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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

हाय महंगाई ..... महंगाई महंगाई .

दस पैसे कप चाय तीस पैसे का दोसा से दादाजी का नाश्‍ता हो जाता था आज ये सच्चाई जितनी सुखद लगती हैं, उतनी ही दुखद लगती हैं कि हमारा पोता बीस रुपये कप चाय पीकर दो सौ रुपये का दोसा खाऐगा, बात साधारण सी इसलिऐ हो जाती हैं क्योकि आज जिस वेतन पर पिताजी सेवानिवृत हो रहे हैं बेटा आज उस वेतन से अपनी सेवा की शुरुवात कर रहा हैं, सन् 1965 में पैट्रोल 95 पैसे लीटर था चालीस सालो में पचास गुना बढ गया तो आश्‍चर्य नही की 2050 में भी अगर हम इसके विकल्प को न तलाश पाऐ तो 2500 रुपये लीटर आज जैसे ही रो के या गा के खरीदेगे, मंहगाई के नाम पर इस औपचारिक आश्‍वासन से किसी का पेट नही भरता पर कीमत का बढना एक सामान्य प्रक्रिया जरुर हैं पर ये सिलसिला पिछले कुछ सालो से ज्यादा ही तेज हो गया हैं जहां आमदनी की बढोतरी इस तेजी की तुलना में अपेक्षाकृत कमजोर महसूस कर रही हैं वही से शुरू होती हैं मंहगाई की मार, दरअसल मंहगाई उत्पादक व विक्रेता के लिऐ तो मुनाफा बढाने का काम करती हैं पर क्रेता की जेब कटती जाती हैं.

देश में तेजी से बढती मंहगाई पर राजनेताओ की लम्बे समय से खामोशी समझ से परे हैं बस कैमरे के सामने आपस में कोस कर इतिश्री कर ली जा रही हैं पुर्व में प्याज के दाम पर सरकार गिरने की जैसी बैचेनी कहीं भी दिखती नही दरअसल इस देश में भष्‍ट्राचार और मंहगाई अब प्रजातांत्रिक मुद्रदा ही नही रहा, कहानी कुछ इस तरह हैं कि डीजल के दाम बढे तीन रुपये लीटर, औसतन सौ सवारी लेकर चलने वाली बसे रोज तीन फेरे लगाती हैं एक फेरे में लगते हैं बीस लीटर डीजल, बस मालिको ने भी तीन रुपये सवारी बढाने के नाम पर हडताल, यातायात अस्त व्यस्त, मंत्री जी ने सक्रियता का परिचय देते हुऐ बस मालिको के साथ पांच सितारा बैठक ली बात दो रुपये प्रति सवारी पर सफलतापुर्वक सेंटल कर ली गई, बस मालिको का मंहगाई बढने से प्रतिदिन 1140 रुपये का लाभ बढ गया, उसी एवज में तमाम मंत्री संत्री की कमीशन बढ गई, सिर्फ सवारी के जेब पर पडी मंहगाई की मार जिसे कहा जाता हैं कानून सम्मत लूट.....

राजनेताओ की चुप्पी के अलावा आम लोगो की बेफिक्री का ही नतीजाहैं कि आक्रामक रुप से बढती मंहगाई के बावजूद भी केन्द्र सरकार का लोक सभा चुनाव फिर जीत गई । जिस मध्यम वर्ग की दुहाई में छाती पीट पीट कर मंहगाई की पैरवी की जाती हैं दरअसल वही विश्‍व का सबसे बडा अतिवाद से ग्रसित खरीददार हैं जो अपनी जेब से ज्यादा बाजार को टटोल रहा हैं और इससे पनपते असन्तोष व हीनभावना पर आग में घी डालने का काम कर रहा हैं विज्ञापन जगत जो इस बात में माहिर हैं कि आम आदमी से पैसा कैसे निचोडा जाता हैं चतुर वर्ग इसलिऐ व्यवस्था के साथ मिलकर उसको खोखला करना या फिर अंगूर खट्रटे कह कर उसे कोसते रहना ही उचित समझ रहा हैं , आज जिस दस साल में हम मंहगाई बढने की बात करते हैं उसी अंतराल में आश्‍चर्यजनक ढंग दस गुना ज्यादा कार की बिक्री बढी जिसके ईधन व लोन रकम में ही इस मध्यमवर्ग की आय का एक बडा हिस्सा खिसक रहा हैं,गौरतलब हैं की लाख कोशिशो, कटौतियो के बाद मध्यमवर्ग आज लोन की कार घर के सामने खडाकर ऐसे फूल के बात करता हैं लम्बी दूरी दोडकर धावक विजयी सांस भरता हैं जबकी न तो कार खडी करने की जगह हैं न चलाने बैठने का सहूर.....

मंहगाई का हास्यास्पद पहलू यह भी हैं कि रतन टाटा के द्वारा भारतीय मघ्यम वर्ग के बजट को ध्यान में रख कर बनाया नैनो का सबसे सस्ता माडल सबसे कम बिका मंहगे माडल की मांग आज भी बनी हुई हैं अर्थात सस्ती क्यों ले, अरहर दाल नब्बे रुपये किलो हुई बाजार में विकल्प के रुप में मटर दाल को पैतीस रुपये किलो लाया गया जिसमे अपेक्षाकृत ज्यादा फैट, प्रोट्रीन, कारर्बोहाईड्रट और मिनरल और विटामिन हैं और बनाने बघारने की कला के साथ ज्यादा स्वाद भी लिया जा सकता था पर गले उतरना तो दूर इसकी पूछ परख भी नही हुई । दरअसल उपयोगिता से ज्यादा सुविधा को महत्व दिया जा रहा और इसी मनोविज्ञान के साथ घातक ढग से लोगो में सघर्ष करने की क्षमता खत्म हो रही हैं परिणामत आत्महत्या की प्रवृति बढी इसीलिऐ इस सच को समझ लेना चाहिये की अमीर बनने के लिऐ खर्च करना जरुरी हैं, खर्च करना सीख गऐ फिर, कमाना तो खुद ही सीख जाऐगे, कटुसत्‍य है कि बचत करके कोई अमीर नही बना । दुर्भाग्य से प्रजातंत्र का वोट बैंक इसी बात से बेपरवाह सामाजिक आर्थिक अराजकता फैला रहा हैं जिस सरकारी खजाने से अच्छे सडक, अस्पताल, स्कूल, पानी, कुटीर व पांरम्पारिक व्यवसाय के अलावा अनाज व उर्जा उत्पादन में उपयोग होना चाहिये वह मुफ्तखोरी के चावल बिजली बांटकर वोट बैंक बनाने में खर्च किया जा रहा हैं इस वजह से लोग मेहनत कर अपनी जरुरते जुटाने के बजाय मक्कार बनकर सरकारी सहूलियतो के लिऐ गरीब बना रहना अपेक्षाकृत ज्यादा बेहतर समझ रहे हैं देश के तमाम नीतिर्निधारक समृद्ध राष्‍ट्र निर्माण के लिऐ अगर अच्छे स्वास्थ, शिक्षा, रोजगार,सडक, पानी जैसी बुनियादी आवश्‍यकताओ को उचित नही समझते तो फिर अनिश्चित व दगाबाज वर्षा, बीज, और खाद पर जी तोड मेहनत कर भी कुछ उत्पादन की उम्मीद पर जीने वाला कुछ उत्‍पादन कर भी ले तो न्यूनतम् मूल्य के लिऐ आत्महत्या करने को मजबूर होने के बजाय किसान क्यों न अपनी खेतीहर भूमि को किसी बिल्डर या उद्योगपति को मोटी रकम में बेचकर वह भी जींस टी शर्ट पहन चकाचैंध करते बडे बडे शापिंग माल में पिज्जा बर्गर खाते हुऐ घूमे क्योकी एक छोटी जमीन के टुकडे का मालिक किसान भी लोन की शहरी जिन्दगी से बेहतर हैं, इसलिऐ बढती जनसंख्या के बावजूद लगातार अनाज उत्पादन में कमी आई हैं किसान के प्रति सरकारी बेरुखी के आत्‍मद्याती परिणाम हैं जय जवान जय किसान के देश में जब जवान सत्ता की सहूलियतो से महज वोट बैंक बनकर निकम्‍मा हो जाऐगा और किसान बेबस लाचार तो मंहगाई के आगे अराजकता भी मुंह बाऐ खडी हैं सत्‍ता से ही जुडे लोग वे दलाल किस्म के लोग भी हैं जो आयात निर्यात की कमीशनबाजी और जमाखेरी के खेल से अकेले महाराष्‍ट्र में पिछले प्‍याज के नाम पर तीन हजार करोड डकार गऐ थे.

सतीश कुमार चौहान , भिलाई 98271 13539

चलते चलते - कुछ हल्का फुल्का .....
कल रामहृदय तिवारी जी को प्रदान किये गये ग्यारहवे बहुमत सम्मान कार्यक्रम मे हमारी चर्चा प्रसिद्ध व्यंग्यकार, उपन्यासकार विनोद साव जी से हुई उन्होने हमे आरम्भ के हेडर मे कुछ सुधार करने का सुझाव दिया और हमने उस पर अमल किया. आपको कैसा लगा आरम्भ का नया हेडर .. . .?   संजीव तिवारी.  

टिप्पणियाँ

  1. "दस पैसे कप चाय तीस पैसे का दोसा से दादाजी का नाश्ता हो जाता था .."

    संजीव जी, मुझे आज भी याद है कि बचपन में मुझे मात्र एक पुराना पैसा जेबखर्च के लिये मिला करता था। शायद 60-62 रुपये तनखा थी मेरे पिताजी की। जब मैं हाई स्कूल में था तो कंट्रोल दुकान से मैं स्वयं 56 पैसे किलो शक्कर लाया करता था।

    मँहगाई की समस्या वास्तव में बहुत चिन्तनीय है।

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  2. पचास रुपये में शक्कर
    ८५ रुपये की अरहर दाल
    कर दिया है सबको बेहाल
    है सोचने वाली बात और
    समझकर उपाय बताने वाली बात

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  3. जीना यहाँ मरना यहाँ
    इसके सिवा जान कहाँ,

    एक बार पुरा सिस्टम को फ़ारमेट करना पडेगा।
    सब वायरस हटाना पड़ेगा एन्टी वायरस भी
    वायरस इफ़ेक्टेड हो गया है।
    यही समस्या का निराकरण है।

    जय हो महाराज

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  4. नेताओं का बस चले तो महँगाई शब्द ही शब्दकोश से हटा दें और इसके उपयोग पर रोक लगा दें.
    यह सारी व्यवस्था है तथकथित वैश्वीकरण की जिसमे सरकार द्वारा समर्थित कोमोडिटी का सट्टा खिलाया जा रहा है . जिस वस्तु की कीमत पर हल्ला होता है उसपर इस सट्टे में रोक लगा दी जाती है !
    बाकी पर चलता रहता है . कोई बताएगा इस सट्टे से देश का क्या भला हो रहा है .

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  5. nayaa hedar achcha lag raha hai. poora page achchha hi lagata raha hai. ab aur achcha lag raha hai.meree rachanaye bhi dekh raho, yah dekh kar to aur achcha lagaa. sankranti ki mithasbhari badhaiyaan.

    जवाब देंहटाएं
  6. जाने कहां गए वो दिन...

    जय हिंद...

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