विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
कुछ वर्ष पहले पत्रकार रामशरण जोशी नें हंस में दो किश्तों में लेख लिखा था. उसमें उन्होंनें लिखा था कि आपतकाल में दो माह के लिए वे बस्तर आये थे. वहां रहकर अपने आई.पी.एस.मित्र की कृपा से बस्तर की बालाओं के साथ उन्होंनें खुलकर दैहिक शोषण का खेल ख्ोला. जुगुप्ता उपजाने वाला अमर्यादित लंबा वृतांत दो किश्तों में छपा. उन्होंनें लिखा कि छत्तीसगढ में पदस्थ दीगर प्रांत के अफसर अपनी बीबी लेकर छत्तीसगढ में नहीं आते क्योंकि यहॉं औरतें आसानी से उपलब्ध रहती हैं.
उन्होंनें यह भी लिखा कि जो अफसर बीबी लेकर छत्तीसगढ आता है उसे बेवकूफ समझा जाता है. हंस में छपे उस आलेख पर मैनें तुरंत प्रतिवाद किया. हंस संपादक राजेन्द्र यादव नें अगले अंक में लेखमाला के प्रकाशन के लिए माफी मांग ली. और किस्सा खत्म हो गया. मगर इस प्रकरण से यह तो जाहिर ही हो गया कि छत्तीसगढ़ और विशेषकर छत्तीसगढ़ी को कितनी हिकारत से तथाकथित सभ्य दुनिंया देखती है.
डॉ.परदेशीराम वर्मा जी के एक लेख का अंश. (छत्तीसगढ़ आसपास से साभार)
रामशरण जोशी से संबंधित एक और पोस्ट पढ़ें - अपने करीबी देह संबंधों की कथा क्या सार्वजनिक की जानी चाहिए ?
शर्मनाक.
जवाब देंहटाएंरामशरण जोशी द्वारा इसे लिखा जाना भी सही नहीं था और हंस ने इसे छाप कर तो अपराध किया था।
जवाब देंहटाएंयह भी शोषण का एक रुप है जिस में बंद समाज के लोग खुले समाज के लोगों का शोषण करते हैं सिर्फ इस लिए कि एक आर्थिक रूप से सक्षम और दूसरे कमजोर हैं।
मगर इस प्रकरण से यह तो जाहिर ही हो गया कि छत्तीसगढ़ और विशेषकर छत्तीसगढ़ी को कितनी हिकारत से तथाकथित सभ्य दुनिंया देखती है. >>>
जवाब देंहटाएंऔर यह तथाकथित सभयसमाज भी हिकारत का पात्र है! नाली के कीड़े!
patrkarta ke daroga logo kaha ho,ek aur babhan fansa jaal me .suru ho jao.
जवाब देंहटाएंतीव्र भर्त्सनीय
जवाब देंहटाएंअभी एक पोस्ट पर राज्यपाल के द्वारा छत्तीसगढ़ी में भाषण की मिसाल पढ़ कर आ रहा हूं और अब यहां छत्तीसगढ़ का दूसरा रूप देख रहा हूं। निंदनीय।
जवाब देंहटाएंAFSOSNAAK.
जवाब देंहटाएं( Treasurer-S. T. )
उस समय वाकई इस लेख पर विवाद हुआ था वर्मा जी और अन्य साहित्यकारो ने इस का विरोध भी किया था । लेकिन क्या करें कोई आदत से बाज न आये तो ।
जवाब देंहटाएंaapne badi himmat se likha hai...
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