विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
पिछले छ: माह से छत्तीसगढ के ख्यात निर्देशक, रंगकर्मी व शव्द शिल्पी श्री रामहृदय तिवारी से मिलने और कुछ पल उनके सानिध्य का लाभ लेने का प्रयास कर रहा था किन्तु कुछ मेरी व्यस्तता एवं उनकी अतिव्यस्तता के कारण पिछले शनीवार को उनसे मुलाकात हो पाई. सामान्यतया मैं उनके फोन करने और उनके द्वारा मुझे बुलाने पर नियत समय पर पहुंच ही जाता हूं किन्तु इन छ: माह में मुझे कई बार उनसे क्षमा मांगना पडा था. पिछले दिनों हमारी मुलाकात छत्तीसगढ के विभिन्न पहलुओं पर निरंतर कलम चला रहे प्रो. अश्विनि केशरवानी जी के दुर्ग आगमन पर हुई थी तब श्री रामहृदय तिवारी जी द्वारा हमें दोपहर के भोजन के लिए आमंत्रित किया गया था और उन्होंनें अपनी व्यस्तताओं के बीच हमें लगभग पूरा दिन दिया था तब सापेक्ष के संपादक डॉ. महावीर अग्रवाल जी भी हमारे साथ थे. कल के मुलाकात में हिन्दी की प्राध्यापिका डॉ. श्रद्धा चंद्राकर द्वारा सर्जित किए जा रहे लघुशोध ग्रंथ- 'छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य को समृद्ध करने में निर्देशक रामहृदय तिवारी का अवदान’ पर भी चर्चा हुई जिसके संबंध में डॉ. श्रद्धा का कहना है कि यह लघु शोघ प्रबंध संपूर्ण वृहद शोध ग्रंथ के रूप में बन पडा है. इस शोध प्रबंध के लिए डॉ. श्रद्धा नें कुछ क्षेत्रीय मूर्धन्य साहित्यकारों से साक्षातकार लिए गए हैं जिनमें से डॉ. परदेशीराम जी वर्मा से पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं :
00 रामहृदय तिवारी जी के व्यक्तित्व से आप किस तरह परिचित है? पारिवारिक मित्र के रूप में, विचारक के रूप में, कलाकार के रूप में अथवा एक निर्देशक के रूप में? उनका कौन सा पक्ष आपको सर्वाधिक प्रभावशाली लगता है? और क्यों ?
0 मैं श्री रामहृदय तिवारी के मंचीय कौशल से प्रभावित होकर उनसे जुड़ा। उन्हें मैंने पहली बार दाऊ रामचंद्र देशमुख जी के बाड़ा में देखा। तब पदुमलाल पुन्नालाल जी बख्शी की लिखित रचना पर मंचीय इतिहास की अलभ्य कृति 'कारी’ को जमीनी आधार देने के लिए दाऊ जी वितान तान रहे थे। वहीं मेरा परिचय रामहृदय तिवारी से हुआ। चुकचुकी दाढ़ी वाले, अंतर्मुखी, छुन्ने से दिखने वाले रामदृदय तिवारी से मैं र्पूणतया अपरिचित था। मैं मिनटों में घुल मिल जाने वाला बहिर्मुखी व्यक्ति हूं। तिवारी जी दूसरे सिरे पर खड़े रहस्यमय व्यक्ति लगे। मुझे ऐसे लोग सहसा नहीं सुहाते। मगर तिवारी जी की एक विशेषता ऐसी थी, जिससे मैं बांध लिया गया। वे अतिशय विनम्र और अल्पभाषी है। अनावश्यक वार्तालाप से बचते हैं मगर जरुरी वालों को कहे बगैर चुप नहीं रहते। ऐसे लोग विवाद में पड़े बगैर सदैव मैदान मार लेते हैं। यही पक्ष मुझे सर्वाधिक प्रभावित कर गया। आज भी चुप रहकर मंच के माध्यम से ऐलान-ए-जंग करने का उनका अंदाज मुझे सुहाता है।
00 'क्षितिज रंग शिविर’ की स्थापना से लेकर 2009 तक पिछले चार दशकों में हिन्दी रंगमंच के क्षेत्र में उनके योगदान को आप किस रूप में देखते हैं?
0 तुलसीदास जी की विनय पत्रिका को विद्वान, मानस से भी बड़ी रचना कहते हैं। मगर जनमन रमता है मानस पर। उसी तरह रामहृदय तिवारी की हर नाट्य-कृति महत्वर्पूण है। मगर उन्हें लोक में स्थापित किया 'कारी’ ने। यह छत्तीसगढ़ी लोकमंच की कृति है। हिन्दी नाटकों का लंबा सिलसिला है जिसमें अंधेरे के उस पार, भूख के सौदागर, भविष्य, अश्वस्थामा, राजा जिंदा है, मुर्गीवाला, झड़ी राम सर्वहारा, पेंशन, विरोध, घर कहां है, हम क्यों नहीं गाते, अरण्यगाथा, स्वराज, मैं छत्तीसगढ़ महतारी हूं इत्यादि है। मुझे 'अरण्य गाथा' पसंद है। 'घर कहां है' और 'मुर्गीवाला' अन्य कारणें से। उनकी मारक शक्ति और जनहित की पक्षधरता के कारका ये नाटक मकबूल हुए। रामहृदय तिवारी ने छत्तीसगढ़ में हिन्दी मंच को चमत्कारिक स्पर्श दिया। वे भाषा के जानकार और शास्त्रीयता के पक्षधर है। इसलिए उनका काम सर चढक़र बोलता है। निश्चित रूप से रामहृदय तिवारी छत्तीसगढ़ में रंगमंच के ऐसे पुरोधा हैं, जिन्हें अभी पूरी तरह जानना बाकी है। वे अगर व्यवसायिकता के दबाब और छिटपुट कामों की मसलूफियत को छोड़ सकें तो छत्तीसगढ़ में निर्देशन की अविस्मरणीय और सहज परंपरा की पुख्ता नींव रख देंगे। हम प्रतीक्षा कर रहे हैं।
00 रामहृदय तिवारी निर्देशित कौन- कौन से नाटक आपने देखे हैं? प्रभावोत्पादकता की दृष्टि से इन नाटकों को आप किस कोटि में रखते हैं? सामाजिक समस्याओं के निदान में उनके नाटक किस हद तक सफल कहे जा सकते हैं?
0 इस प्रश्न के उत्तर ऊपर के प्रश्नों के जवाब में मैं दे चुका हूं। आम जन की उपेक्षार्पूण जिंदगी पर मेरी कई कहानियां है। मुझे आश्चर्य हुआ सुखद संयोग पर कि जिस दंश के एक मंचीय परिवार के सदस्य होने के नाते मैं झेलता रहा, उसे श्री तिवारी ने किस तरह पूरे प्रभाव और मंचीय कौशल के साथ अपनी कई प्रस्तुतियों में रख दिया।
00 छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति, लोक नाट्य और छत्तीसगढ़ी नाटक के क्षेत्र में रामहृदय तिवारी का क्या विशिष्ट योगदान है? आप अपनी राय दीजिए।
0 छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति, लोकनाट्य और छत्तीसगढ़ी नाटक के संदर्भ में किसी व्यक्ति के योगदान को कुछेक पंक्तियों में रेखांकित करना उचित नहीं होगा। छत्तीसगढ़ी नाटकों में श्री रामहृदय तिवारी द्वारा निर्देशित नाटक हैं- 'लोरिक चंदा', 'कारी', 'कार कहां हे', 'मैं छत्तीसगढ महतारी हूं', 'धन धन के मोर किसान' 'नवा बिहिनिया', 'आजादी के गाथा' 'बसंत बहार' आदि। ये सभी प्रस्तुतियां महत्वर्पूण है। हर नाटक की अपनी विशिष्टता, प्रभाव और गमक है।
00 'मैं छत्तीसगढ़ महतारी हूं' नाटक के लेखक और निर्देशक रामहृदय तिवारी आम छत्तीसगढ़ी आदमी के जीवन के यथार्थ, उसकी पीड़ाओं और उसकी अदम्य जिजीविषा को किस तरह अभिव्यक्ति देते हैं?
0 'मैं छत्तीतसगढ़ महतारी हूं' नाटक में शीर्षक से ही सब कुछ स्पष्ट हो जाता है। हर व्यक्ति का अपना नजरिया होता है कृतियों को परखने का। नाटक में छत्तीसगढ़ के भावाकुल सपूतों के महिमा मंडल का प्रयास प्रभावित करता है, मगर उनकी कमजोरियों पर ऊंगली रखने की अपेक्षित और पर्याप्त कोशिश नहीं की गई। सोमनाथ का मंदिर ध्वस्त हुआ तब मंदिर के पुजारियों की संख्या लुटेरों से कई गुनी अधिक थी, मगर संघर्षहीन सुविधा भोगी लोगों की भीड़ काट दी गई। छत्तीसगढ़ भी आज सोमनाथ बना हुआ है। अंधेरा गहरा है, रात काली है, चारों ओर बदहवासी है, लोग गफलत में है। जागरण का संदेश देने के निमित्त ही यह कृति तैयार हुई है। जागरण का संदेश देना हमारा पहला दायित्व है। हमारा गौरवशाली अतीत और भयावह भविष्य दोनों मंच पर लिखे। हांफता हुआ वर्तमान भी मंच पर नजर आये। इस दृष्टि से 'मैं छत्तीसगढ़ महतारी हूं' नाटक देखता हूं तो मुझे लगता है कि लडऩे का जज्बा पैदा करने की दृष्टि से नाटक को और कई दिशाएं तय करना है। फिर भी यह एक यादगार कृति है।
00 रामहृदय तिवारी ने दूरदर्शन के लिए, सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं के लिए कई छोटी बड़ी फिल्मों का निर्देशन किया है। इनमें से कौन-कौन सी फिल्में आपने देखी है? ये फिल्में दर्शकों को किस सीमा तक प्रभावित करती है? साथ ही यह भी बताइए कि ये फिल्में दर्शकों के समक्ष किस तरह की चुनौतियां प्रस्तुत करती है?
0 रामहृदय तिवारी निर्देशित लगभग सभी फिल्में मैंने देखी है। तिवारी जी में कला- साना और समर्पण के गुण इतने अधिक हावी हो जाते हैं कि उनसे बाजार छूट जाता है। मैं कामना करता हूं कि वे बाजार की विशेषता को समझकर मैदान मारने के लिए कमर कस सकें। कलात्मक गुकावत्ता की दृष्टि से उनकी सभी फिल्में ऐसी हैं, जिन पर गुणियों की नजर पड़े तो वे पुरस्कृत हो जाएं।
00 रामहृदय तिवारी समय- समय पर समसामयिक विषयों को लेकर अपने विचार व्यक्त करते रहे हैं? एक लेखक के रूप में उनका मूल्यांकन आप किस तरह करेंगे?
0 रामहृदय तिवारी शब्द शिल्पी है। अच्छे चिंतक है। उनका व्यक्तित्व बेहद भाव प्रणव है। यथार्थ से टकराने वाली भाषा त्रयाशं से टकराने वाले स्वभाव से जन्म लेती है। तिवारी जी आध्यात्म, कला, साहित्य के तिराहे पर खड़े न होते तो उनकी सिद्धि और प्रसिद्ध किसी एक क्षेत्र में कुछ और रूप ग्रहण कर चुकी होती। लेकिन तमाम क्षेत्रों की मसरूफियत के बावजूद वे भाषा को साधने के लिए खूब यत्न करते रहे, इसलिए लेखन में भी उनकी गति बनी रही। भाव जगत में जब वे विचरण करते हैं- तब भाषा उनके पीछे भागती है। जब वे यथार्थ से टकराने का प्रयास करते हैं तब भाषा के पीछे वे भागते हैं। मुझे उनके इस द्वन्द और दुख को देखकर सदैव आनंद आया।
00 त्रैमासिक पत्रिका 'सर्जना' के अभी तक आठ अंक प्रकाशित हो चुके हैं। सर्जना के संपादक के रूप में रामहृदय तिवारी निरंतर प्रयोगशाला नजर आते हैं। 'सर्जना' की उपादेयता और प्रयोगशीलता पर अपने विचार बताइए।
0 श्री रामहृदय तिवारी के संपादन में पिछले दो वर्षों से प्रकाशित होने वाली 'सर्जना' एक विशिष्ट त्रैमासिक पत्रिका है, भीड़ में अलग पहचानी जा सकने वाली, स्तरीय और मूल्यवान। मैं इसका नियमित पाठक हूं। शोधार्थियों के लिए भी यह पत्रिका उपयोगी है, ऐसा मैं मानता हूं।
अच्छा लगा जानकर...सक्षात्कार पढ़कर.
जवाब देंहटाएंआभार!
श्रद्धेय तिवारी जी नामानुरूप काम.....सादर प्रणाम।
जवाब देंहटाएंआभार भैया....
बढ़िया साक्षात्कार...आभार संजीव जी।
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