विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
विगत दिनों रायपुर में मुक्तिबोध के निर्वाण तिथि 11 सितम्बर को उन्हें याद करते हुए शव्दशिल्पी इकत्रित हुए.जिसमें मुक्तिबोध की स्मृतियां मुखरित हुई.प्रसिद्ध कवि अशोक बाजपेयी ने अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा कि मुक्तिबोध ने अपनी 47 वर्ष की अल्पायु में जो कीर्ति हासिल की वह बहुत कम साहित्यकारों ने अर्जित की। वे हिंदी साहित्य के एकमात्र गोत्रहीन कवि-आलोचक थे जिनकी परंपरा में कोई पूर्वज परिलक्षित नहीं होता। मुक्तिबोध को आत्मवियोग का कवि बताते हुए उन्होंने कहा कि वे अंर्तकथा के कवि थे। अज्ञेय के अलावा वे नागाजरुन तथा त्रिलोचन के भी विलोम थे। वे जनप्रिय तो नहीं लेकिन जनधर्मी कवि अवश्य थे। समारोह में उपस्थित साहित्यकार दूधनाथ सिंह ने उन्हें विश्व मानस का कवि बताते हुए कहा कि इतिहास किस तरह लिखा जाए यह मुक्तिबोध ने ‘इतिहास का अनुनमामित’ में बखूबी दर्शाया है। मुक्तिबोध की राजनैतिक दृष्टि पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि आजादी के बाद की भारतीय तथा वैश्विक राजनीतिक परिवेश पर की गई टिप्पणियां की प्रासंगिकता का उल्लेख किया।
आयोजन के पहले सत्र में मुक्तिबोध की कविताओं तथा कहानियों का पाठ किया गया। सुप्रसिद्ध कवि विनोदकुमार शुक्ल ने मुक्तिबोध की ‘मुझे कदम-कदम पर’ कविता का पाठ किया। कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता व जनसंचार विश्वविद्यालय के कुलपति सच्चिदानंद जोशी ने मुक्तिबोध की कहानी ‘समझौता’ का वाचन किया। इसी कड़ी में परितोष चक्रवर्ती ने ‘लकड़ी का रावण’, राजेंद्र मिश्र ने मुक्तिबोध की साहित्यिक डायरी के चुनिंदा अंश पढ़े। सुभाष मिश्र ने ‘भूल गलती’ तथा चंद्रकुमार जैन ने ‘मैं तुम लोगों से दूर हूं’ कविता का पाठ किया। इस अवधि पर तीन पुस्तकों का लोकार्पण भी हुआ जिसमें मुख्य अतिथि अशोक बाजपेयी, दूधनाथ सिंह तथा विनोदकुमार शुक्ल ने मुक्तिबोध की तीन किताबों ‘शेष-अशेष’, ‘भारत : इतिहास और संस्कृति’ तथा ‘जब प्रश्न चिन्ह बौखला उठे’ का विमोचन किया। इसी अवसर पर मुक्तिबोध पर केंद्रित तथा राजेंद्र मिश्र द्वारा संपादित पुस्तक ‘केवल एक लालटेन के सहारे’ का विमोचन भी श्री बाजपेयी ने किया। पुस्तकों के प्रकाशक राजकमल प्रकाशन के अशोक महेश्वरी इस अवसर पर विशेष रूप से उपस्थित थे।
संजीव तिवारी
इस महत्वपूर्ण प्रस्तुति के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएं{ Treasurer-S, T }
साहित्य जगत के मूर्धन्य साहित्य कारों का समाचार देकर आपने दो धन्य कर दिए
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी.. हैपी ब्लॉगिंग
जवाब देंहटाएंगत वर्ष मुक्तिबोध को पढ़ा बहुत अच्छा लगा। चाँद का मुह टेढ़ा है संग्रह में "अंधेरें में" नामक कविता मुझे बहुत पसंद हैं। यहाँ आपके आलेख ने यादों को फ़िर से ताजा कर दिया। धन्यवाद संजीव जी।
जवाब देंहटाएंआपने बडी अच्छी जानकारी दी !आपका
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद !
मुक्तिबोध में आज का भ्रष्ट समाज दीखता
है !
मै भोपाल मे " महत्व भगवत रावत " कार्यक्रम मे शामिल होने गया था आज ही लौटा हूँ । इस कार्यक्रम की रपट यहाँ पढ़ने को मिल गई । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंमुक्तिबोध पर आपने जो आलेख पोस्ट किया उसके लिए आपको बधाई !! अशोक वाजपेयी और राजेंद्र मिश्र जैसे लोगों की उपस्थिति !! पढ़कर ख़ुशी हुई!!
जवाब देंहटाएं... मुक्तिबोध की कविता चाँद का मुंह टेढा है अप्रतिम लगती है हमें ..बीडी के साथ उनकी फोटो सर्वहारा का प्रतीक लगाती है
गजानन माधव मुक्तिबोध को बहुत पढ़ा नहीं है पर जितना उनके बारे में पढ़ा है - उससे उनका तिलस्म गहराता जाता है!
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