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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

क्या इंटरनेट परोस रहा है नक्सल विचार धारा ??

गूगल सर्च में यदि आप अंग्रेजी एवं हिन्दी में ‘नक्सल’ शब्द को खोंजें तो लगभग पांच लाख पेज की उपलब्धता नजर आती है. इन पांच लाख पेजों पर सैकडों पेजों के लिखित दस्तावेज, चित्र व फिल्मो के क्लिपिंग्स उपलब्ध हैं जिनमें से कईयों मे, लाल गलियारे को स्थापित करने वाली विचारधारा को हवा दी गई है. इन पेजों में घृणा का बीज बोंते लोग भी हैं तो मावोवादी विचारधारा के विरूद्ध आवाज उठाने वाले लोग भी हैं जो टिमटिमाते दिये के सहारे इस हिंसक विचारधारा के अंधेरे को दूर करने का प्रयास कर रहे हैं.

सैकडों व हजारों की संख्या में प्रतिदिन क्लिक होने वाले. खूब पढे जाने वाले इन ब्लागों में शहीद कामरेडों के चित्रों, छत्तीसगढ में हुए तथाकथित पुलिस बर्बरता के किस्से, फर्जी मुठभेडों व शोषण के शब्द चित्रों, बलत्कार के वाकयों को बयां करते लेखों व विचारों की अधिकता है. इसके साथ ही मानवतावा‍दी विचारधारा वाले व हिंसा से विरत रहने के अपील करते लेखों व नक्सल समस्या पर सार्थक विमर्श करते ब्लागों की भी कतारें  हैं. इसके अतिरिक्त नेट में फैले तथाकथित मानवतावादी, खालिस मावोवादी, नक्सलवादी व जनवादियों एवं बस्तर, नक्सल व छत्तीसगढ के मुद्दों पर बहस करने वालों या इन पर कलम चलाने वालों की भी लम्बी फेहरिश्त है. समाचार सूचना के अन्य माध्यम व पिंट मीडिया को जिसके लिये सेंसर, नैतिक कर्तव्य व सरकारी मंशा के साथ ही बहुसंख्यक जनता का ध्यान रखते हुए लेखन व प्रकाशन करना पडता है. वहीं इन पोर्टलों व ब्लागों में सीधे जमीन से उपजे समाचार व आन्दोलित कर देने वाले विचारों का पुलिंदा वीडियों, आडियो व फोटो सहित नेट में प्रतिदिन प्रकाशित हो रहे हैं. पुलिस संभावित आरोपियों के घरों से नक्सल साहित्य के नाम पर तलासी में सिर खपाती रही है और यहां ये हाईटेक लोग अपने दस्तावेज आनलाईन कर मुफ्त में हर किसी के लिए उपलब्ध करा रहे हैं. खून को खौलाने के हर हथकंडे अपनाए जा रहे हैं और वाद व विचारधारा के शब्दजाल बुनकर जनमानस को अपने पक्ष में करने का चक्र-कुचक्र जारी है.

वर्तमान में छत्तीसगढ व नक्सली मुद्दों पर ज्यादातर अंग्रेजी में पोर्टल व ब्लाग उपलब्ध हैं. जिनमें ब्लागों की संख्या अधिक है. विश्व सुलभ भाषा अंग्रेजी में होने के कारण बस्तर या छत्तीसगढ के नक्सल व सलवा जुडूम के संबंध में जो जानकारी यहां है वह संपूर्ण विश्व के पाठकों तक उसी रुप मे सर्वसुलभ हो जा रही है. यह भी हो सकता है कि ये ब्लाग के लेखक छत्तीसगढ में ही बैठकर अपना विरोध और अपने चिंतन को तथ्यात्मक रूप से सप्रमाण (ऐसा उनका मानना है) वहां परोस रहे हों. जैसा वहां प्रस्तुत हो रहा है वैसा ही विश्व बौद्धिक समाज उसे ग्रहण कर रहा है और छत्तीसगढ शासन व पुलिस के विरूद्ध मानसिकता तैयार हो रही है. इंटरनेट में फैलाये जा रहे इस तथाकथित वैचारिक क्रांति की संवेदनशीलता इसी बात से स्पष्ट हो जाती है कि विगत दिनों पुलिस प्रमुख व नक्सली प्रवक्ता गुडसा उसेडी एवं सुभ्रांशु चौधरी के बीच जो विमर्श का दौर छत्तीसगढ समाचार पत्र में प्रकाशित हो रहे थे उसमें पुलिस प्रमुख विश्वरंजन जी नें लिखा था कि उन्हे इंटरनेट में हो रहे छत्तीसगढ शासन व पुलिस विरोधी हलचलों की जानकारी गूगल रीडर व एलर्ट से त्वरित रूप से हो जाती है. यानी डीजीपी स्वयं नक्सल विचारधारा के नेट दस्तक के प्रति संवेदनशील हैं. और ... नेट में ऐसे दस्तक प्रतिदिन हो रहे हैं.

सलवा जुडूम,डॉ.बिनायक सेन, अजय जीटी का मसला संपूर्ण विश्व में किस कदर छाया इसका उदाहरण बर्कले मे सामने आया. अमेरिका के सर्वाधिक प्रतिष्ठित बर्कले विश्वविद्यालय में आयोजित एक सम्मेलन मे  संपूर्ण विश्व के चिंतको के सामने छत्तीसगढ के डीजीपी विश्वरंजन जी के विरूद्ध वहां के छात्रो ने ‘विश्वरंजन वापस जावो’ जैसे नारे लगाए और तख्तियां टांगनें पर उतारू हो गए. यह सब पूर्वनियोजित तरीके से नियमित रूप से इंटरनेट के माध्यम से छत्तीसगढ विरोधी खबरें विश्व के कोने कोने में फैलाये जाने से हुआ. बर्कले विश्वविद्यालय कैलीफोर्नियां में दक्षिण एशियाई संगठन के छात्र, प्रिस्टन, हार्वड, येल और अन्य जानेमाने विश्वविद्यालयों के छात्र व शिक्षक एक सुर में छत्तीसगढ शासन व पुलिस के विरोध में खडे हो गए. हालांकि छत्तीसगढ से उस कार्यक्रम में शिरकत करने वाले डीजीपी एवं छत्तीसगढ के संपादक सुनील कुमार जी नें दमदारी से अपना पक्ष रखा था. विदित हो कि संपूर्ण विश्व में इस बडे आयोजन का हो – हल्ला हुआ था, विश्व के प्रबुद्ध समाज इससे वाकिफ हुआ था या इससे वाकिफ कराया गया था. विदेशों में खासकर इंडोनेशिया के महीदी, सीयरालियोन के कामजोर, सूडान के जंजावीद, रवांडा, चाड, आफ्रीका व विश्व के तमाम जन मिलिशियाओं के चिंतकों व शुभचिंतकों तक बस्तर की संवेदनाओं को बांटने एवं उनके समर्थकों/विचारकों को बस्तर के विषय में गंभीर होने एवं अपना समर्थक बनाने में कारगर माध्यम बनने के लिए इंटरनेट बेताब है, यह बर्कले में स्पष्ट हो गया.

इन परिस्थितियो मे नेट मे सक्रिय छत्तीसगढ के हितचिंतको का चिंतन आवश्यक है. क्योकि वर्तमान मावोवादी विचारधारा किसी भौतिक बारी बखरी से सुविधाविहीन नेतृत्व के द्वारा आरंभ होकर अब पूर्णतया सुविधा सम्पन्न एवं तकनीकि सूचना तंत्रों के बेहतर जानकार लोगों के नेतृत्व में फल-फूल रही है. अब नक्सल विचारधारा के पोषक इंटरनेट के द्वारा संपूर्ण विश्व में अपने वाद को उचित ठहराने के उद्देश्य से सक्रिय हैं. यह विश्वव्यापी त्वरित प्रभावी सूचना तकनीकि बहुत ही सहज व सरल है इस कारण उनकी बातों को स्वीकारने वाले एवं उनके पक्षधर पाठकों की संख्या में दिनो दिन इजाफा हो रहा है. वे अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए बस्तर एवं देश के अन्य नक्सल प्रभावित क्षेत्र की तस्वीर जिस रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, उनके पाठक उसी रूप में उसे स्वीकार कर रहे हैं और तथाकथित क्रांति के इस यज्ञ में अपने अपने सामर्थनुसार हबि डालने को उत्सुक नजर आ रहे हैं. दूसरी तरफ इस बात की सच्चाई उजागर करने वालों की जमात इंटरनेट की दुनिंया में कम है. यदि है भी तो वे स्पष्ट रूप से सरकार या पुलिस से प्रायोजित प्रतीत हो रहे हैं जिसके कारण उनकी विश्वसनीयता सामान्य पाठक के लिए संदिग्ध है.

पिछले दिनों भिलाई के आसपास छुपाये गए हथियारों के जखीरों के मिलने पर पूर्व मंत्री भूपेश बघेल जी द्वारा शासन व पुलिस की भर्त्सना एवं न‍क्सलियों के विरूद्ध वैचारिक क्रांति का जो शंखनाद किया था उस वक्त समाचार पत्रों नें हथियारों के इस खेल को ‘नक्सलियों के शहरी नेटवर्क’ का नाम दिया था. डीजीपी विश्वरंजन जी नें भी पिछले दिनों भोपाल में कहा था कि भारत में कुल हिंसक वारदातों में से 95 प्रतिशत हिस्सा मावोवादी हिंसा है. इसके साथ ही उन्होनें यह भी कहा कि नक्सलियों के दो तरह के कार्यकर्ता होते हैं एक पेशेवर और दूसरे जो अंशकालिक तौर पर और कोई दूसरा काम करते हुए उनका शहरी नेटवर्क. मेरी समझ के अनुसार यह शहरी नेटवर्क संचार तंत्र का भरपूर उपयोग करता है और सहीं मायनों में यही धुर जंगल में कैम्प कर रहे लोगों तक विचारों को थोपता है. व्यापक रूप से इन्ही शहरी नेटवर्कों का माइंड वाश किया जाना आवश्यक है. क्योकि शहरी नेटवर्क के बिना नक्सली पंगु हो जावेंगें. शायद इसे ही विगत दिनों विचारकों के द्वारा ‘स्‍ट्रेटेजिक हैमलेटिंग’ कहा-समझा गया. मेरा विचार है कि इन शहरी नेटवर्कों के द्वारा जिस प्रचुरता से इंटरनेट में नक्सल व मावो समर्थित लेख व सलवा जुडूम के विरोध में लेख परोसे जा रहे हैं उसी प्रचुरता से उन विचारधाराओं के समीक्षात्मक व वास्तविक चित्रण प्रस्तुत करते हुए विचार व समाचार नेट में भी उपलब्ध हों. ताकि दुनिया में छत्तीसगढ की सही तस्वीर प्रस्तुत हो सके.

संजीव तिवारी

टिप्पणियाँ

  1. ... नक्सली , सलवा जुडूम .... वर्तमान में ज्वलंत मुद्दे हैं इसलिये इन विषयों पर लेखन स्वभाविक है, जब लेखन बहुतायत मात्रा में होगा तो इंटरनेट पर दिखना स्वभाविक है ...... आप की अभिव्यक्ति प्रभावशाली है!!!!!

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  2. संजीव जी,

    नक्सली आतंकवादियों की बी-टीम हैं - हमारे बहुतायत बुद्धिजीवी। हिन्दी का लेखक गुटबाज है और अमरबेल की तरह है, वह खुद को फलाने फूलने के लिये इस देश-बरगद पर लिपट गया है और विचारधारा के नाम पर लाल डंक घुसेड खून चूसे चला जा रहा है। हिन्दी की कुछ पत्रिकायें व प्रकाशन "वामपंथ" का ठेका उठा कर "प्रतिष्ठा" के लेबल से लटका दी गयी हैं इनमें छ्पने और इनकी दूकानों से पुरस्कार पाने की शर्त है कि "लाल ही लिखो" और इसी रणनीति के फलस्वरूप नक्सलियों के समर्थन में पोथे लिखे जाते हैं। छोटे मोटे तो छोड दीजिये महाश्वेता और अरुंधती जैसी लेखिकाए खुले आम नक्सलियों के समर्थन में लिखती हैं और समाज को गुमराह करती हैं।

    नेट एक सशक्त माध्यम है और इस लिए दुष्प्रचार में इसे हथियार बनाया जा रहा है लेकिन आतंकवाद का समर्थन देशद्रोह है और किसी भी विचारधारा के नाम पर क्षम्य नहीं है।

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  3. संजीव भाई,
    हम तो यहीं रहते हैं ! कुछ मजबूरियां हैं सो हमारे लिए निषिद्ध विषय है ! बाकी विद्वान क्या लिख रहे हैं उसे पढ़कर रह जाते हैं बस ....!

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  4. रविवार को काफी आशा थी आपसे मुलाकात की। पाबला जी ने बताया कि भाभी जी की तबियत खराब होने की वजह से आप नहीं आ पा रहे। आशा है अब ठीक होंगी। अगली बार आप का इंतजार रहेगा।

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  5. बहुत अच्छी और ज्ञानवर्धक लगी यह पोस्ट...

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  6. बहुत बढ़िया!

    नया वर्ष स्वागत करता है , पहन नया परिधान ।
    सारे जग से न्यारा अपना , है गणतंत्र महान ॥

    गणतन्त्र-दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!

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