कैसे बने हमारी भाषाई पहचान सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

कैसे बने हमारी भाषाई पहचान

आज नेट पर आपका ब्लॉग देखा. जनभाषा छत्‍तीसगढी में ब्लॉग शुरू करने के लिए बधाई!

हमलोग यहाँ झारखण्ड में झारखंडी भाषाओँ के संरक्षण और उनके विकास के लिए पिछले ६ वर्षों से काम कर रहें हैं. इनमें आदिवासियों और गैरआदिवासियों दोनों की भाषायें शामिल हैं. हालाँकि झारखण्ड आन्दोलन के कारन १९८२ से ही यहाँ ९ झारखंडी भाषाओं की पढाई एम ए लेवल पर हो रही है परन्तु अभी भी इन्हें प्राथमिक स्टार पर नहीं पढाया जा रहा है.

जो लोग यह कहते हैं की जन या आदिवासी भाषाओं के प्रोत्साहन से हिंदी अथवा संस्कृत जैसी दूसरी भाषाओं को नुक्सान होगा वे इस बात को नहीं समझ पा रहें हैं की इन भाषाओं को अवसर दिए बिना राष्ट्रभाषा को समर्थ नहीं बनाया जा सकता है. आज अगर अंग्रेजी राज कर रही है तो उसके मूल में मातृभाषाओं की अनदेखी ही है.

झारखंडी भाषाओं के सवाल पर हमने देश भर में फैले अपने लेखकों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों को झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखडा नमक संगठन के बैनर टेल एकजूट किया है. देखें: अखडा  नागपुरी-सादरी भाषा में एक मासिक पत्रिका जोहार सहिया निकालते हैं जो की बहुत कुछ छत्‍तीसगढी भाषा से मिलतीजुलती है. इसे आप यहाँ देख सकते हैं: जोहार सहिया  हमारा एक पाक्षिक अखबार भी है. जिसमे झारखंड की और हिंदी मिलाकर १२ भाषाओं में लेख और समाचार रहतें हैं. जोहार दिसुम संसाधन नहीं होने तथा अत्यंत छोटी टीम होने के कारन हम इसे समय पर अपडेट नहीं कर पाते हैं परन्तु प्रिंट में सभी नियमित हैं. हमारा यह पूरा पर्यास नितांत सामूहिक है और कहीं से भी फंडेड नहीं है.

आप सभी छत्‍तीसगढी बन्धु अपने भाषाई पहचान बनाएं रख सकें येही शुभकामना है.

आपका ही संगी

अश्विनी कुमार पंकज
स्‍थानीय भाषा और बोली में ब्‍लाग संचालन को प्रोत्‍साहन देने के लिए समय समय पर पाठकों की टिप्‍पणियां और मेल प्राप्‍त होते रहते हैं. हमारे छत्‍तीसढ़ के एवं हिन्‍दी ब्‍लाग जगत के पूर्णसक्रिय  प्रख्‍यात मूंछों वाले ब्‍लागर ललित शर्मा जी नें हमें पिछले दिनों बतलाया था कि इस प्रकार के मेल उन्‍हें भी प्राप्‍त होते रहे हैं और उन्‍होंनें भी अपना 'अडहा के गोठ' को इसी उद्देश्‍य से नियमित रखा है. ललित भाई भाषाई दूरी को समाप्‍त करने के हित से अपने पोस्‍टों में कठिन छत्‍तीसगढ़ी शव्‍दों का हिन्‍दी अर्थ भी देते रहे है. हम अपने गुरतुर गोठ में नव प्रयोगों को आत्‍मसाध तो नहीं कर पा रहे हैं किन्‍तु प्रदेश के इंटरनेट के जानकार छत्‍तीसगढ के साहित्‍यकारों के मूल प्रोत्‍साहन के कारण न्‍यून टिप्‍पणियों और न्‍यून पेजव्‍यू के बावजूद हम छत्‍तीसगढ़ी भाषा के गुरतुर गोठ को नियमित रख पा रहे हैं. ऐसे ही एक पाठक अश्विनी कुमार पंकज जी का मेल पिछले दिनों हमें प्राप्‍त हुआ था. जिसे हम यहां बाक्‍स में प्रस्‍तुत कर रहे हैं ताकि हमारे मन में अपनी भाषा-बोली के प्रति स्‍नेह बरकरार रहे और पाठकों से भी इन भावनाओं को हम बांट सकें.

मेरे प्रेरक -

हिन्‍दी से मिलते - जुलते स्‍थानीय बोली-भाषा के अन्‍य ब्‍लागों को देखकर-पढ़कर हमें खुशी होती रही है जिनमें से अब भोजपुरी में भी ब्लॉग बबुआ प्रभाकर पाण्डेय देवरिया से लेकर कुशीनगर की कथाओं का जिक्र भोजपुर नगरिया , मिथिला मिहिर , कतेक रास बातक , विदेह , आदि हैं.

नारद के दिनों में जब छत्‍तीसगढी ब्‍लाग का ब्‍लागजगत में पदार्पण हुआ था तब रवि रतलामी जी नें  चिट्ठाकार गूगल ग्रुप में कहा था - नारद के लिए छत्तीसगढ़ी भाषा (हिन्दी की उपभाषा, जो हिन्दी पढ़ने समझने वालों के लिए मुशकिल नहीं होगी, बल्कि भोजपुरी की तरह मजेदार ही लगेगी - सुग्घर (सुंदर) के चिट्ठे -
1. http://mahanadii.blogspot.com/
2. http://chhattisgarhi.blogspot.com/
आज ये दोनों चिट्ठे सक्रिय नहीं हैं मगर ज्‍योति इन्‍हीं नें जलाई है. और हमें गर्व है कि हमने ब्‍लागजगत में अपनी  भाषाई पहचान बनाई है. गुरतुर गोठ जैसे कई ब्‍लाग अब निरंतर रहेंगें .....

नवराती के जगमग ज्‍योति के त्‍यौहार में राम नवमी की हार्दिक शुभकामनांए . . .

संजीव तिवारी

टिप्पणियाँ

  1. संजीव भाई,
    कोई भी भाषा हो वह हृदय से ग्राह्य होती है,
    अपने आप ही बोल मुंह फ़ुट पड़ते हैं,
    यह सब नैसर्गिक हो्ता है। भाषा बोली कहीं ना कहीं
    जीवित रहती है भले ही व्यवहार मे ना हो।

    बहुत दिनों से 36 ब्लाग पर कुछ नही लिख पाया,
    जल्दी ही आपको एक ब्रांड न्यु कहानी लिख कर भेजता हुँ।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत बहुत बधाई हो संजू रामनवमी की और छत्तीसगढी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिये किये जा रहे प्रयासों की।

    जवाब देंहटाएं
  3. यही तो अंतहीन संभावनाएं इस माध्यम की. बहुत अच्छा लगता है यह जानकर कि आज कोई भी किसी भी भाषा में लिख कर अपनी बात कहीं भी पल भार में पहुंचा सकता है. आज लेखन काग़ज का मोहताज़ नहीं रह गया है.

    मेरा तो मानना है कि किसी भी भाषा के प्रचार-प्रसार में जितना संभावनाएं आज हैं, एसी पहले कभी नहीं रहीं.

    जवाब देंहटाएं
  4. Mahula beech beech me aisan email milat rathe .. aaj hi mola ye scrap mile he ..

    sabbo la batabo
    au sab la samjhabo
    apan goth ke mahima haman sabbo
    la samjhabo,
    jab hohi ekar man
    tav hamuman maan pabo,
    apan man ke baat la
    apan gothe ma batabo,
    angreji hindi amuman jani par apan goth ke mahima la nai bhulabo,
    tabhe ijjat pabo,
    sabke dil me jagah banabo,
    chhattisgarh ke pahchan banabo,
    chhattisgarhi ma gothiyabo,
    chhattisgarhi ma gothiyabo,,,,,,,,,,,,,,,

    जवाब देंहटाएं
  5. आप बहुत महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं संजीव भाई !
    सचमुच !

    जवाब देंहटाएं
  6. छत्तीसगढी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिये आप बहुत महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं संजीव भाई !

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भट्ट ब्राह्मण कैसे

यह आलेख प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट जी नें इस ब्‍लॉग में प्रकाशित आलेख ' चारण भाटों की परम्परा और छत्तीसगढ़ के बसदेवा ' की टिप्‍पणी के रूप में लिखा है। इस आलेख में वे विभिन्‍न भ्रांतियों को सप्रमाण एवं तथ्‍यात्‍मक रूप से दूर किया है। सुधी पाठकों के लिए प्रस्‍तुत है टिप्‍पणी के रूप में प्रमोद जी का यह आलेख - लोगों ने फिल्म बाजीराव मस्तानी और जी टीवी का प्रसिद्ध धारावाहिक झांसी की रानी जरूर देखा होगा जो भट्ट ब्राह्मण राजवंश की कहानियों पर आधारित है। फिल्म में बाजीराव पेशवा गर्व से डायलाग मारता है कि मैं जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय हूं। उसी तरह झांसी की रानी में मणिकर्णिका ( रानी के बचपन का नाम) को काशी में गंगा घाट पर पंड़ितों से शास्त्रार्थ करते दिखाया गया है। देखने पर ऐसा नहीं लगता कि यह कैसा राजवंश है जो क्षत्रियों की तरह राज करता है तलवार चलता है और खुद को ब्राह्मण भी कहता है। अचानक यह बात भी मन में उठती होगी कि क्या राजा होना ही गौरव के लिए काफी नहीं था, जो यह राजवंश याचक ब्राह्मणों से सम्मान भी छीनना चाहता है। पर ऊपर की आशंकाएं निराधार हैं वास्तव में यह राजव

क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?

8 . हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास? - पंकज अवधिया प्रस्तावना यहाँ पढे इस सप्ताह का विषय क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है? बैगनी फूलो वाले कंटकारी या भटकटैया को हम सभी अपने घरो के आस-पास या बेकार जमीन मे उगते देखते है पर सफेद फूलो वाले भटकटैया को हम सबने कभी ही देखा हो। मै अपने छात्र जीवन से इस दुर्लभ वनस्पति के विषय मे तरह-तरह की बात सुनता आ रहा हूँ। बाद मे वनस्पतियो पर शोध आरम्भ करने पर मैने पहले इसके अस्तित्व की पुष्टि के लिये पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की। यह पता चला कि ऐसी वनस्पति है पर बहुत मुश्किल से मिलती है। तंत्र क्रियाओ से सम्बन्धित साहित्यो मे भी इसके विषय मे पढा। सभी जगह इसे बहुत महत्व का बताया गया है। सबसे रोचक बात यह लगी कि बहुत से लोग इसके नीचे खजाना गडे होने की बात पर यकीन करते है। आमतौर पर भटकटैया को खरपतवार का दर्जा दिया जाता है पर प्राचीन ग्रंथो मे इसके सभी भागो मे औषधीय गुणो का विस्तार से वर्णन मिलता है। आधुनिक विज्ञ

दे दे बुलउवा राधे को : छत्तीसगढ में फाग 1

दे दे बुलउवा राधे को : छत्‍तीसगढ में फाग संजीव तिवारी छत्तीसगढ में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा लोक मानस के कंठ कठ में तरंगित है । यहां के लोकगीतों में फाग का विशेष महत्व है । भोजली, गौरा व जस गीत जैसे त्यौहारों पर गाये जाने लोक गीतों का अपना अपना महत्व है । समयानुसार यहां की वार्षिक दिनचर्या की झलक इन लोकगीतों में मुखरित होती है जिससे यहां की सामाजिक जीवन को परखा व समझा जा सकता है । वाचिक परंपरा के रूप में सदियों से यहां के किसान-मजदूर फागुन में फाग गीतों को गाते आ रहे हैं जिसमें प्यार है, चुहलबाजी है, शिक्षा है और समसामयिक जीवन का प्रतिबिम्ब भी । उत्साह और उमंग का प्रतीक नगाडा फाग का मुख्य वाद्य है इसके साथ मांदर, टिमकी व मंजीरे का ताल फाग को मादक बनाता है । ऋतुराज बसंत के आते ही छत्‍तीसगढ के गली गली में नगाडे की थाप के साथ राधा कृष्ण के प्रेम प्रसंग भरे गीत जन-जन के मुह से बरबस फूटने लगते हैं । बसंत पंचमी को गांव के बईगा द्वारा होलवार में कुकरी के अंडें को पूज कर कुंआरी बंबूल की लकडी में झंडा बांधकर गडाने से शुरू फाग गीत प्रथम पूज्य गणेश के आवाहन से साथ स्फुटित होता है - गनपति को म