विश्वरंजन या तो मारे जाएंगे या जेल जाएंगे - सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख जनहित वकील प्रशांत भूषण ने आक्रोश में कहा सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

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लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

विश्वरंजन या तो मारे जाएंगे या जेल जाएंगे - सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख जनहित वकील प्रशांत भूषण ने आक्रोश में कहा


विशेष संवाददाता, रायपुर, 11 जनवरी (छत्तीसगढ़)। प्रसिद्ध सुप्रीम कोर्ट वकील और अनेक जनवादी संगठनों की ओर से विभिन्न मामलों में पैरवी करने वाले प्रशांत भूषण छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन पर जमकर बरसे। उन्होने आपरेशन ग्रीन हंट को तत्काल रोकने की मांग करते हुए कहा कि जिस हिसाब से छत्तीसगढ़ पुलिस निर्दोष आदिवासियों का खून बहा रही है उसके चलते जल्द ही या तो विश्वरंजन गोली से मार दिए जाएंगे अथवा वे जेल के भीतर होंगे।

उन्होने चेतावनी दी कि ग्रीन हंट से सिविल वार का अंदेशा है और यह गृह युद्ध छत्तीसगढ़ के शहरी क्षेत्रों को भी अपनी लपेट में ले लेगा। उन्होने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में एमनेस्टी इंटरनेशनल भेजे जाने की मांग भी की। उन्होने विश्वरंजन को छद्म साहित्यकार निरूपित करते हुए छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों की इस बात को लेकर आलोचना की कि वे विश्वरंजन को साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित कर उन्हे सिर पर उठाए घूम रहे हैं।

एक कार्यक्रम के सिलसिले में बिलासपुर आए प्रशांत भूषण कल प्रसिद्ध वकील कनक तिवारी के कार्यालय में शहर के कुछ चुनिंदा पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के साथ बातचीत कर रहे थे। उन्होने इस बात को मानने से इंकार कर दिया कि नक्सलवादियों द्वारा भी निर्दोष आदिवासियों के कत्ल किए जा रहे हैं। उन्होने कहा कि हो सकता है नक्सलियों की ओर से कुछ लोग मारे गए हों परंतु इसका अनुपात एक के मुकाबले सौ ही है। यानि अगर पुलिस वाले सौ बेगुनाहों को मार रहे हैं तो एकाध आदिवासी नक्सलियों की ओर से मारा जा रहा होगा। हालांकि उन्होने कहा कि इस बात की उन्हे ज्यादा जानकारी नहीं है कि नक्सली क्या कर रहे हैं।

उन्होने कहा कि ग्रीन हंट के नाम पर विश्वरंजन जंगलों में जो कर रहे हैं वह उन्हे 'सबसे बड़ा अपराधी साबित करने के लिए पर्याप्त है और उचित समय पर वे जेल जाएंगे। उन्होने बताया कि इस ऑपरेशन से नक्सलियों की तादाद बढ़ेगी। जिन निर्दोषों को सताया जा रहा है उनमें से कम से कम एक फीसदी तो नए नक्सली बनेंगे।

प्रशांत भूषण का मानना है कि ग्रीन हंट का असर कम से कम दो लाख आदिवासियों पर होगा पर इनमें से दो हजार लोग निश्चित ही नक्सली बनेंगे। इस तरह डीजीपी नए नक्सली पैदा कर रहे हैं और माओवादियों का कैडर विस्तारित कर रहे हैं। उन्होने चेतावनी दी कि ग्रीन हंट के खिलाफ इतना भीषण रोष है कि यह गृह युद्ध में तब्दील हो जाएगा। उन्होने चेतावनी दी कि शहर वाले ये न समझें कि वे इस युद्ध से अछूते रह जाएंगे। जंगलों से निकलकर नक्सली शहरी इलाकों में भी कार्रवाई करेंगे।

प्रशांत भूषण ने इस बात पर रोष जताया कि आदिवासियों के प्रति सहानुभूति रखने वाले और मानवाधिकार की चिंता करने वाले हर किसी को विश्वरंजन नक्सली बताने पर तुले हैं और उनके खिलाफ कार्रवाई कर रहे हैं। डॉ. बिनायक सेन, हिमांशु आदि इसी नीति के शिकार हो रहे हैं। उन्होने बताया कि इन तमाम परिस्थितियों पर विचार-विमर्श करने के लिए दिल्ली में एक बैठक इसी शनिवार को बुलाई गई है जिसमें अनेक प्रसिद्ध बुद्धिजीवी, मानवाधिकार व सामाजिक कार्यकर्ता आदि शामिल होंगे।

यह पूछे जाने पर कि क्या नक्सलियों को भी बातचीत के लिए आगे नहीं आना चाहिए, उन्होने कहा कि आखिर वे (नक्सली) किस विषय पर बातचीत करेंगे। उनका तो लोकतंत्र में विश्वास ही नहीं है और वे इस राज्य की सत्ता को उखाड़ फेंकना चाहते हैं। प्रशांत भूषण ने तत्काल राज्य की ओर से युद्ध विराम की मांग करते हुए कहा कि इसके साथ ही तीन काम किए जाने अत्यंत आवश्यक हैं, वे हैं-भूमि सुधार लागू करना, खदान माफिया खत्म करना और एसईजेड के नाम पर होने वाले गैर कानूनी भूमि अधिग्रहण व निजीकरण को रोकना।

प्रशांत भूषण का दावा है कि इतना भी अगर किया जाता है तो माओवादियों की गतिविधियां काफी सीमित हो जाएंगी। जब उनके ध्यान में लाया गया कि छत्तीसगढ़ में एसईजेड जैसी कोई चीज ही नहीं है और निजीकरण भी माओवादियों की गतिविधियों के मुकाबले हाल ही में लागू हुआ है तो उन्होने कहा कि किसी भी रूप में जमीनों का हो रहा अधिग्रहण रोका जाना चाहिए क्योकि इससे आदिवासियों में व्यापक असंतोष फैल रहा है और उनके जीवन-यापन के साधन छिन रहे हैं।

उन्होने पूरे लाल गलियारे (माओवादियों के प्रभाव वाला पट्टा) में एसईजेड के कारण नक्सली गतिविधियों के बढऩे की बात कही। उन्होने कहा कि एसईजेड दरअसल पैसे वालों के लिए अनैतिक और गैर सांवैधानिक तरीके से जमीन हथियाने की सरकारी चाल है जिसमें जनता का कोई फायदा नहीं है। यहां बड़े-बड़े व्यवसायिक प्रतिष्ठान आएंगे और उसके बाद आदिवासियों और ग्रामीणो के लिए कोई भी विकल्प नहीं बचेगा। वे या तो अपनी जमीनें छोडक़र भाग जाएंगे अथवा नक्सली बनकर लड़ते रहेंगे। माओवादियों के इलाकों में खदानों के निजीकरण पर तत्काल रोक की मांग करते हुए प्रशांत भूषण ने कहा कि इससे सरकार को कोई विशेष फायदा नहीं हो रहा है।

कर्नाटक में सरकार को लौह अयस्क में प्रति टन रायल्टी 27 रुपए मिलती है जबकि उसे उद्योगपति छह सौ रुपए प्रति टन की दर से खुले बाजार में बेचते हैं। उड़ीसा में स्टरलाईट इंडस्ट्रीज ने कई लाख टन बाक्साइट भंडार वाले नियामगिरी खदानों पर गैर कानूनी तरीके से कब्जा कर लिया है जिससे वहां के आदिवासियों में व्यापक असंतोष फैला हुआ है। उन्होने आरोप लगाया कि इसमें गृह मंत्री पी. चिदंबरम का भी शेयर है।

प्रशांत भूषण के अनुसार यह खदान माफिया लगातार फल-फूल रहा है और लगभग सभी राजनैतिक दलों की इसमें हिस्सेदारी है। इसीलिए सरकार ने उनसे जमीनें अधिग्रहित कर इन कंपनियों को दे दी है। इसी के चलते माओवादियों का प्रभाव क्षेत्र लगातार बढ़ रहा है तथा कोई भी सरकार उन पर प्रभावशाली ढंग से अंकुश नहीं कर पा रही है। इसका कारण उन्होने यह भी बताया कि पुलिस का मनोबल अत्यंत गिरा हुआ है जबकि माओवादी कई वर्षों से इतने बड़े क्षेत्र में बढ़ते मनोबल के साथ संघर्षरत है।

हालांकि प्रशांत भूषण ने यह भी माना कि नक्सलियों का कोई संगठित नेतृत्व नहीं है और जो बुद्धिजीवी व सामाजिक कार्यकर्ता उनके बीच काम करने जा रहे हैं वे भी उन्हे प्रभावित करने की स्थिति में नहीं है और न ही किसी बातचीत में उनका प्रतिनिधित्व कर सकते हैं। उन्होने कहा कि सबसे पहले आदिवासियों को बराबरी के स्तर पर लाया जाए तभी कोई बातचीत अर्थर्पूण रहेगी। गैर बराबर पक्षों के बीच कोई बातचीत नहीं हो सकती। इस दिशा में उन्होने राज्य और लोगों के सहयोग को भी आवश्यक बताया।

प्रशांत भूषण ने यह मानने से इंकार किया कि नक्सलवादी भी निर्दोष आदिवासियों का बड़े पैमाने पर कत्ल कर रहे हैं। उनका दावा था कि जिस पैमाने पर पुलिस आदिवासियों को मार रही है उसके मुकाबले नक्सलियों द्वारा निर्दोषों को काफी कम तादाद में मारा जा रहा है। उन्होने कहा कि हो सकता है कुछ मुखबिर आदि उनके हाथों मारे गए हों। लेकिन इस बारे में उन्हे ज्यादा जानकारी न होने से उन्होने किसी तरह की टिप्पणी करने से इंकार किया। उन्होने मांग की कि इस क्षेत्र में एमनेस्टी इंटरनेशनल या राष्ट्रसंघ द्वारा नियुक्त कोई एजेंसी या व्यक्तियों को भेजा जाना चाहिए जो वहां जाकर वस्तुस्थिति की निष्पक्ष जांच करे और निदान सुझाए।

सलवा जुडूम को पूरी तरह से गैर कानूनी और असंवैधानिक सशस्त्र बल बताते हुए प्रशांत भूषण ने कहा कि अगर यहां हिंसा को रोकना है तो सलवा जुडूम को तत्काल खत्म करना होगा। इन क्षेत्रों के चुनावों को भी उन्होने छद्म बताया।

स्कूल और अन्य विकास कार्यों में नक्सलियों द्वारा अवरोध पैदा करने और उन पर हमले किए जाने की ओर ध्यान दिलाने पर प्रशांत भूषण ने कहा कि नक्सली उन्ही स्कूलों को अपना निशाना बना रहे हैं जहां पर कोई पढ़ाई नहीं होती और उनमें माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई कर रहे सशस्त्र बल ने अपना ठिकाना बना रखा है। उन्होने कहा कि इसमें कोई आश्चर्य नहीं है क्योकि वे तो पुलिस वालों के खिलाफ युद्ध कर रहे हैं सो उन पर वे हमले तो करेंगे ही। उन्होने यह भी माना कि मुख्य सडक़ों से ज्यादा अंदर विकास कार्य होने संभव ही नहीं है। सरकारी एजेंसियां और मुलाजिम उनमें घुस ही नहीं सकते क्योकि वहां माओवादियों ने बारूदी सुरंगे बिछा रखी हैं।

छत्तीसगढ़ के मीडिया के कामकाज पर भी उन्होने असंतोष जताते हुए कहा कि राष्ट्रीय मीडिया और स्थानीय समाचार पत्रो में उन्हे एकदम अलग तरह की रिपोर्टिंग इस विषय पर देखने को मिली है। राष्ट्रीय मीडिया ज्यादा सही और जिम्मेदारी से रिपोर्टिंग कर रहा है जबकि यहां का मीडिया पुलिस के खौफ से अथवा किसी अन्य प्रभाव से पुलिस के पक्ष में लिख रहा है। प्रशांत भूषण ने बताया कि इन स्थितियों को देखते हुए कहा कि यहां के मीडिया पर बहुत विश्वास नहीं किया जा सकता और वे कोई मानवाधिकार आयोग अथवा उच्चा स्तरीय समिति लाने की कोशिश करेंगे ताकि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जो हो रहा है उसकी वस्तुस्थिति का पता चल सके।

न्यायपालिका को पुलिस विभाग के बाद दूसरा सबसे बड़ा भ्रष्ट विभाग बताते हुए प्रशांत भूषण ने कहा कि यह कोई सोच ही नहीं सत्ता कि सुप्रीम कोर्ट जैसे प्रतिष्ठान में भी पचास फीसदी से ज्यादा जस्टिस भ्रष्ट हैं। उन्होने कहा कि अगर कोई यह कहता है कि ज्यादा भ्रष्टाचार नीचे स्तर पर है और ऊपर के स्तर पर कम तो ऊपर की कोर्ट निचली कोर्ट के भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए कोई कदम क्यो नहीं उठाती? उन्होने कहा कि गाजियाबाद प्रकरण से तो यह स्पष्ट हो गया है कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे चलता है तथा उस स्तर पर भ्रष्टाचार की राशि का एक बडा हिस्सा उपर तक जाता है।

मेरी मौत कैसे होगी, यह प्रशांत भूषण तय नहीं करेंगे : विश्वरंजन


प्रशांत भूषण के इस बयान पर कि छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन या तो गोली से उड़ा दिए जाएंगे अथवा जेल में होंगे, खुद श्री विश्वरंजन का कहना है कि आदमी की मौत सिर्फ एक बार होती है और वे इस बात की परवाह नहीं करते कि उनका सामना मौत से कैसे होगी। उन्होने पूछा कि आखिर प्रशांत भूषण यह तय करने वाले कौन होते हैं कि उन्हे नक्सली गोली मारेंगे या नहीं?


प्रशांत भूषण के बयान को पूरी तरह एकतरफा बताते हुए विश्वरंजन ने कहा कि छत्तीसगढ़ के बारे में उनके पास पर्याप्त जानकारी नहीं है। पुराने बस्तर का कुल क्षेत्रफल करीब 40 हजार वर्ग किलोमीटर है जिसमें से बामुश्किल दो सौ वर्ग किलोमीटर पर खनिज पट्टे हैं और यहां निजी औद्योगिक घरानों को खदाने देने के काफी पहले से माओवाद पनप चुका है।

बस्तर में तो 1980 से माओवादी निर्दोषों का खून बहा रहे हैं, विकास रोक रहे हैं तथा स्कूल-सडक़ों को ध्वस्त कर रहे हैं। प्रशांत भूषण को चाहिए कि वे छत्तीसगढ़ खनिज विभाग से जानकारी लेकर अपने बयान को खुद ही सच्चाई की कसौटी पर कसें। निजीकरण और एसईजेड प्रदेश के लिए माओवाद के इतिहास के मुकाबले काफी नए हैं।

विश्वरंजन का कहना है कि ग्रीन हंट ऑपरेशन को रोकने का सवाल ही नहीं उठता। उन्होने कहा कि ग्रीन हंट के अंतर्गत सिर्फ नक्सली ही निशाने पर हैं और इसके साथ ही आदिवासियों के बीच ग्रीन हंट ऑपरेशन इस बात का जनजागरण कर रहा है कि पुलिस उनकी रक्षा में तत्पर है तथा वे अपनी सुरक्षा संबंधी समस्याएं लेकर पुलिस के पास आएं। पुलिस उनकी पूरी हिफाजत करेगी। उन्हे हमसे डरने की जरूरत नहीं है।

डीजीपी ने दावा किया कि इसका व्यापक असर हुआ है और आदिवासी खुद को पहले से ज्यादा सुरक्षित महसूस कर रहे हैं तथा पुलिस को स्वस्फूर्त सहयोग दे रहे हैं। उन्होने प्रशांत भूषण के इस बयान को भी गलत बताया कि पुलिस के हाथों सौ निर्दोषों की हत्या के मुकाबले नक्सली एक बेगुनाह आदिवासी को मार रहे हैं। उन्होने कहा कि पिछले कई वर्षों से नक्सली निर्दोष आदिवासियों के खून-खराबे का घिनौना खेल खेलते आ रहे हैं। हाल ही में एक प्रदर्शनी लगाई गई थी जिसमें प्रदर्शित चित्रों में स्पष्ट दिखाई देता है कि नक्सली किस हद तक हिंसा का इस्तेमाल कर रहे हैं और निर्दोष आदिवासियों और नागरिकों के प्राण ले रहे हैं।

प्रशांत भूषण द्वारा एमनेस्टी इंटरनेशनल की ओर से नक्सल प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किए जाने के प्रस्ताव पर श्री विश्वरंजन ने कहा कि कोई भी व्यक्ति या एजेंसी आकर देख सकती है कि इन क्षेत्रों में क्या हो रहा है। ऐसे किसी भी व्यक्ति या एजेंसी का स्वागत है।

पुलिस महानिदेशक का कहना है कि अगर बातचीत के लिए नक्सलियों के पास कोई मुद्दा ही नहीं है तो इतनी लंबी लड़ाई आखिर वे किस आधार पर लड़ रहे हैं यह उनके बीच जाने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं,
मानवाधिकार संगठनों और उनके प्रतिनिधियों के सोचने की बात है। इसी से साबित होता है कि वे हिंसा में विश्वास रखते हैं और शांति प्रक्रिया में शामिल नहीं होंगे।

प्रशांत भूषण के इस बयान पर कि 'विश्वरंजन छद्म साहित्यकार हैं, उन्होने कहा कि यह तय करना साहित्यिक बिरादरी और पाठकों का काम है न कि प्रशांत भूषण का। इसके बारे में उन्हे बहुत ज्यादा कुछ नहीं कहना है।



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newsdesk [डाट] chhattisgarh [एट] gmail.com पर प्रेषित कर सकते है, प्रतिक्रिया कल के समाचार पत्र मे प्रकशित हो सकती है.

(यह रपट हम छत्तीसगढ से साभार प्रस्तुत कर रहे है)

टिप्पणियाँ

  1. दोनों रिपोर्टें पढ़ने पर लगता है कि दोनों ही अतिवाद की शिकार हैं। यह केवल कानून और व्यवस्था की समस्या नहीं है, एक राजनैतिक समस्या भी है। उसे राजनैतिक तरीके से निपटाना होगा। माओवादियों को अलग थलग कर आदिवासियों और उन के क्षेत्रों का इस तरह विकास करना होगा जिस से आदिवासियों का शोषण रुके और विकास के लाभ उन्हें मिलने लगें। आदिवासियों की भागीदारी के बिना यह संभव नहीं। फिर भी कहना बहुत आसान है वास्तविक परिस्थितियों में काम करना बहुत कठिन है।

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  2. एक ही सवाल प्रशांत भूषण, जिनके वो हितैसी और नक्सलियों को पैसा कौन देता है ??? ये साफ साफ़ देश द्रोह है .

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  3. विश्वरंजन जी का नाम देखा तो भागे चले आये...हौसला है उनकी बात में.

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  4. बड़ी ही जटिल कहानी है .. खुले खूनी संघर्ष से निपटना भी तो उतना ही कठिन है .. आदिवासी जो उस क्षेत्र के मूल निवासी हैं उनके हितों कि रक्षा सर्वोपरि है . यहाँ राजनीती का साफ़ सुथरा होना ही प्रथम है . ..काश सब कुछ निर्दोष ढंग से हों पाता !

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  5. प्रशांत भूषण को पढ कर तो लगता है हमें आरती सजा कर नक्सलियों के आगे जाना चाहिये और "तुम ही हो माता पिता तुम्हीं हो" गाना चाहिये। जिस तरह से ये महानुभाव धमका रहे हैं इस बात का संज्ञान लिया जाना चाहिये।

    मैं इस बात से आश्चर्य से भर उठता हूँ कि किस तरह ताल ठोंक कर झूठ बोला जाता है। नक्सली आतंकवादियों का खुलेआम समर्थन ही गृहयुद्ध की स्थिति पैदा कर रहा है वरना बस्तर क्या है इससे किसी के "बाप" को मतलब नहीं है।

    दो बार नक्सलियों ने बस्तर संभाग को ट्रांसमिशन लाईन उखाड कर घुप्प अंधेरे में धकेल दिया.... पूरे देश का मीडिया भूत दिखाता रहा क्योंकि बस्तर से उनकी टी आर पी बढनी नहीं थी। टी आर पी तो बढती है जब कोई नक्सली पकडा जाता है और फिर उसकी पैरवी करने वाले रायपुर या दंतेवाडा में इकट्ठे होते हैं।

    नक्सलियों नें कितने आदिवासियों को मारा यह तो किसी के लिये सवाल ही नहीं है? नक्सलियों नें कितने जवानों को शहीद किया यह तो किसी की पीडा ही नहीं? पीडा है कि नक्सलियों के सफाये के लिये सरकार गंभीर हो रही है।

    नक्सली हैं तो बहुतों की दुकाने हैं फिर उनका क्या होगा? कौन उनकी वैचारिक बकवास पर "कवरेज" देगा?

    आदिवासियों ने अनेकों बार अपनी आवाज बुलंद की है कि नक्सली और इस तरह के "इम्पोर्टेड" प्रवक्ता उन्हे नहीं चाहिये। सलवा जुडुम नक्सलियों की खिलाफत है और हाल में मेधा पाटकर और उनके साथियों को भी जिस तरह आदिवासियों नें बाहर का रास्ता दिखाया है वह एक चेतावनी है कि जुबानी जुगाली सच को ढक नही सकती।

    ओपरेशन ग्रीन हंट आवश्यकता है और प्रशांत भूषण जैसे लोगों की बौखलाहट समझी जा सकती है।

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  6. यह तो सीधा-सीधा किसी प्रदेश के डीजीपी को धमकाने का मामला बनता है। संज्ञान लेना चाहिए।इस तरह की धमकी पुलिस एवं सुरक्षा बलों का मनोबल तोडने का प्रयास है। जब सीधा डीजिपी को धमकाया जा सकता है तो आम पुलिस की क्या बात करें। जो मासूम लोग मारे जा रहे हैं उनके प्रति कोई संवेदना नही है। रही साहित्यकार-पत्रकार होने की बात- तो अब ये प्रमाण-पत्र देंगे कौन साहित्यकार है और कौन पत्रकार है?
    जब बात निकलेगी तो दूर तक जाएगी।

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  7. एक ही सवाल प्रशांत भूषण, जिनके वो हितैसी और नक्सलियों को पैसा कौन देता है ??? ये साफ साफ़ देश द्रोह है .

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  8. संजीव हमेशा की तरह तुम सोचने पर मजबूर कर देने वाले तथ्य सामने लाते हो. बधाई

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  9. प्रशांत भूषण की टिप्पणी अमर्यादित और असंवैधानिक है । एक सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता के रूप में नाजायज और गैरजिम्मेदारानापूर्ण फतवा है । दरअसल प्रशांत भूषण की टिप्पणी को उस कड़ी में देखा जाना चाहिए जिसमें क्रमशः 1. नक्सलियों का बस्तर में आतंक, हिंसा व विकास विरोधी गतिविधियाँ 2. भारत और राज्य सरकार द्वारा नक्सलियों से मुक्ति हेतु संयुक्त अभियान की कार्यवाही 3. संयुक्त आपरेशन के विरोध के क्रम में तथाकथित मानवाधिकारवादियों का देशभर में बौद्धिक हंगामा व उसी तारतम्य में गांधीवादी एनजीओ हिमांशु कुमार का भ्रामक, नक्सली अंदाजवाली जनसुनवाई का आदिवासियों द्वारा घोर विरोध 4. उपवास के दौरान ही लापता हो जानेवाले हिमांशु के आव्हान पर मेधा पाटकर आदि सामाजिक कार्यकर्ताओं के दंतेवाड़ा पहुँचने पर आदिवासियों द्वारा विरोध 5. कथित मानवाधिकारवादी कॉलीन गोन्सालविस द्वारा बिलासपुर में अधिवक्ताओं के समक्ष न्यायालय पर नक्सलवाद के विरोधी होने के अमर्यादित चीख-पुकार आदि शामिल हैं जो एक ही हफ्ते में राज्य में हुई हैं ।
    प्रशांत भूषण की टिप्पणी अगला पायदान है, जिसमें उन्होंने पहली बार किसी डीजीपी को मार दिये जाने का फरमान जारी किया है । इसलिए मेधा पाटकर सहित ऐसे सामाजिक कार्यकर्ताओं का विरोध जायज है और किसी भी तरह प्रायोजित नहीं है। हिंसा से प्रभावित लोगों को बचाने के लिए जिस पुलिस को अपने सैकड़ो जवान गंवाने पड़ रहे हों यदि वह मेधा पाटकर के जन विरोध का थोड़ा आनंद ले लेती है तो उसमें बुराई क्या है ? खास कर तब जब ये नक्सली हिंसा का प्रकारांतर से सपोर्ट करते हैं जो केवल एक दो पुलिसिया कमजोरी का उदाहरण देकर बस्तर में आदिवासियों को बचाने के अभियान को ध्वस्त करना चाहते हैं ।

    मूल बात पर आऊँ - दुखद पहलू तो यह है कि यह प्रलाप उन्होंने राज्य के जाने-माने वकील व साहित्यकार श्री कनक तिवारी के घर किया । वह भी राज्य के वरिष्ठ पत्रकार व हिंदी ग्रंथ अकादमी के संचालक श्री रमेश नैयर, साहित्यकार श्री सुशील त्रिवेदी, पत्रकार श्री रूचिर गर्ग, श्री अनल जी, आदि के सामने । वैसे कनक जी कहते हैं कि वे श्री भूषण से पहली बार मिले और उन्हें इस बात का दुख है कि उनकी उपस्थिति में ऐसा हुआ । किन्तु मैं लोकायत में कुछ ही दिन पहले छपे श्री कनक जी की उस टिप्पणी को भी याद करता हूँ जिसमें उन्होंने विश्वरंजन के साहित्यकार होने को कटघरे में खड़े करने की कोशिश की है और इतना ही नहीं प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान और उससे जुड़े साहित्यकारों को भी । खैर... हमें या कम से कम मुझे तो साहित्यकार होने या न होने के लिए किसी वकील के सार्टिफिकेट की कोई ज़रूरत कतई नहीं ।
    कई बार लगता है कनकजी जैसे लोग सूरत बदलने के लिए नहीं सिर्फ हंगामा करने के मकसद कर्म करते हैं । (दुष्यंत कुमार की आत्मा को ईश्वर शांति प्रदान करे कि उनके मुरीद ही उन्हें निपटाने पर तुले हैं ।) दुखद यह भी है कि मीडिया के जागरूक प्रतिनिधियों की उपस्थिति में ही स्थानीय मीडिया को माँ-बहिन करने के बाद भी अब तक नैयरजी, त्रिवेदीजी, गर्ग जी, अनल जी आदि की टिप्पणी राज्य के जागरूक जनता के लिए अब तक नहीं आयी है । शायद न भी आये । यह दीगर बात है कि सुशील त्रिवेदी जी मुझे कह रहे थे कि प्रशांत भूषण को उन्होंने ही कटघरे में उस वक्त खड़े करने की कोशिश की थी । और शायद रूचिर गर्ग भी यही कहें । पर जनता कैसे जानेगी कि उन्होंने प्रशांत भूषण जैसे गैरजिम्मेदार वकील को राज्य के खिलाफ टिप्पणी पर विरोध जताया है ?
    अनिल पुसदकर पहले पत्रकार हैं जो भूषण के गर्दन पर हाथ डाले हैं । यह भूषण नहीं प्रदूषण है समाज का । विश्वास है भविष्य में ऐसे प्रदूषण को प्रायोजित तौर पर राज्य का कोई वकील अपने घर में बैठाकर राज्य के डीजीपी और साहित्यकार (या किसी और का भी क्यों नहीं ) के मारे जाने का फतवा नहीं सुनेगा और ताली भी नहीं बजायेगा ।

    प्रशांत भूषण ने राज्य की मीडिया को भी कटघरे में खड़े करके तीन लात मार दिया है । आशा है उसकी निंदा में राज्य भर के शब्दजीवी कुछ सोचेंगे । बहुत जल्द । आमीन...

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  10. तिवारी जी ,
    देर से ही सही हमारी गुड तिल भरी शुभकामनायें क़ुबूल फरमाइये !

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दे दे बुलउवा राधे को : छत्तीसगढ में फाग 1

दे दे बुलउवा राधे को : छत्‍तीसगढ में फाग संजीव तिवारी छत्तीसगढ में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा लोक मानस के कंठ कठ में तरंगित है । यहां के लोकगीतों में फाग का विशेष महत्व है । भोजली, गौरा व जस गीत जैसे त्यौहारों पर गाये जाने लोक गीतों का अपना अपना महत्व है । समयानुसार यहां की वार्षिक दिनचर्या की झलक इन लोकगीतों में मुखरित होती है जिससे यहां की सामाजिक जीवन को परखा व समझा जा सकता है । वाचिक परंपरा के रूप में सदियों से यहां के किसान-मजदूर फागुन में फाग गीतों को गाते आ रहे हैं जिसमें प्यार है, चुहलबाजी है, शिक्षा है और समसामयिक जीवन का प्रतिबिम्ब भी । उत्साह और उमंग का प्रतीक नगाडा फाग का मुख्य वाद्य है इसके साथ मांदर, टिमकी व मंजीरे का ताल फाग को मादक बनाता है । ऋतुराज बसंत के आते ही छत्‍तीसगढ के गली गली में नगाडे की थाप के साथ राधा कृष्ण के प्रेम प्रसंग भरे गीत जन-जन के मुह से बरबस फूटने लगते हैं । बसंत पंचमी को गांव के बईगा द्वारा होलवार में कुकरी के अंडें को पूज कर कुंआरी बंबूल की लकडी में झंडा बांधकर गडाने से शुरू फाग गीत प्रथम पूज्य गणेश के आवाहन से साथ स्फुटित होता है - गनपति को म