क्रिकेट नेता एक्टर हर महफिल की शान, दाढ़ी, टोपी बन गया गालिब का दीवान : निदा फ़ाज़ली सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

क्रिकेट नेता एक्टर हर महफिल की शान, दाढ़ी, टोपी बन गया गालिब का दीवान : निदा फ़ाज़ली

पिछले दिनो एक मुशायरे मे भाग लेने के लिये देश के प्रख्यात गज़लकार निदा फ़ाज़ली जी भिलाई आये थे. उनके इस प्रवास का लाभ उठाने नगर के पत्रकार और उत्सुको की टोली उनसे मिलने पहुंची. पत्रकारो के हाथो मे कलम कागज और जुबा पर सवाल थे जिसका निदा फ़ाज़ली जी ने बडी शालीनता व सहजता से जवाब दे रहे थे. हमारे जैसे जिज्ञासु अपने मोबाईल का वाइस रिकार्डर आन कर निदा फ़ाज़ली जी के मुख मण्डल को निहारते हुए उनके बातो को सुनने व सहमति असहमति को परखने की कोशिश कर रहे थे. पिछले दिनों मेरे एक पोस्ट मे बडे भाई अली सैयद जी ने टिप्पणी की जिसमे उन्होने निदा फ़ाज़ली जी द्वारा लिखी गज़ल को कोड किया. उसके बाद से ही हम सोंच रहे थे कि हम भी निदा फ़ाज़ली जी से मुलाकात की कहानी कह डाले. छत्तीसगढ समाचार पत्र के पत्रकार महोदय ने इस लम्बी चर्चा को अपने समाचार पत्र मे प्रकाशित भी किया है. हम निदा फ़ाज़ली जी से हुइ उस चर्चा के कुछ अंश यहा प्रस्तुत कर रहे है-
छत्तीसगढ के ज्वलंत समस्या नक्सलवाद पर लोगों ने जब निदा फ़ाज़ली जी से प्रतिक्रिया लेनी चाही तो निदा फ़ाज़ली जी ने कहा कि नक्सलवाद जो है वो क्रिया नहीं प्रतिक्रिया है. यह इस बात की प्रतिक्रिया है कि हमारा पूरा देश चंद अंबानियों में बंटा हुआ है, अब मॉल कल्चर पैदा हो रहा है. उसमें अंडे वाले, भाजी वाले और दूसरे छोटे धंधे करने वाले बेकार हो रहे हैं. दिक्कत यह है कि कुछ लोग इन विडंबनाओं को भगवान की नाराजगी समझ कर खामोश हो जाते हैं. वहीं जो लोग इनके खिलाफ खड़े हो जाते हैं उनको लोग नए-नए नामों से पुकारते हैं. उसे नक्सलवाद भी कहते हैं. नक्सलवाद या और भी किस्म के सामाजिक विद्रोह हैं उनको खत्म करने के लिए पहले नंदीग्राम को खत्म करो. मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ और देश के दूसरे हिस्सों से सांप्रदायिकता खत्म करो, सामाजिक विडंबनाएं खत्म करो. दिक्कत दरअसल यह है कि हमारे यहां एजुकेशन नहीं है इसलिए जागृति नहीं है. ऐसे में कुछ लोग हथियार उठा लेते हैं सामाजिक अन्याय के खिलाफ. हमें चाहिए बहुत सारे अंबेडकर, खैरनार और अन्ना हज़ारे.
इन सबके पीछे अशिक्षा को मूल कारण बतलाते हुए उन्होने कहा कि शिक्षा के लिए आपके पास पैसा नहीं है बम बनाने पैसा है करप्शन के लिए पैसा है. ये पूरी समस्याएं हैं, किसी को एक दूसरे से अलग कर के नहीं देखी जा सकी. जरूरत इस बात की है कि ज्यादा से ज्यादा एजुकेशन पैदा हो. आजादी की रोशनी वहां तक पहुंचे जहां बरसों से गरीबी का, गंदे पानी का, खस्ताहाल सड़को का, बेरोजगारी का अंधेरा फैला हुआ है. सरकार चाहे किसी की भी हो हमारा संविधान कहता कुछ है और सरकार करती कुछ और हैं. अब हर काम को भगवान के हवाले कर दिया गया है. बच्चे पैदा करना भी भगवान के हवाले हो गया है. जब तक बदलते वक्त पे अपना अख्तियार नहीं रखेंगे हर काम भगवान करता रहेगा, बच्चे भी भगवान पैदा करता रहेगा और जनसंख्या बढ़ती रहेगी, पतीली का आकार बढ़ेगा नहीं खाने वाले बढ़ते चले जाएंगे. और इस तरह की विडंबनाएं पैदा होती रहेंगी. इस पर उन्होने एक शेर सुनाया और महफिल खुशनुमा हो गया. आप भी देखे -
खुदा के हाथ में मत सौंप सारे कामों को, 
बदलते वक्त पे कुछ अपना अख्तियार भी रख।
साहित्य और संस्कृति के बाजारू रुपो पर अपनी नाराजगी जताते हुए उन्होने कहा आज के कल्चर में शब्दों का महत्व बिल्कुल नहीं है. क्रिकेट नेता एक्टर हर महफिल की शान- दाढ़ी, टोपी बन गया गालिब का दीवान . आज क्रिकेट नजर आता है एक्टर नजर आता है पालिटिशियन नजर आता है. गालिब कहीं नजर आता है? एक फैशन बन गया है सिर्फ पार्लियामेंट में कोट करने गालिब, रहीम और कबीर की चंद लाइनें होती हैं. इस गलतफहमी में मत रहिए कि शब्दों का आज महत्व है. यह इसलिए क्योंकि शब्द बाजार की चीज नहीं है. आज आलू और टमाटर ज्यादा बिकते हैं शब्द कम बिकते हैं. रचनाकारो-कलमकारो के निरंतर कलम घसीटी करनें और कलम के दम पर इंकलाब लाने की क्षमता पर प्रश्न पूछने पर उन्होने कहा कि आप इस धोखे में मत रहिए कि कलम से इंकलाब आ सकता है. आज हमारे समाज के बदलावों ने कलम का दायरा बेहद छोटा कर दिया है. हां, यह जरूर है कि कलम से बेदारी पैदा की जा सक ती है कि अवाम अपने हक के लिए लडऩा सीखे.
सम्मानो-पुरस्कारो पर चुटीले सम्वाद मे उन्होने कहा कि पद्म सम्मानों को लेकर हमेशा विवाद की स्थिति रहती है. आपको आज तक ये सम्मान नहीं मिले..? आज हर चीज बिजनेस है. मैं कभी पद्म सम्मानों की दौड़ में नहीं रहा. मिलने पर मैं इहें ठुकरा भी सकता हूं. क्योकि मैं मानता हूं कि कुत्ते के गले में पट्टा डाल दिया जाए तो कुत्ता एक का हो जाता है. मुझे चाहिए आम लोगों की प्रशंसा. मैं आम लोगों के लिए लिखता हूं और अगर आम लोग मुझे एप्रिशिएट करते हैं तो मेरा काम हो जाता है. पद्म सम्मान आज जिस तरह दिए जा रहे हैं उसकी वजह यह है कि हमारे जिम्मेदार लोगों मे अवेयरनेस है ही नहीं. हद तो यह है कि बेकल उत्साही को पद्मश्री मिल जाती है और अली सरदार जाफरी को नहीं मिलती. क्योकि हमारे जिम्मेदार लोग कुछ जानते ही नहीं, यह उनकी गलती नहीं है. बाइबिल में भी कहा गया है कि हे ईश्वर,उहें माफ कर दो वो जानते नहीं कि वो क्या कर रहे हैं.
छत्तीसगढी के पारम्परिक गीत "ससुराल गेंदा फूल" के उपयोग पर आहत होते हुए उन्होने कहा कि फिल्मों में इंस्पिरेशन के नाम पर कापी का दौर थमता नहीं दिखता..? यह आज की बात नहीं है ऐसा हमेशा से होता रहा है. तकलीफ इस बात की है कि इसके खिलाफ कोई एक्शन नहीं लिया जाता है. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता थी ‘इब्न बतूता पहन के जूता’. उसका इस्तेमाल आज की फिल्म ‘इश्किया’ में हुआ यानि सर्वेश्वर दयाल को पुस्तक से बाहर आने में 33 साल लगे? मैं साहित्य को साहित्य के इतिहास से पहचानता हूं. मुझे मालूम है कि शब्द का क्या महत्व होता है. अगर मैं राइटर हूं और पोएट हूं तो दूसरों के शब्द और दूसरों की रचनाओं की हिफाज़त करना भी मेरा फजऱ् है. मिर्ज़ा ग़ालिब का शेर उठा कर ‘दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात-दिन’ गीत अपने नाम से लिखने का काम मैं नहीं करूंगा. मैं खुद नई बात लिखने की कोशिश करूंगा. 150 साल से ज्यादा की उम्र के ग़ालिब को निजामुद्दीन की अपनी कब्रगाह से निकल कर बंबई आने में काफी वक्त लगेगा और अब वह इतने बूढ़े हो चुके हैं कि आएंगे भी नहीं. इसलिए आप ग़ालिब को आसानी से एक्सप्लाइट कर सकते हैं. अब छत्तीसगढ़ का लोक गीत है ‘ससुराल गेंदा फूल’ इस पर किसी और को फिल्म फेयर अवार्ड भी मिल जाता है क्योंकि यह पब्लिसिटी का युग है और इसे स्वीकार करना चाहिए यही हकीकत है.

टिप्पणियाँ

  1. चर्चांश बढ़िया हैं

    जवाब देंहटाएं
  2. मै निदा फाज़ली साहब का फैन हूँ ।

    जवाब देंहटाएं
  3. ....बेहद प्रभावशाली साक्षात्कार/अभिव्यक्ति!!!

    जवाब देंहटाएं
  4. श्याम कोरी 'उदय' से आगे...

    संजीव भाई हम बेवज़ह तो आपके शैदाई नहीं हैं !

    जवाब देंहटाएं
  5. निदा फाजली साहब को मौका मिलते ही पढ़ सुन लेता हूँ...

    आपने पोस्ट में चर्चा किया अच्छा लगा :)

    जवाब देंहटाएं
  6. nida fajali saahab ke khayalat pahunchane ke liye sanjeev ji ko dhanyawad ..

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भट्ट ब्राह्मण कैसे

यह आलेख प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट जी नें इस ब्‍लॉग में प्रकाशित आलेख ' चारण भाटों की परम्परा और छत्तीसगढ़ के बसदेवा ' की टिप्‍पणी के रूप में लिखा है। इस आलेख में वे विभिन्‍न भ्रांतियों को सप्रमाण एवं तथ्‍यात्‍मक रूप से दूर किया है। सुधी पाठकों के लिए प्रस्‍तुत है टिप्‍पणी के रूप में प्रमोद जी का यह आलेख - लोगों ने फिल्म बाजीराव मस्तानी और जी टीवी का प्रसिद्ध धारावाहिक झांसी की रानी जरूर देखा होगा जो भट्ट ब्राह्मण राजवंश की कहानियों पर आधारित है। फिल्म में बाजीराव पेशवा गर्व से डायलाग मारता है कि मैं जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय हूं। उसी तरह झांसी की रानी में मणिकर्णिका ( रानी के बचपन का नाम) को काशी में गंगा घाट पर पंड़ितों से शास्त्रार्थ करते दिखाया गया है। देखने पर ऐसा नहीं लगता कि यह कैसा राजवंश है जो क्षत्रियों की तरह राज करता है तलवार चलता है और खुद को ब्राह्मण भी कहता है। अचानक यह बात भी मन में उठती होगी कि क्या राजा होना ही गौरव के लिए काफी नहीं था, जो यह राजवंश याचक ब्राह्मणों से सम्मान भी छीनना चाहता है। पर ऊपर की आशंकाएं निराधार हैं वास्तव में यह राजव

क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?

8 . हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास? - पंकज अवधिया प्रस्तावना यहाँ पढे इस सप्ताह का विषय क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है? बैगनी फूलो वाले कंटकारी या भटकटैया को हम सभी अपने घरो के आस-पास या बेकार जमीन मे उगते देखते है पर सफेद फूलो वाले भटकटैया को हम सबने कभी ही देखा हो। मै अपने छात्र जीवन से इस दुर्लभ वनस्पति के विषय मे तरह-तरह की बात सुनता आ रहा हूँ। बाद मे वनस्पतियो पर शोध आरम्भ करने पर मैने पहले इसके अस्तित्व की पुष्टि के लिये पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की। यह पता चला कि ऐसी वनस्पति है पर बहुत मुश्किल से मिलती है। तंत्र क्रियाओ से सम्बन्धित साहित्यो मे भी इसके विषय मे पढा। सभी जगह इसे बहुत महत्व का बताया गया है। सबसे रोचक बात यह लगी कि बहुत से लोग इसके नीचे खजाना गडे होने की बात पर यकीन करते है। आमतौर पर भटकटैया को खरपतवार का दर्जा दिया जाता है पर प्राचीन ग्रंथो मे इसके सभी भागो मे औषधीय गुणो का विस्तार से वर्णन मिलता है। आधुनिक विज्ञ

दे दे बुलउवा राधे को : छत्तीसगढ में फाग 1

दे दे बुलउवा राधे को : छत्‍तीसगढ में फाग संजीव तिवारी छत्तीसगढ में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा लोक मानस के कंठ कठ में तरंगित है । यहां के लोकगीतों में फाग का विशेष महत्व है । भोजली, गौरा व जस गीत जैसे त्यौहारों पर गाये जाने लोक गीतों का अपना अपना महत्व है । समयानुसार यहां की वार्षिक दिनचर्या की झलक इन लोकगीतों में मुखरित होती है जिससे यहां की सामाजिक जीवन को परखा व समझा जा सकता है । वाचिक परंपरा के रूप में सदियों से यहां के किसान-मजदूर फागुन में फाग गीतों को गाते आ रहे हैं जिसमें प्यार है, चुहलबाजी है, शिक्षा है और समसामयिक जीवन का प्रतिबिम्ब भी । उत्साह और उमंग का प्रतीक नगाडा फाग का मुख्य वाद्य है इसके साथ मांदर, टिमकी व मंजीरे का ताल फाग को मादक बनाता है । ऋतुराज बसंत के आते ही छत्‍तीसगढ के गली गली में नगाडे की थाप के साथ राधा कृष्ण के प्रेम प्रसंग भरे गीत जन-जन के मुह से बरबस फूटने लगते हैं । बसंत पंचमी को गांव के बईगा द्वारा होलवार में कुकरी के अंडें को पूज कर कुंआरी बंबूल की लकडी में झंडा बांधकर गडाने से शुरू फाग गीत प्रथम पूज्य गणेश के आवाहन से साथ स्फुटित होता है - गनपति को म