कि यह विशुद्ध बस्तरिया संस्कृति कर्म / नाट / नाट्य नहीं है ! दरअसल भतरा रहवास और उड़ीसा का नैकट्य कुछ ऐसा है कि भतरा आदिवासी ही उड़ीसा से आप्रवासी माने जाते हैं वे स्वयं भी मूलतः बस्तरिया कहां हैं ? उनकी बस्तर रिहायश पिछले कुछ सौ वर्षों से गिनी जा सकती है वे बस्तर महाराजा के साथ उड़ीसा से आये हुए लोग हैं ठीक ३६० घर आरण्यक ब्राह्मणों की तरह ! अतः इसे उड़िया भतरा नाट कहने से भी इसकी सुगंध केवल और केवल ओड़िया ही हुई अलबत्ता जिसने बस्तर को मदमस्त कर रखा है !

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  2. मेरे लिए यह जानकारी नई है। लेकिन हम इसी तरह यहाँ भूमि पर नाटक करते रहे हैं।

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  3. ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसी लोक कलाओं , नाटिकाओं का अपना ही एक आकर्षण रहा है ...एक नई लोककला से परिचय करवाने का आभार संजीव भाई
    अजय कुमार झा

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  4. बढिया पोस्ट संजू भैया।ठाकुर साब का आभार,उन्होने बढिया जानकारी दी और अली साब के कमेण्ट ने तो बची-खुची कसर भी पूरी कर दी।

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  5. बहुत बढ़िया संजीव
    नवा नवा चीज ले तय अवगत करावत
    रथस बने लागथे

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  6. Sanjeev ji, is aalekh me ye baat achachhi lagi ki suru me hi aapne lekhak ka naam de diya.. kai baar ye dokha ho jata hai ki ye aapake lekh hai aaur ant me pata chalata hai ki ye kisi dusare ke vichar hai ..
    aapke blog ke ek paathak ke taraf se ye sujhav hai ki aisa har us lekh ke baare me suru me hi naam de de to lekh padhane me aasani hoti hai ..

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आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

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